Wednesday, December 31, 2008

नया साल उन दिलों के नाम, जिनमें प्‍यार करने की ताकत बची है

नया वर्ष
नयी उम्‍मीदों,
नयी तैयारियों
नयी शुरुआतों के नाम,
पराजय की घड़ी में भी
विजय के स्‍वप्‍नों के नाम,
लगातार लड़ते रहने की
जिद के नाम,
संकल्‍पों के नाम जीवन,
संघर्ष और सृजन के नाम!!!

नया वर्ष युवा दिलों के नाम,
साहसिक यात्राओं के नाम,
सक्रिय ज्ञान के नाम,
न्‍याय-युद्ध में भागीदारी की
तत्‍परता के नाम,
सच्‍चे प्‍यार के नाम,
मानवता के भविष्‍य में
उत्‍कट आस्‍था के नाम!!!

आप सभी को नववर्ष की हार्दिक बधाई। ये पंक्तियां जनचेतना के कार्डों में हैं और मुझे काफी अच्‍छी लगती हैं।

हमास को हटाना कौन सा लोकतंत्र है?

बच्‍चों, बूढ़ों, आम नागरिकों पर हमला करके इजरायल हमास को खत्‍म करने का मंसूबा बांधे हुए है। एक बात तो यही है कि अगर हमास को खत्‍म करना है तो नागरिकों पर हमले ही क्‍यों हो रहे है दूसरी और ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण बात कि हमास को खत्‍म करने का अधिकार इजरायल सरकार को किसने दिया है? हमास पहले फिलीस्‍तीनी लोगों के वोट पाकर शासन में आया था न कि बंदूक के जोर पर। उसे भंग क्‍यों किया गया? लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों को हटाना लोकतंत्र की किस परिभाषा के अंतर्गत आता है? इसी तर्क से चला जाए तो नेपाल की माओवादी सरकार को भी उखाड़ फेंकना चाहिए अगर वह नेपाली जनता को बचाने के लिए किसी हमले का जवाब दे। दरअसल लोकतंत्र, जिसकी इतनी दुहाई दी जाती है उसको अमेरिका और इजरायल और उनके लग्‍गू-भग्‍गू जब जैसा चाहते हैं वैसा इस्‍तेमाल कर लेते हैं। कुल मिलाकर लोकतंत्र उनके लिए टिश्‍यू पेपर से ज्‍यादा नहीं है जिसे इस्‍तेमाल करने के बाद वो इसे कभी भी कूड़े की टोकरी में फेंक देते हैं। इस ''लोकतंत्र'' में विश्‍वास क्‍या हिलता दिखाई नहीं दे रहा है?
(पुनश्‍च: ताजा खबर है कि इजरायल ने गाजापट्टी की घेरेबंदी में समुद्र के रास्‍ते दवाईयां लाने वाले जहाज 'डिगनिटी' पर हमला करके उसे वापस जाने पर मजबूर कर दिया है। फिलीस्‍तीन के अस्‍पतालों में दवाइयों की भारी किल्‍लत है। और ओबामा जिन्‍हें काफी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया था, ने इस मामले में चुप्‍पी साध ली है। हमारे देश में माकपा नाम की पार्टी ने इन हमलों का विरोध किया जिसके खुद के हाथ सत्‍तर के दशक में हजारों निर्दोष छात्रों-किसानों और हाल में नंदीग्राम और लालगंज के लोगों के खून से सने हैं।)

Sunday, December 28, 2008

क्‍या इजरायली सरकार आतंकवादी नहीं है?

गाजा में बेकसूरों का खून बहाने वाली इजरायली सरकार क्‍या आतंकवादी नहीं है? हम आतंकवाद को एक ही चश्‍मे से क्‍यों देखते हैं? क्‍या इसलिए कि हमें ऐसे ही देखना सिखाया जाता है। हालांकि बहुत सारे लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे लेकिन हम आतंकवाद को दरअसल उस नजरिए से देखते हैं जो देश और दुनिया भर की सरकारें हमें दिखाती हैं। जबकि हकीकत यह है कि राज्‍य या सरकारी आतंकवाद ज्‍यादा घातक और अमानवीय होता है। आंकड़े भी बताते हैं कि राज्‍य आतंकवाद से मरने वाले निर्दोष लोग संख्‍या में कहीं ज्‍यादा होते हैं। लेकिन इसके खिलाफ कोई असंतोष नहीं दिखाई देता है। वजह वही नजरिया है जो सरकारों ने हमें दिया है। इस घटना को ही लें। क्‍या आपको लगता है कि इसकी दुनिया के पैमाने पर इतनी भर्त्‍सना होगी जितनी मुम्‍बई हमलों या किसी और हमले की हुई थी। यकीनन नहीं। क्‍योंकि यह बात ही जेहन से गायब कर दी गई है कि राज्‍य या सरकार भी आतंकवादी कार्रवाई कर सकती है। आतंकवाद की परिभाषा को सरकारें बड़ी चालाकी से अपने आतंकवाद को छुपाने और कमजोरों के प्रतिरोध पर नकारात्‍मक लेबल चस्‍पां करने के लिए इस्‍तेमाल करती हैं। असल में आतंकवाद आतंकवाद होता है। बल्कि कई बार कमजोरों की बदले की कार्रवाई राज्‍य या सरकारों के दमन के जवाब में ही होती हैं। गाजा का नरंसहार एक आतंकवादी घटना है। और इसके लिए इजरायली सरकार को भी आतंकवादी माना जाना चाहिए। सवाल यह है कि आतंकवाद की परिभाषा को हम सरकारों से उधार लेकर मानते रहेंगे या खुद आतंकवाद (अन्‍य और राज्‍य के आतंकवाद को भी) को ठीक से समझना शुरू करेंगे।

Thursday, December 25, 2008

आज का कंधमाल

(आज क्रिसमस के दिन कंधमाल फिर से खबरों में मौजूद है। एक ओर कई सारे संगठनों ने बंद का आह्वान किया है वहीं केंद्र सरकार ने हिंसा की आशंका जताते हुए उड़ीसा सरकार को सावधान रहने की हिदायत दी है। सैन्‍यबलों की तैनाती भी कर दी गई है। समझा जा सकता है कि कंधमाल में स्थिति अभी सामान्‍य नहीं हुई है। इन्‍हीं हालातों के बीच सामाजिक कार्यकर्ता प्रमोदिनी प्रधान और रंजना पाधी कंधमाल के दौरे से वापस आई हैं। उनके अनुसार राहत शिविरों में लोगों के बेहद बुरे हालात हैं, उन पर बम फेंके जा रहें हैं, पानी के टैंक को जहरीला किया जा रहा है। वहां के ताजा हालात पर उनके लेख का हिन्‍दी में अनुवाद करके दे रहा हूं। जाहिर है अभी कंधमाल शांत नहीं हुआ है और सतह के नीचे कुछ चल रहा है।)..................................






आज कंधमाल की स्थिति कितनी 'सामान्य' है

- प्रमोदिनी प्रधान, रंजना पाधी
''...साम्प्रदायिक हिंसा के इन भयानक और शर्मनाक हादसों की एकदम शुरुआत से ही मेरी सरकार ने उस अशांत जिले में स्थिति सामान्य करने और शांति बहाल करने के लिए हरसंभव कदम उठाये थे। बीते सप्ताह या उससे पहले से वहाँ स्थिति सामान्य है और इसे नियंत्रण में लिया जा चुका है।'' - सीएनएन-आईबीएन को दिये गये एक साक्षात्कार में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक।

23 अगस्त के बाद से उड़ीसा का कंधमाल जिला आदिवासी और दलित दोनों पृष्ठभूमि के ईसाइयों पर भयानक और क्रूर हमलों की एक अन्तहीन बाढ़ का साक्षी रहा है। 50,000 से ज्यादा ईसाइयों को हिंसा के दम पर उनकी जगह-जमीन और रोजी-रोटी से बेदखल कर दिया गया है। उनके अपने गाँवों में संघ परिवार के तलवार लहराते हिन्दू गिरोहों की जोर-जबर्दस्ती के अलावा राहत शिविरों के नरक और अपने घरों को वापस लौटने की असम्भव लगती सम्भावना के बीच ये लोग गहरे सदमे, निराशा और अनिश्चितता में डूबे हुए हैं।
यह लेख कंधमाल हिंसा से प्रभावित लोगों और उनकी बेदखली के अभी तक महसूस किये जा रहे गहरे आतंक की एक झलक प्रस्तुत करेगा। हमने कंधमाल से बाहर शरण लेने वालों के साथ-साथ जी उदयगिरी ब्लॉक में बनाये गये राहत शिविरों में से एक शिविर के लोगों से बातचीत की। हमने बेरहामपुर में एमकेसीजी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती पीड़ितों से मुलाकात की। उड़ीसा सरकार के इस दावे के उलट कि कंधमाल में स्थिति नियंत्रण में है और गिरफ्तारियाँ करके कड़े कदम उठाये जा रहे हैं जो कि सिर्फ दो सप्ताह पहले शुरू की गयीं थीं, हम यहाँ सवाल उठाना चाहते हैं कि कंधमाल आज हकीकत में उन लोगों के लिए कितना सुरक्षित है जो यहां कई दशाब्दियों या उससे पहले से रहे रहे थे। ईसाई समुदाय डर, सदमे और गहरी असुरक्षा की भावना में जी रहा है। यहाँ तक कि शिविरों में भी लोग किसी भी क्षण हमले का शिकार होने के लगातार डर से सहमे हुए हैं। ये लोग आपको उन लोगों के नाम बताएंगे जिन्होंने बढ़-चढ़कर उन पर हमला करने वाली भीड़ को भड़काया लेकिन अभी भी यहाँ-वहाँ खुलेआम घूम रहे हैं। वे आपको उन स्थानीय पुलिस अधिकारियों के नाम बताएंगे जो दंगाइयों को सूचनाएँ पहुँचा रहे हैं।

उड़ीसा सरकार के दावे
कंधमाल में ईसाइयों पर हुए हमलों के संबंध में सरकार ने 500 से ज्यादा लोगों को पकड़ने का दावा किया है। ईसाइयों के खिलाफ हमलों में शामिल लोगों की हाल में हुई गिरफ्तारियों से शायद हिंसा का पैमाना थोड़ा नीचे आया हो। लेकिन उड़ीसा पुलिस प्रभावित होने वाले दलित ईसाइयों का भरोसा खो चुकी है जिसने भीड़ द्वारा हमला किये जाने पर उनकी पुकारों का कोई जवाब नहीं दिया था। दूसरी तरफ, कुई समाज समन्वय समिति, जोकि कंधमाल में आदिवासियों का छाता संगठन है, क्षेत्र से केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल हटाने और शांति बहाल करने की पूर्व-शर्त के तौर पर गिरफ्तार किये गये 'निर्दोषों' की रिहाई की अपनी माँग पर अड़ी हुई है (टाइम्स ऑफ इण्डिया, 15.10.08; कंधमाल ट्राईबल्स सेट टर्म्स फॉर ट्रूस)।
उड़ीसा सरकार लगातार यह कह रही है कि कंधमाल में स्थिति सामान्य होती जा रही है और लोग शिविरों को छोड़कर जा रहे हैं। यह दावा किया गया है कि शिविरों में रह रहे लोगों की संख्या 23,000 से घटकर 13,000 हो गयी है। कंधमाल में स्थिति निंयंत्रित करने वाले जिम्मेदार अधिकारी शिविरों में रह रहे लोगों को अपने गाँव वापस लौटने के लिए राजी करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। ''हमारे पास अपने पड़ोसी चुनने का विकल्प नहीं है। हमें उन्हीं के साथ रहना पड़ेगा।''- यह बात कंधमाल के जिला हेडक्र्वाटर फुलबनी में हुई शांति बैठक में अनुसूचित जाति और जनजाति के आयुक्त तारा दत्ता ने एकदम बेलागलपेट कही। सरकार ने कुछ इलाकों में कुछ लोगों को घर लौटने के लिए राजी कर लिया है। लेकिन ज्यादातर जगहों पर लोगों ने अपनी मर्जी से शिविरों को छोड़ दिया है। शिविरों में लोगों का आना-जाना जारी है लेकिन यहाँ पर केवल एक बार पंजीकरण किया गया था और शिविर छोड़ने वाले लोगों का यहाँ कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं रखा गया है। जी उदयगिरी ब्लॉक में, लगभग 4,000 लोगों वाले तीन शिविर बनाये गये थे। कई लोगों ने इन शिविरों को छोड़ दिया है, लेकिन कोई भी एक आदमी अपने घर नहीं लौटा। तब ये लोग कहाँ चले गये? और वे लोग जो अपने गाँव वापस लौटे हैं, किन शर्तो पर?

दूसरे जिलों और राज्यों में पलायन
शिविरों मे लोगो का कम होना लोगों का अपने गाँव वापस लौटने का सूचक नहीं है जैसाकि उड़ीसा सरकार दावा करते हुए कह रही है। कई लोग दूसरे राज्यों जैसे आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडू और केरल की ओर जा रहे हैं तो दसियों-हजारों लोगों ने उड़ीसा के ही दूसरे शहरों में शरण ले ली है। भुवनेश्वर में 250 से ज्यादा लोग वाईएमसीए की मदद से रह रहे हैं और उन्हें सरकार से भी राहत मिली है। कई लोगों ने खुरदा के पास जालना में मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी में आश्रय लिया है। कंधमाल से या फिर राहत शिविरों से रिश्तेदारों के घरों में अस्थायी शरण माँगकर रहने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। वे चोरी-छिपे रहते हैं और उन्होंने हमसे अनाम रखे जाने का निवेदन करते हुए बातचीत की। रिश्तेदारों या कुछ शुभचिन्तकों द्वारा गुप्त ढंग से राहत दी जा रही है। ऐसी जगहों में कटक और बेरहामपुर और संभवत: कई अन्य स्थान हैं। बेरहामपुर में काफी सुरक्षित अनुमान भी कम से कम 200 लोगों के शरण लिये जाने का है। सहायता करने वाली स्थानीय पुलिस के अनुसार, प्रशासन ने उनकी रक्षा करने और सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन उनके किसी से न मिलने और कोई राहत न लेने की शर्त पर दिया है। इस प्रकार का कोई भी मिलना-जुलना बजरंग दल के स्थानीय तत्वों का ध्यान खींचने वाला समझा जाता है जिससे प्रशासन बचना चाहता है। इस तरह पीड़ितों द्वारा चुप्पी और गुमनामी बनाये रखने की शर्त पर सुरक्षा सुनिश्चित की गयी है। तब फिर उनके द्वारा मदद माँगे जाने या अपनी एफआईआर तक दर्ज कराने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? बेरहामपुर में रह रहे लोगों में मौजूद भय और उद्विग्नता काफी कुछ बल्कि कहें कि सबकुछ रेखांकित कर देता है जो शायद उन लोगों को अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में कहना है।
एक 32 वर्षीय आदमी ने अपनी पत्नी को अपने चाचा के यहाँ छुपा रखा है क्योंकि उनका परिवार हिन्दू है। वे लोग भी लंबे समय तक उसकी पत्नी को रखते हुए बेहद भयभीत थे क्योंकि यह बात आरएसएस के स्थानीय लोगों द्वारा खोजी जा सकती है। 4 साल और 2 साल के दो बच्चे उसके साथ हैं। वह अपनी पत्नी की सुरक्षा के बारे में सोचकर परेशान है। वह साफ-साफ कहता है कि वह उड़ीसा छोड़कर इलाहाबाद चला जाएगा जहाँ उसका भतीजा कुली बनने में उसकी मदद कर देगा। उसके लिए सबसे जरूरी है कि उसका परिवार सुरक्षित और एकसाथ रहे। वह एक छोटा काश्तकार था लेकिन अब अपने परिवार के सुरक्षित रहने के लिए कोई भी कठिनाई उठाने को तैयार है। वह कहता है - ''हम आदिवासी हैं; हम कोई भी काम कर सकते हैं चाहे वह कितना भी मुश्किल हो। और अब मैं जान गया हूँ कि मैं कोई भी काम शुरू से सीख सकता हूँ। इसमें समय लगेगा लेकिन मैं जो भी करूँगा, अच्छा ही कर लूँगा। हमारी जिन्दगियाँ अब कंधमाल में कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं, न यहाँ पर और न राहत शिविर में। इन बच्चों का आखिर दोष क्या है - मुझे उनका पालन-पोषण ठीक से करना है।'' कुछ और लोगों ने भी केरल चले जाने की संभावना के बारे में हमसे बात की। कंधमाल और उड़ीसा छोड़ देना उनके लिए तय बात है क्योंकि दूसरे लोग पहले ही उड़ीसा से जा चुके हैं। इस तरह कितने लोग जा चुके हैं और कितने जा रहे हैं, इसके सही अनुमान का आप अन्दाजा ही लगा सकते हैं क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। एक 55-वर्षीय पीड़ित जो शरण माँगने वाले कई लोगों की मदद कर रहा है, ने हममें से एक से कहा कि केवल रेलवे स्टेशन पर जाकर हमारे लोगों को इधर-उधर घूमते और किसी रिश्तेदार या परिचित से थोड़ा-बहुत पैसा मिलते ही यह जगह छोड़ने की प्रतीक्षा करते हुए देखा जा सकता है। ये लोग कहीं भी रह लेंगे लेकिन उस गाँव में दोबारा (शायद कभी) नहीं आयेंगे।

वापस लौटने की भयंकर दुविधा
ज्यादातर लोग जिनसे हमने बात की, अपने गाँव वापस लौट सकने की बात सोचकर भी काफी भयभीत हो जाते हैं। जिन लोगों से हमने बात की, उनमें से ज्यादातर इतने डरे हुए हैं कि अपने गाँव वापस लौटने के बारे में सोचना भी नहीं चाहते। लगभग हर व्यक्ति बताता है कि स्थानीय आरएसएस कार्यकर्ता या आरएसएस द्वारा संचालित ग्राम समितियों या पंचायतों के लोगों ने ईसाइयत छोड़कर हिन्दू बनने के लिए उसे धमकाया। ऐसा दो बार किया गया, पहली बार गाँवों में हमला करने से पहले सामान्य तौर पर और दूसरी बार जंगलों में छुपे होने पर। और हाँ, संघ परिवार ने ईसाइयों को चुनने का एक मौका भी दिया है: अपना धर्म बदलकर हिन्दू बनो और अपने गाँवों में वापस आ जाओ; या फिर दफा हो जाओ। वीएचपी को दिये जाने वाले एक प्रार्थनापत्र की फोटोकापियाँ बाँटी गयी हैं। जो कोई हिन्दू धर्म में वापस आना चाहता है इस पर हस्ताक्षर करके स्थानीय नेताओं को सौंप दे। इसके बाद ही उन्हें अपने गाँवों में लौटने की इजाजत है।
प्रार्थनापत्र के साथ-साथ कुछ रीति-रिवाज करवाये जाते हैं और 350 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक का जुर्माना देना पड़ता है। कुछ लोगों ने इस विकल्प को चुन लिया है। हम कुछ ऐसे लोगों से मिले जिन्होंने इसपर हस्ताक्षर किये थे लेकिन अब अपने घरों से भाग भी आये। 33 वर्षीय एक आदमी ने कहा कि उसे हस्ताक्षर करने पड़े वरना शायद मारा जाता; इसलिए उसने ऐसा किया। उसने कहा कि इसके बाद भी वह सुरक्षित नहीं है। लगभग इसी स्वर में एक दूसरे पीड़ित ने कहा कि इसके बाद भी रहना आसान नहीं है क्योंकि किसी भी तरह आपको वह सब करने के लिए धमकाया जायेगा, जो वे लोग कर रहे हैं - यानी ईसाइयों के खिलाफ हिंसा में शामिल होना।
गाँवों में वापस लौटना कई दूसरी समस्याओं से भरपूर है। चूँकि आतंक और बहिष्कार चारों तरफ व्याप्त है। बालीगुडा ब्लॉक में मादीनादा गाँव के शिविर में शरण लेकर रह रहे 14 परिवारों को अपने गाँव वापस जाने पर राजी कर लिया गया। उनके घर अगस्त में हिंसा के दौरान जला दिये गये थे। शांति स्थापित करने के प्रयासों की कई कार्रवाइयों से गुजार कर सरकारी अधिकारी इन परिवारों को इनके गाँव ले गये। उन्हें 10 किलो चावल, 1 किलो दाल और कुछ बर्तन दिये गये। गाँव में इन परिवारों से कोई बोलता नहीं है। वे रात को हमलावर गांव वालों के डर से सो नहीं सकते हैं। वे बाजार जाने से डरते हैं। उनका गुजारा जलावन लकड़ी और पत्तो इकट्ठा करके और बेचकर चलता था। अब उनमें बाजार जाने की हिम्मत नहीं है। ये परिवार बेहद गरीब हैं। उन्हें जॉब कार्ड दिये गये हैं लेकिन इस योजना के अन्तर्गत एक भी दिन का काम उन्हें उपलब्ध नहीं कराया गया है। आखिरी बार दिसम्बर-जनवरी की हिंसा के दौरान भी इन परिवारों ने गाँव से भागकर दो सप्ताह के लिए बालीगुडा में एक राहतशिविर में शरण ली थी। इस शिविर में उनके रहने के बारे में बात करते ही एक 20 वर्षीय नौजवान औरत फूट-फूटकर रोने लगी। शिविर में उसके एक साल के लड़के की मौत हो गयी थी। उस बार उनके घर नहीं तोड़े गये थे। लेकिन हमले के डर से उन्होंने गाँव छोड़ दिया था। वे अभी भी हाशिये पर धकेले जाने को अभिशप्त हैं; कोई भी इस बात से अन्दाजा लगा सकता है कि सैकड़ों परिवारों के लिए लौटने पर क्या-क्या हो सकता है।
एक ईसाई बस्ती से वापस लौटते हुए हम लोग बेचने के लिए जलावन लकड़ी का गट्ठर बनाती एक गरीब आदिवासी महिला से मिले। नरेगा और मिलने वाले काम के बारे में पूछने पर पता चला कि उसे योजना के वायदे यानी 100 दिन रोजगार की गारंटी की कोई जानकारी नहीं है। यह पूछने पर कि लोग ईसाई परिवारों से बात क्यों नहीं करते हैं, उसके चेहरे का भाव अचानक बदल गया। वह तीखे लहजे में पूछने लगी, 'अपको किसने बताया कि हम बोलते नहीं हैं, क्या इन लोगों ने आपको बताया है? मै जाकर पूछती हूं उनसे इस बारे में, पता नहीं ये अपने आपको समझते क्या हैं?' आक्रामक स्वर में मिले जवाब से हमें अपनी गलती समझ में आ गयी और इस गलती को ठीक करने की कोशिश की गयी। यह शत्रुतापूर्ण भाव और गुस्सा उन लोगों के साफ-साफ नजर आने वाले वर्चस्व और 'दम है तो हमारे खिलाफ कुछ कहकर दिखाओ' वाले भाव को प्रतिबिंबित करता है जो दलित ईसाइयों को नीची नजरों से देखते हैं।
कंधमाल की सड़कों से गुजरते हुए किसी भी व्यक्ति का ध्यान छोड़े गये घरों के अवशेषों, या तो टूटे-फूटे या जले हुए और नष्ट किये गये चर्चों की तरफ चला जाएगा। हालाँकि ये उतनी हैरानी पैदा नहीं करता जितना कि घरों के ऊपर लगे भगवा झण्डे जो अब 'हिन्दू गाँव' कहलाते हैं। कुछ समय पहले कौन इस चीज की कल्पना कर सकता था। जी उदयगिरी की तरह के छोटे शहर के बाजारों में हर 'हिन्दू दुकान' के ऊपर एक भगवा झण्डा लहरा रहा है। और यहाँ पर भगवा झण्डा लगा एक टूटा चर्च भी है। जाहिरा तौर पर, संघ परिवार के पास एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के ''धर्मयुध्द'' में बाहुबल, जोर-जबर्दस्ती और हिंसा के अलावा और कुछ नहीं है।

राहत शिविरों में स्थितियाँ
लोग स्कूल की बिल्डिंगों में या फिर विद्यालय के प्रांगण या उससे सटे खुले मैदानों में लगे हुए टेण्टों में रह रहे हैं। खुले मैदान वाले शिविर बारिश होने पर असहनीय रूप से बदबूदार हो जाते हैं। यहाँ पर पेट की बीमारियों और बुखार का हमला लगातार हो रहा है। इसकी सूचना राष्ट्रीय समाचारपत्रों में छपी थी (टाइम्स ऑफ इण्डिया; 20.09.08, कंधमाल ग्रेपल्स विद् डिज़ीज, रेन) प्रशासन द्वारा बनाये गये अस्थायी शौचालय प्रयोग किये जाने की हालत में नहीं हैं; जहाँ बड़े लोग शौचादि के लिए बाहर जाते हैं, वहीं बच्चे शिविर के मैदान का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। कुत्तो और गाय शिविर में निर्बन्ध होकर घूमते हैं।
प्रति व्यक्ति कपड़ों का केवल एक जोड़ा दिया गया है, महिलाओं के लिए एक पेटीकोट और ब्लाऊज़, पुरुषों के लिए एक धोती और एक कमीज और बच्चों के लिए एक पैण्ट और कमीज/फ्रॉक। व्यस्क लोगों में प्र्रति व्यक्ति एक कम्बल दिया गया है। महिलाओं के सैनिटरी कपड़े का कोई इन्तजाम नहीं है। 6 से 8 परिवारों के एक टेंट में दो बाल्टियाँ दी गयी हैं। इसी तरह टेंट में नीचे की जमीन ढँकने लायक चटाइयाँ पर्याप्त नहीं हैं। यद्यपि एक परिवार को एक मच्छरदानी दी गयी थी, सब परिवारों को वह भी नहीं मिली। प्रत्येक परिवार को एक साबुन, कपड़े धोने के पाउडर का एक छोटा पाऊच और हेअर ऑयल का एक पाऊच दिया गया है।
शिविर में लोगों को दिन में दो बार दाल-चावल का भोजन और नाश्ते में थोड़ा चूड़ा और गुड़ दिया जाता है। लोगों को खाना लेने के लिए कम से कम 1 घण्टे लाईन में खड़ा रहना पड़ता है। अक्सर लाईन में आखिर में लगे लोगों को पानी मिली दाल ही नसीब हो पाती है। नाश्ते के लिए लगने वाली लाईन में भी लोगों को उनका हिस्सा नहीं मिलता। शाम को लैम्प जलाने के लिए मिलने वाले कैरोसिन के लिए भी कम से कम 1 घण्टा तो खड़े रहना अनिवार्य है। लेकिन लोग इन चीजों के बारे में शिकायत करते दिखाई नहीं पड़ते हैं। वे आपसे पूछते हैं कि: इस तरह का जीवन कब समाप्त होगा? वे अपने घरों को कब वापस लौटेंगे? क्या उनको कोई रास्ता मिला है? कम गुस्से लेकिन खाली निगाहों के साथ लोग इन सवालों को पूछ रहे हैं और जवाब किसी के पास नहीं है। और तब वे हत्याओं, जिन्दा जला देने, जंगलों में भागने, कई-कई दिनों तक छोटे बच्चों के साथ बिना खाये जंगलों में चलते रहने और मौत से दूर भागने की दिल दहला देने वाली कहानियाँ सुनाने लगते हैं। एक टेण्ट से दूसरे टेण्ट तक वही कहानी, वही अनुभव सिर्फ नाम और जगह बदल जाती है। अपनी ऑंखों में उतर आये ऑंसुओं के साथ वे अपने भविष्य को अपने पालक, ईसा मसीह के ऊपर छोड़ देते हैं।

बच्चे और उनकी शिक्षा
सबसे बड़ा हादसा तो बच्चों की पढ़ाई का एकाएक रुक जाना है। इस बारे में कोई सोच नहीं है कि पढ़ाई कैसे, कहाँ और कब दोबारा शुरू होगी। यहाँ उन्हीं स्कूलों में वापस पढ़ सकने के बारे में कोई बात या उम्मीद नहीं है। कुछ जगहों पर हाल ही में सिर्फ किताबें वितरित की गयी हैं लेकिन बच्चों या छोटे बच्चों को किसी चीज में लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि बड़ी संख्या में बच्चे अपने माता-पिता के साथ चिपके हुए थे और हमारी बातचीत सुन रहे थे। राहत शिविरों में कई बच्चे सोते वक्त चिल्लाते हैं या गहरी नींद में हमला करने वालों पर चीखते हैं। इसकी रिपोर्ट भी राष्ट्रीय समाचारपत्रों में छपी थी (टाइम्स ऑफ इण्डिया, 07.10.08; इफ आई रिटर्न दे विल किल मी: राईट अफैक्टेड चिल्ड्रन रिफ्यूस टू गो बैक टू देयर होम्स)। कभी-कभार वे हँसी और खेलों से माहौल को हल्का करने में मदद भी करते हैं। लेकिन उनकी पढ़ाई का क्या होने जा रहा है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। चूँकि परिवारों को शून्य से जीवन शुरू करना है, इसलिए यह बेहद संदेहपूर्ण है कि पहले स्थानों पर परिवारों द्वारा बच्चों को स्कूल भेजने के प्रयासों और मेहनत को फिर से दोहराया जाएगा।

महिलाओं के खिलाफ हिंसा और स्वास्थ्य चिंताएँ
हालाँकि नन के साथ सामूहिक बलात्कार काफी चर्चा में आ गया जो आना भी चाहिए था, पर यहाँ बलात्कार के दो अन्य मामले भी हुए थे। इस वक्त यौनिक दर्ुव्यवहार की घटनाओं की संख्या का अंदाजा लगाना संभव नहीं है। और उम्मीद करनी चाहिए कि यह संख्या कम हो। हालाँकि इससे ज्यादा चारों तरफ व्याप्त भय और आतंक की बात हमसे मिली लगभग सभी महिलाओं ने व्यक्त की। यह बात शौचादि या नहाने के लिए बाहर जाने वाली शिविर की महिलाओं के लिए सच होने के साथ-साथ शरण की तलाश में या अस्पताल या सार्वजनिक परिवहन में जाने वाली सभी महिलाओं के लिए भी सच है। मासिक स्राव के लिए सैनिटरी नैपकिन या कपड़े का इन्तजाम यहाँ नहीं है। गर्भवती महिलाओं की सेहत बुरी दशा में है। इस बीच गर्भपात भी हुए हैं।
पूरी तरह से बेघरबार दिखायी देने पर, नयी जगहों पर नये और अजनबी लोगों से संपर्क करने पर असुरक्षा बढ़ जाती है और ये उन्हें ज्यादा अरक्षित बना देती है। हालाँकि सरकार चाहती है कि हम सुरक्षित और सामान्य होने का भरोसा कर लें। उनमें से कुछ भीड़ के चिल्लाने को डर के साथ याद करती हैं ''हम तुम्हारी औरतों के साथ वहीं करेंगे जो तुमने हमारी माता के साथ किया था''(भक्तिमयी माता पर हमले के संबंध में, यह एक शिष्या थी जो लक्ष्मणानंद सरस्वती के साथ 23 अगस्त को मारी गयी थी)।
राहत शिविरों में लोगों की संख्या में कमी आने को लोगों के पुन: व्यवस्थित होने या सामान्य स्थिति बहाल होने का सूचक बताना उड़ीसा सरकार का एक फूहड़ मजाक है। जो वह ऐसे समय पर कर सकती है जब जिले का पूरा जनसांख्यिकीय विन्यास ही अपने आप भयंकर ढंग से रातो-रात बदल गया हो। सीएनएन-आईबीएन पर मुख्यमंत्री के साक्षात्कार में किये गये दावे कि राज्य में 1,000 लोगों को गिरफ्तार करके कार्रवाई कर दी गयी है, के जवाब में कोई भी सिर्फ यही कह सकता है कि यह काफी देर से उठाया गया छोटा सा कदम है। बड़े पैमाने की हिंसा के कुकर्मी हर गली और सड़क पर सीना ताने घूम रहे हैं। लगभग सभी लोगों ने हमसे बातचीन में कहा कि वस्तुत: सभी हमलावर उनके अपने गाँव या पड़ोसी गाँवों के हैं। उन्हीं पड़ोसियों के पास वापस जाने का आतंक स्पष्टतया काफी अधिक है।
सरकारी संस्थाओं को शांति बनाये रखने के लिए सुरक्षा का वातावरण निर्मित करना होगा ताकि लोग कम से कम राहत के लिए अपील करने या उन पर हुए हमलों के आपराधिक मामले दर्ज करवाने या अपने जीवन को फिर से शुरू करने के बारे में सोचना तो शुरू करें। राहत शिविरों को बुनियादी सफाई और स्वास्थ्य-रक्षा सुनिश्चित करवानी होगी क्योंकि अभी तो वे तेजी से मलेरिया, हैजा और पेट की बीमारियों के प्रजनन-स्थल बनते जा रहे हैं। इनमें आने वाले लोगों और जाने वाले लोगों का कि वे कहाँ जा रहे हैं, रिकार्ड तैयार करने की जरूरत है ताकि कुल संख्या में थोड़ी सी गिरावट पर लोगों के अपने घरों में वापस जाने के निशान के रूप दिखाने का दावा प्रशासन न कर सके। राहत शिविरों में पूर्ण सुरक्षा दिये जाने की जरूरत है क्योंकि शिविरों पर लगातार हमले हो रहे हैं, चाहे वह बम फेंकना हो या पानी के टैंक को जहरीला करना हो या स्थानीय दुर्गावाहिनी के महिला दस्तों द्वारा शिविर में आकर लोगों को डराना-धमकाना हो (टाइम्स ऑफ इण्डिया, 1.10.08, 3 बॉम्ब्स नियर जी उदयगिरी रिलीफ कैम्प)।
राहत को पड़ोसी शहरों में हजारों लोगों तक पहुँचाये जाने की जरूरत है; वे किसी भी सरकारी रिकार्ड में शामिल नहीं हैं, जैसा कि हमारे साक्षात्कार ने उद्धाटित किया है। और उन्हें भी सहायता और मदद उपलब्ध कराये जाने और एफआईआर दर्ज करने में मदद देने की जरूरत है।
उस हरेक परिवार की एफआईआर दर्ज करवाये जाने की जरूरत है जिस पर हमला हुआ है, संपत्ति लूटी गयी है, चोटें पहुँचायी गयी हैं और पशुओं का नुकसान हुआ है, वर्षभर के खाद्यान्न की लूटपाट हुई है, मानसिक यंत्रणा और निचले दर्जे का अपमान किया गया हो। अगर हम एक पूरी पीढ़ी के जीवन और भविष्य को उन लोगों द्वारा संकट में डाल दिये जाने पर वाकई गम्भीर हैं जो एक ऐसे राज्य में हिन्दु राष्ट्र स्थापित करना चाहते हैं जो वैश्विक आर्थिक शक्तियों द्वारा औद्योगीकरण की रफ्तार बढ़ाने के लिए भी उतना ही समर्पित है तो हमें बच्चों को उन्हीं के स्कूलों में जरूर वापस भेजना होगा। इन बच्चों के बारे में सरकार को क्या कहना है? अंतिम, पर कम महत्वपूर्ण नहीं बात ये है कि घरों को दोबारा बनाना होगा। जिंदगी की शुरुआत शून्य से करने की योजना बनाने के लिए भी किसी को सर पर छत जरूर चाहिए। वर्तमान साम्प्रदायिक नृशंस आक्रमण देश के सबसे निर्धनतम जिले में हुआ है; कंधमाल जिले में 75 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। अगर हम चाहते हैं कि लोग सम्मान के साथ जी सकें तो उनके लिए हमें उनके लिए आवाज बुलन्द करनी होगी और ऐसा करने की जिम्मेदारी केवल ईसाई समुदाय पर नहीं छोड़ी जानी चाहिए। इसके बावजूद यदि हम उम्मीद करें कि यह सब हो जायेगा, तब भी शायद स्थिति को ''सामान्य'' होने में अभी बरसों लग जायेंगे।

Tuesday, December 23, 2008

मुन्‍तज़र और इराकी-अमेरिकी लोकतंत्र का खेल

मुन्‍तज़र अल जैदी के मामले में साफ होता जा रहा है कि इराकी सरकार उसी ''लोकतंत्र'' के नियम-कानूनों का मखौल उड़ा रही है जिसकी वह इतनी दुहाई दिया करती है। खबर है कि हिरासत में उसके साथ बेहद अमानवीय व्‍यवहार किया जा रहा है और घोर यातनाएं दी जा रही हैं। जेल में उससे मिलकर लौटे उसके भाई उदय ने बताया कि उसका एक दांत टूट गया है, आंख पर गहरी चोट का निशान है, शरीर पर सिगरेट से दागे जाने और पिटाई के निशान है। हिरासत में मुन्‍तज़र को नंगा करके उल्‍टा लटकाया गया, दागा गया और मोटे तार से पिटाई की गई। मुन्‍तज़र का कहना है कि उससे जबर्दस्‍ती माफीनामे पर हस्‍ताक्षर करवाए गए थे। और अब उसका संबंध जबर्दस्‍ती किसी धार्मिक कट्टरपंथी नेता के साथ जोड़ा जा रहा है ताकि उसे ढंग से फंसाया जा सके।
यह दिखने लगा है कि इराकी सरकार उसे छोड़ने नहीं जा रही है। अगर मुन्‍तज़र को अपने इस काम (जिसे बुश ने मुक्‍त समाजों की देन बताया था) के लिए कानूनी या गैरकानूनी मौत दे दी जाए तो आश्‍चर्य नहीं करना चाहिए। यह ''लोकतंत्र'' ऐसा ही है। इसकी अदालतें, कानून, इंसाफ सबकी असलियत सामने आती जा रही है। सवाल यह है कि इस नंगी सच्‍चाई को हम लोग स्‍वीकारना कब शुरू करेंगे।
मुन्‍तज़र ने कहा है कि अगर मौका मिला तो वो दोबारा ऐसा ही करेगा। शायद मुन्‍तज़र जैसे अनगिनत लोगों का जज़्बा और कुर्बानियां इस सच्‍चाई को हमें समझाने में थोड़ी कामयाब हो पाये।

Friday, December 19, 2008

मुन्‍तज़र अल जैदी के समर्थन में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं




मुन्‍तज़र अल जैदी की रिहाई की मांग और उसके बहादुराना काम के समर्थन में कई देशों में लोगों ने प्रदर्शन किए। कुछ की फोटो दे रहा हूं। खबर है कि उसको टार्चर किए जाने के कारण सामने नहीं लाया जा रहा है।

Thursday, December 18, 2008

धन्‍यवाद साथियो

धन्‍यवाद साथियो, ब्‍लॉग पर लिखने का विचार आने के बाद इसे बनाने और पहली पोस्‍ट लिखने से लेकर लगातार मिल रही सहयोगियों की हौसलाअफजाई और विरोधियों के तीखे कमेंटों के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद। इन दोनों वजहों ने मुझे लगातार बेहतर लिखने में मदद दी। आज दैनिक समाचारपत्र 'आज समाज' में मुन्‍तज़र अल जैदी के बारे में लिखी मेरी दो पोस्‍टें प्रकाशित हुई हैं। स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष अभिव्‍यक्ति और वैकल्पिक मीडिया के एक सशक्‍त माध्‍यम के तौर पर ब्‍लॉग पर मेरा विश्‍वास लगातार बढ़ता जा रहा है। फिर से एक बार अपने ब्‍लॉग से इतर साथियों, समानधर्मा ब्‍लॉगरों और विरोधी ब्‍लॉगरों का भी धन्‍यवाद!

Wednesday, December 17, 2008

अरब जनता के प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर उभर रहे हैं मुन्‍तज़र अल जैदी

बुश को जूते मारने वाले नौजवान पत्रकार मुन्‍तज़र अल जैदी के बारे में मीडिया में सही खबरें नहीं आ रही हैं। बल्कि कई अखबारों और समाचार एजेंसियों ने तो एकदम अमेरिकापरस्‍त एंगल से खबरों को प्रस्‍तुत किया है। वैसे इसमें हैरानी की भी कोई बात नहीं है। हकीकत यह है कि मुन्‍तज़र धीरे-धीरे अरब जनता के प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर उभरते जा रहे हैं। इस घटना के बाद से ही इराक के कई शहरों समेत कई देशों जैसे लीबिया, लेबनान, सीरिया और मिस्र में उसके समर्थन में और उसकी रिहाई की मांग करते हुए प्रदर्शनों की खबरें मिल रही हैं। मुन्‍तज़र के समर्थन में सड़कों पर उतरने वाले इन लोगों में आम नागरिकों से लेकर नौजवान और पत्रकार बिरादरी भी है। इराक में हुए एक प्रदर्शन में लोगों ने तख्तियों पर लिखा था ''लोकतंत्र के उसूलों के मुताबिक हम जैदी की रिहाई की मांग करते हैं।''
एएफपी को जैदी के भाई ने बताया, जिसकी तस्‍दीक उस घटना के प्रत्‍यक्षदर्शियों ने भी की थी कि इराकी सुरक्षाकर्मियों ने जैदी को वहीं पर बुरी तरह से पीटा। उसकी एक बांह और पसलियां टूट गयीं हैं। उसे सेन्‍ट्रल बगदाद के सर्वाधिक सुरक्षित स्‍थान ग्रीन जोन कंपाउंड में रखा गया है।
29 साल का मुन्‍तज़र मिस्र से चलने वाले एक चैनल अल बगदादिया में काम करता है। लोगों का उसकी तरफ पहली बार ध्‍यान तब गया था जब उसने अमेरिकी फौजों द्वारा स्‍कूल जा रही छोटी बच्‍ची जाहरा को गोली मार देने पर एक डाक्‍यूमेंट्री बनाई थी। इसके बाद उसके पास अमेरिकी पैसे से चलने वाले चैनल अल-हुरा की तरफ से अच्‍छा प्रस्‍ताव आया था लेकिन उसने किसी अमेरिकी संबंध वाले चैनल में काम करने से साफ इंकार कर दिया था। खास बात यह है कि उसके कमरे में चे ग्‍वेरा का फोटो लगा है। मैं कोशिश करूंगा कि मुन्‍तज़र से संबंधित ताजा और सही खबरें ब्‍लॉग पर डालता रहूं।
Kapil.wrting@gmail.com

Monday, December 15, 2008

बुशजी फिलहाल जूते खाकर काम चलाइये

बुश को जूता पड़ने वाला वीडियो देखिये http://in.youtube.com/watch?v=ePGvxEtvThI

इराकी पत्रकार ने बुश को जूता मारा - शाबाश मुन्‍तज़र अल जैदी!

अपने फेयरवेल दौरे पर इराक आये अमेरिकी राष्‍ट्रपति बुश पर संवाददाता सम्‍मेलन के दौरान इराकी पत्रकार मुन्‍तज़र अल जैदी ने जूता फेंक कर मारा। दो में से एक जूता सही निशाने पर लगने के बाद मुन्‍तज़र ने चिल्‍लाकर कहा कि ''यह विधवाओं, अनाथ बच्‍चों और इराक में मारे गए लोगों की तरफ से है, कुत्‍ते।'' मुन्‍तज़र का यह व्‍यवहार उस दबे हुए गुस्‍से का इजहार है जो लाखों इराकी नागरिकों के दिलों में अमेरिका के खिलाफ सुलग रहा है। आठ सालों के अपने कार्यकाल के दौरान इराक, अफगानिस्‍तान और कई जगहों पर लाशों के ढेर लगा देने वाले अमेरिकी राष्‍ट्रपति के साथ ऐसा व्‍यवहार सिर्फ एक नमूना है - उसका जो लोग करना चाहते हैं और उसका जो लोग बुश और उसकी जमात के लोगों के साथ करेंगे। हालांकि ऐसा व्‍यवहार होने के बाद भी बुश को शर्म आ जाती तो शायद वह राष्‍ट्रपति ही नहीं बन पाते। बेशर्मी के साथ उसने इस घटना को हल्‍के अंदाज में लिया। इराक की अमेरिकी पिट्ठू सरकार मुन्‍तज़र के साथ जाहिरा तौर पर बुरे से बुरा सलूक करेगी। लेकिन उसने जो हिम्‍मत दिखाई है वह बड़ी और लंबी सोच के साथ न होते हुए भी काबिले-तारीफ है। शाबाश मुन्‍तज़र अल जैदी!

Wednesday, December 3, 2008

अन्दर की गन्दगी में से थोड़ा सा उगल दिया नकवी(उनकी विचारधारा) ने

नकवी के औरतों के बारे में विचार कोई अचानक फूटा गुस्‍सा नहीं है। दरअसल उन्‍होंने अपने उस जामे को उतार दिया जो विचारों के रूप में पुरातनपंथी सड़ी-गली विचारधारा वालों के दिल-दिमाग में पैठा होता है लेकिन जिसे खुलेआम जाहिर करने से प्राय: ये लोग बचते हैं। नकवी का बयान अकेले नकवी का बयान नहीं उस पूरी विचारधारा का हिस्‍सा है जो समाज को केवल और केवल पुराने मूल्‍यों और संस्‍कृति की ओर ले जाना चाहते हैं। याद करिए आरएसएस के सरसंघचालक शेषाद्रि ने हिन्‍दुओं से ज्‍यादा बच्‍चे पैदा करने का आह्वान किया था। क्‍या औरतें हिन्‍दु हितों की पूर्ति करने वाली मशीनें हैं? उनके लिए औरतों का चूल्‍हा-चौका संभालना ही ठीक है, सड़कों पर निकल कर नारे लगाना और वो भी पूरी नेताशाही और लोकतंत्र के खिलाफ उनके लिए न सहने योग्‍य चीज है। तभी उनका गुस्‍सा इतने घटिया शब्‍दों में बाहर निकलता है। वैसे अच्‍छा भी है कम से कम गन्‍दगी बाहर तो निकली वरना यह भ्रम भी बनाया गया था कि पुरातनपंथी विचारधारा आधुनिकता के खिलाफ नहीं है। इस भ्रम का टूटना भी अच्‍छा है। नकवी का बयान केवल इस विचारधारा की अन्‍दर की विशाल गन्‍दगी के एक छोटे से हिस्‍से का बाहर आना यानी नकवी द्वारा उगल दिया जाना है। यह बात गौर करने वाली है कि लोकतंत्र या व्‍यवस्‍था पर सवाल उठाने की बात सबसे ज्‍यादा इन्‍हीं को चुभती है। आगे जैसे-जैसे जनता का विश्‍वास इस पूरी व्‍यवस्‍था से उठते जाने की उम्‍मीद है, इन लोगों का असली एजेण्‍डा इसी तरह उगला जाता रहेगा। देखिये आने वाले समय में क्‍या-क्‍या उगलेंगे।

Monday, October 27, 2008

दिवाली और हमारे देश की दो तिहाई आबादी


सॉब घर में एक पैसा नहीं है , दीवाली आ गयी है। कुछ पैसा दे देते , बच्चों का त्‍यौहार मन जाता....। अबे तो दिवाली का भार मेरे मत्‍थे डालेगा , पैसा नहीं है । जाकर चुपचाप काम कर।
ये कोई कहानी नहीं जिन्‍दगी की तस्‍वीर है जो देश के करोड़ों लोगों का हाल बयां करती है। 20 रूपया रोज कमाने वाले इस तबके के लिए त्‍यौहार खुशियों की नहीं चिन्‍ताओं की सौगात लेकर आते है। आमतौर पर सबके मन में त्‍यौहार पर उत्‍साह-उमंग की हिलोरें उठती हैं। कुछ बढि़या पहनने, बढि़या खाने और मिलजुल कर खुशी मनाने की सहज मानवीय इच्‍छाओं का गला जालिम सामाजिक व्‍यवस्‍था घोंट देती है।बड़े लोग तो फिर भी मन मसोस कर रह लेते हैं , लेकिन बच्‍चों का क्‍या वो तो 10 दिन पहले से उछलकूद मचाने लगते हैं। नये कपड़ों और खूब सारे पटाखों की फरमाईश होने लगती है। पर हमारे देश के तेजी से विपन्‍न होते जा रहे इस तबके की दीवाली पेटी में सहजें कपड़ों, सिंथेटिक मावे की सस्‍ती मिठाई , कुछ मोमबत्‍ती और दियों के सहारे बनती है। और इन चीजों के लिए भी पैसे जुगाड़ना पहाड़ पर चढ़ने के समान होता है। इन लोगों की दिवाली ठेकेदार या मालिक की मर्जी से मनती है। दीवाली पर मिलने वाला बोनस दूसरे श्रम कानूनों की तरह दूर की कौड़ी ही हैं। पांव पकड़कर एडवांस लेकर या किसी से कर्ज लेकर बाट जोह रहे बच्‍चों के लिए मिठाई और पटाखे आते हैं।


नमूना सर्वेक्षण 2000 के मुताबिक हमारे देश में 36.9 करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। ये अस्‍थायी, ठेका या दिहाड़ी पर काम करते हैं। छोटे किसानों के तेजी से उजड़ने से यह आबादी तेजी से मजदूरों के रूप में बड़े शहरों के इर्दगिर्द बढ़ती जा रही है। इनके परिवार की संख्या जोड़ने पर यह तबका हमारे देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी बनती है। सरकारी कागजों से परे ज्‍यादातर को कोई अधिकार वास्‍तव में हासिल नहीं है। उनके लिए कानून ठेकेदार की जबान होता है। जो कह दे वही सही।

तस्‍वीर का दूसरा पहलू यह है कि मन्‍दी के तमामस्‍यापों के बीच भी बाजार सजे पड़े हैं और खरीदारों की भीड़ भी है। बढि़या कपड़ों, ब्राण्‍डेड मिठाई के पैकेटों, कारपोरेट गिफ्ट आईटमों से लदे-फदे लोग हैप्‍पी दीवाली का समवेत मंत्र जाप कर रहे हैं। इन सारी चीजों को बनाने वालों के बच्‍चे इन्‍तजार कर रहे हैं कि शायद ठेकेदार का दिल पसीज जाये...

भावनाएं चेतना का ही अंग हैं। चेतना हमारे समय के आसपास के यथार्थ से कटी होने पर यथार्थपरक नहीं हो सकती। त्‍यौहार का मतलब अगर मिलजुल खुशी मनाने से होता हैतो हैप्‍पी दीवाली के शोर में वक्‍त निकाल कर जरा सोचिए कि सब लोग मिलजुल कर खुशी क्‍यों नहीं मना पाते हैं। अपने दायरों से बाहर निकल कर हमें शायद त्‍यौहार या खुशियों का मतलब ज्‍यादा समझ आने लगेगा।

आओ देखो गलियों में बहता लहू!

तुम पूछोगे /
क्‍यों नहीं करती /
उसकी कविता /
उसके देश के /
फूलों और पेड़ों की बात /
आओ देखो /
गलियों में बहता लहू /
आओ देखो /
गलियों में बहता लहू /
आओ देखो /
गलियों में बहता लहू।

---पाब्लो नेरुदा

Sunday, October 26, 2008

विद्यार्थीजी कलम के योद्धा थे और साम्प्रदायिकता से लड़ते हुए शहीद हुए थे

आज गणेशशंकर विद्यार्थी जी की 117वीं जन्‍मतिथि है। हिन्‍दी पत्रकारिता के क्षेत्र में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम एक ध्रुव तारे के समान सबसे उपर दिखायी देता है। हालांकि विद्यार्थी जी का सम्‍यक मूल्‍यांकन किये जाने और उनका उचित सम्‍मानित स्‍थान देने का काम शायद अभी पूरा नहीं हुआ है। हिन्‍दी पत्रकारिता में विद्यार्थीजी ने उस शानदार राष्‍ट्रीय परम्‍परा को आगे विस्‍तार दिया जिसे बाबूराव विष्‍णु पराड़कर जैसी विभूतियों ने स्‍थापित किया था। माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्‍ण शर्मा'नवीन', सत्‍यभक्‍त, राधामोहन गोकुलजी, रामरिख सहगल, प्रेमचन्‍द आदि लेखकों की लम्‍बी कतार थी जो राष्‍ट्रीय आजादी के प्रश्‍न को व्‍यापक सामाजिक-आर्थिक सांस्‍कृतिक नजरिये से जोड़ कर देख रहे थे। 'प्रताप' का प्रकाशन 1913 से शुरू हुआ। 'प्रताप' ने राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने में असाधारण भूमिका निभायी। भगतसिंह समेत कई वैचारिक योद्धाओं की पाठशाला यह अखबार बना। भीषण आर्थिक कष्‍ट जुर्माने और जेलयात्राओं के बावजूद 'प्रताप' विद्यार्थी जी के दृढ़ संकल्‍प की बदौलत ही निकलता रह पाया।
विद्यार्थी जी ने जिम्‍मेदारी से मुंह मोड़ने की आड़ में लेखकीय 'तटस्‍थता' की दुहाई कभी नहीं दी। उनकी वैचारिक राजनीतिक पक्षधरता एकदम स्‍पष्‍ट थी। वह अध्‍ययन कक्षों के निवासी जीव न थे। जमींदारों के विरुद्ध किसानों के संघर्ष उनके लिए जीवन की अध्‍ययनशाला थे और उनकी अध्‍ययनशाला भीषण वैचारिक संघर्ष का रणक्षेत्र। आन्‍दोलनों मे सक्रिय भागीदारी के चलते भी उन्‍हें कई बार जेल जाना पड़ा। यह उनकी निर्भीक प्रतिबद्धता ही थी जिसके चलते वह दिनरात घूमकर कानपुर में भड़के साम्‍प्रदायिक दंगे की आग बुझाने की कोशिश करते रहे और 25 मार्च 1931 को एक उन्‍मादी भीड़ के हाथों मारे गये।यूरोप के बाल्‍जॉक, रूसो और दिदेरों के समान वह एक योद्धा मनीषी थे। पुनर्जागरण के लेखकों के समान वह अपनी मान्‍यताओं को केवल लिखकर ही संतुष्‍ट नहीं थे बल्कि उन्‍हें अपने जीवन में उतारते भी थे और उनकी कीमत हंस कर चुकाते थे। आज देश में साम्‍पद्रायिक माहौल खराब है। विद्यार्थीजी ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ डटकर मओरछा लिया था और इसीसे लड़ते हुए उन्होंने अपनी आखरी साँस ली।विद्यार्थी जी ने ' धर्म की आड़' नामक लेख में लिखा था--

''यहां धर्म के नाम पर कुछ इनेगिने आदमी अपने हीन स्‍वार्थों की सिद्धि के लिए करोड़ों आदमियों की शक्ति का दु:पयोग करते हैं। यहां होता है बुद्धि पर परदा डालकर पहले ईश्‍वर और आत्‍मा का स्‍थान अपने लिए लेना और फिर धर्म के नाम पर अपनी स्‍वार्थसिद्धि के लिए लोगों को लड़ाना भिड़ाना।''

विद्यार्थीजी का जीवन और उनके विचार आज भी जनता के बुद्धिजीवियों के लिए प्रेरणा का अजस्र स्रोत हैं।

Saturday, October 25, 2008

स्वतंत्र अभिव्यक्ति के खतरें और भी हैं. एकजुटता सही कदम है

गॉसिप अड़डा के सुशील कुमार सिंह पर एचटीमीडिया लखनउ प्रबंधन द्वारा दर्ज करवायी गयी शिकायत मीडिया की गला घोंटने की साजिश का ही नमूना मानी जानी चाहिए। ऐसी कोशिशों का कड़ाविरोध निश्चित रूप से होना चाहिए(जो शुरू भी हो चुका है) । व्‍यावसायिक मकसद से चलने वाली वेबसाईटें और ब्‍लॉगों के अतिरिक्‍त सूचनाओ और विचारों को पहुंचाने के लिए हिन्‍दी में ढेरों वेबसाईट और ब्‍लॉग चल रहे हैं। जो धीरे-धीरे ही सही पर अपना एक स्‍थान बना रहे हैं। इनका पाठक वर्ग तैयार हुआ है और तेजी से बढरहा है। प्रिंट और इलैक्‍ट्रानिक म‍ीडिया को इसे मजबूरी में मान्‍यता और स्‍थान देना पड रहा है।बेशक सूचनाएं और विचार इंटरनेट से पहुचाये जाने को मीडिया माना जाना चाहिए।
सिर्फ करोडों रूपये लगाकर चलने अखबार और चैनलों को ही मीडिया मानना गलत है। बडी पूंजी के साथ सत्‍ता का अनिवार्यसमीकरण होता है।इसलिए ये वेबसाईट और ब्‍लॉग एक तो मीडिया के नये उभरते हुए स्‍वरूप हैं दूसरे स्‍वतंत्र विचारों का स्‍पेस यहां ज्‍यादा होने की परिस्थितियां भी मौजूद हैं। मुझे लगता है लघु पत्रिकाओंकी निर्भीकता भविष्‍य में यहां स्‍थानातंरित हो सकती है। इन्‍हीं वजहों से इस पर हमलों के खतरें भी ज्‍यादा हैं। जाहिरा तौर पर भविष्‍य में अखबारों-चैनलों के मालिक मठाधीश पत्रकार सरकार-नेता अफसर और कट़टरपंथी समूह मीडिया के इस नये स्‍वरूप से चिढेंगे। भविष्‍य में कई तरह से हमले हो सकते हैं। सुशील कुमार सिंह के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई इसकी पहली कडी है। अत हमें इसे मीडिया के संवैधानिक अधिकारों पर हमला मानते हुए लामबंद हो जाना चाहिए। वेब पत्रकार संघर्ष समिति की पहल एक स्‍वागतयोग्‍य पहलकदमी है। अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता और जनसरोकारों से जुडे मुद़दों को उठाते रहने के अपने जनवादी अधिकार के लिए सभी जागरूक ब्‍लागर बंधुओं को आगे आना चाहिए। इस मसले पर पहल लेने वाले लखनउ के वरिष्ठ पत्रकार श्री अम्बरीशजी के ब्लॉग विरोध पर इस घटना और इस पर प्रतिक्रिया की विस्तार से जानकारी मिलेगी।

Friday, October 24, 2008

वेब अभिव्यक्ति पर पहला हमला-हम सब आपके साथ हैं

एचटी मीडिया लिमिटेड के प्रबंधन की शिकायत पर लखनउ पुलिस दिल्‍ली के पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान कर रही है। दरअसल हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स् लखनउ के बारे में सुशील कुमार सिंह ने अपनी वेबसाईट गॉसिप अडडा पर एक टिप्‍पणी दी थी जो प्रबंधन की पोल खोलने वाली थीइंटरनेट पर बेवसाईटों और ब्‍लॉगों के जरिये की जाने वाली अभिव्‍यक्ति पर यह शुरूआती हमला है। जाहिरा तौर पर अखबारों और चैनलों की तुलना में यहां खुलकर बात कही जा सकती है। और इसी वजह से इसके उपर हमले की संभावनाएं भी ज्‍यादा हैं। फिलहाल एक वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन दिल्‍ली में हो गयाहै। वेब अभिव्‍यक्ति की आजादीके संघर्ष में सभी जागरूक ब्‍लॉगर भी पत्रकार सुशीलकुमार सिंह के साथ हैं। इस उत्‍पीडन के खिलाफ नैतिक और भौतिकरूपसे एकजुट होकर नेट और सडकों दोनों हम सभी को आवाज उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। जिस टिप्‍पणी पर एचटी मीडिया प्रबंधन बौखलाया हुआ है उसे नीचे दे रहा हुं।

--क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी अखबार के मालिक का देहांत हो जाए और अपने ही अखबार में उसका फोटो गलत छप जाए। लेकिन यह कमाल किया हाल में हिंदुस्तान टाइम्स ने। उसने अपने हिंदी सहयोगी दैनिक हिंदुस्तान के कारनामों को पछाड़ते हुए के. के. बिरला के निधन पर जो तस्वीरें प्रकाशित कीं उनमें से एक तस्वीर किसी और की थी। उसके अगले दिन भूल-सुधार करते हुए अखबार ने बताया कि पिछले दिन एक तस्वीर में कैप्शन गलत छप गया था। यानी फिर गलत सूचना दी गई, क्योंकि कैप्शन ही नहीं वह तस्वीर ही गलत थी क्योंकि वह किसी और की थी। अब इस दूसरी गलती के लिए भूल-सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी क्योंकि उसके बाद मालिक के निधन पर संस्थान में अवकाश था।इतना ही नहीं, निधन वाले दिन हिंदुस्तान टाइम्स, लखनऊ में मार्केटिंग के एक सीनियर अधिकारी की फेयरवेल पार्टी थी जिसे स्थगित नहीं किया गया। इस कार्यक्रम में अखबार के सभी सीनियर लोग मौजूद थे। वहां मिठाई भी खिलाई गई और स्नैक्स भी। विदाई के रस्मी भाषण भी दिए गए। चौंकाने वाली बात यह है कि यह कार्यक्रम संस्थान के चेयरमैन के. के. बिरला की शोक सभा के मुश्किल से आधे घंटे बाद शुरू हुआ। फहमी हुसैन और नवीन जोशी इत्यादि जो आधे घंटे पहले बिरला जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे अब कंपनी से जा रहे मार्केटिंग अधिकारी की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे।

Wednesday, October 15, 2008

कल विश्व खाद्य(हीन) दिवस है

अब तक ईजाद तमाम बमों से ज्यादा खतरनाक बम 'भूख का बम' सुलगना शुरू हो गया है और कभी भी फट सकता है। मौजूदा अमेरिकी मंदी और उसके असर ने इसमे आग में घी डालने जैसे हालत पैदा कर दिए हैं। कल १६ अक्तूबर विश्व खाद्य दिवस के रूप में मनाया जाएगा लेकिन दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या तेज़ी से बढती जा रही है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (ऐऍफ़ओ) के अनुसार २००२ की तुलना में खाद्यान्नों की कीमतों में १४०% की भारी-भरकम वृद्धि हुई है। इसकी वजह से दिसम्बर २००७ से ४० देशो को खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ रहा है। हैती और मेक्सिको में लाखों लोग इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए वही कई देशों में दंगे और लूटपाट की घटनाएं हुई। राष्ट्र संघ ने इन देशो में खाद्य संकट के कारण सामाजिक और राजनितिक उथल-पुथल यानी 'युद्ध जैसी स्थिति' पैदा होने की चेतावनी दी है। इंडोनेशिया, आइवरी कोस्ट, सेनेगल, फिलिपींस, मोरोक्को जैसे देशों में स्थिति ख़राब है। एक रपट के अनुसार हमारे देश में भी दाल, खाद्य तेल और चीनी की भारी कमी २०११ के बाद पैदा हो जायेगी। अर्जुनसेनगुप्ता कमिटी के मुताविक देश में 77% फीसदी लोग 20 रूपये रोजाना से कम में अपना गुज़ारा करते हैं। सोचा जा सकता है की १५ रूपये किलो आटा और १८ रूपये किलो चावल भी इस तबके के लिए काफी महंगा है।
जहाँ एक तरफ़ स्थिति इतनी भयंकर है वहीँ कुछ तथ्य भुखमरी को मुंह चिडाते नज़र आते है। 'गार्जियन' में छपी विश्व बैंक की एक गोपनीय रपट के अनुसार अमीर देशों द्वारा जैव ईधन के इस्तेमाल से खाद्यके दामों में ७५ फीसदी (अमेरिका का दावा सिर्फ़ ३ फीसदी का है) की वृद्धि हुई है। मक्का से एथेनोल बनने वाले अमेरिका ने पिछले तीन साल के दौरान दुनिया के कुल मक्का उत्पादन का ७५ प्रतिशत हिस्सा हड़प कर लिया। कनाडा में कीमत कम होने की वजह से १,५०,००० सुयरों को मारने पर ५ करोड़ डॉलर खर्च किए गए। हमारे देश की सरकारी व्यवस्था भी पीछे नहीं है। भारतीय खाद्य निगम ने माना है की उसके गोदामों में हर साल ५० करोड़ रूपये का १०.४० लाख मीट्रिक तन अनाज ख़राब हो जाता है। यह अनाज हर साल सवा करोड़ लोगों की भूख मिटा सकता है! दुनिया में खाने-पीने की कमी नहीं बल्कि उनके सही बँटवारे की कमी है।
सवाल यह है की इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सामने दिखायी देने वाली सरकारी नीतियां इसके लिए जिम्मेदार नज़र आती हों पर असली खेल बाज़ार की ताक़तवर शक्तियां खेल रही हैं। एग्रो बिजनेस मेंबड़ी कंपनियों ने पकड़ बना ली है। खाद्यान्न बाज़ार की सट्टेबाजी में निवेश २००६ के १० अरब डॉलर से २००८ में ६५ अरब डॉलर पहुँच गया है। खाद्य संकट से मोनसेंटो ने २००%, कारगिल नामक कम्पनी ने ८६%, बनगे ने२०% मुनाफा पिछले साल कमाया। वैश्विक स्तर पर महज़ ६ कंपनियों ने पूरे अनाज व्यापार के ८५ फीसदी हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। कुछ लोगों की मुनाफे की हवस करोडो लोगों को मौत के मुंह में धकेल रही है। ज्यादातर देशों की सरकारें इन ताक़तों के साथ खड़ी हैं बाकि बेवस हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो बमों से मरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा भूख से मर जायेंगे। तो क्या कोई रास्ता नहीं बचा? सबके विफल हो जाने पर इतिहास के रंगमंच पर जनता ख़ुद उतरती है और फ़ैसला करती है। पैदा करने वाले लोग ही आखिरकार उसके बँटवारे का नया तौर-तरीका इजाद करते हैं। क्या यह रास्ता नए सिरे से दुनिया का ढंग-ढर्रा पूरी तरह बदलकर तो नहीं निकलेगा?

Friday, October 10, 2008

ऐसे लोगों का क्या करें?

दशहरा रैली में फ़िर से बाल ठाकरे ने समाज में विष घोलने वाली बात दोहराई है। आपके ख्याल में ऐसे लोगो का क्या किया जाना चाहिए? ऐसे लोगों और उनकी विचारधारा की खिलाफ जनता की प्रतिरोधक ताक़त के खड़ा होने तक कुछ तो किया ही जा सकता है। बल्कि ऐसा जो इस ताक़त के खड़ा होने में मदद करे... । बाल ठाकरे जैसे लोग जिस प्रजाति के प्राणी हैं, उस प्रजाति का इतिहास ही मानवता विरोधी जघन्य अपराधों से भरा पड़ा है। तो ऐसे में इस प्रजाति के लोगो को इंसानों की सूची में से खारिज कर देने की सिफारिश बेलारूस के क्रांतिकारी कवि मक्सिम तांक अपनी निम्नलिखित कविता में कर रहे हैं।

कौन मनुष्य और कौन नहीं...

जनगणना अधिकारीयों के लिए जब

तैयार किए जा रहे हों आवश्यक निर्देश

ज़रूरी है वक्त पर बता देना

किसे मनुष्य जाए और किसे नहीं।

इसलिए की हम यानि जिन्हें मालूम है

कितना भारी होता है हल

और कितनी यातनापूर्ण होती है जुदाई

और कैसी होती है विदाई

जिनके लौटने की कोई उम्मीद नहीं!

हमसे कभी स्वीकार नहीं हो सकेगा

मनुष्यों में शामिल किया जाना

उन लोगों का

जिन्हें आज भी अभिशाप दे रही हैं

बेसहारा बहने और माताएं

अभिशाप दे रही हैं

भास्माव्शेशों से भरी

यह पृथ्वी।

Wednesday, October 8, 2008

रावण का है राज जगत में!

क्रांतिकारियों की नर्सरी यानि लाहौर के नेशनल कालेज के प्रिंसिपल श्री छबीलदास उन लोगों में से थे जिन्होंने भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों की पूरी पीढी को प्रेरित और उत्साहित किया। नेशनल कालेज उन दिनों क्रांतिकारियों का अड्डा ही समझा जाता था। श्री छबीलदास ख़ुद क्रांतिकारी विचारों के आदमी थे। उन्होंने दुनिया भर का क्रांतिकारी साहित्य उपलब्ध कराकर एक तरह से खाद-पानी देने का काम किया। भगतसिंह द्वारा बनाई गयी नौजवान भारत सभा से जुड़कर अपने शिष्य के कामों को जीवन भर आगे बढाते रहे। वे एक अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने कई छोटी पुस्तिकाएं लिखी थी। ये जानकारी janchetna से हाल में छपी बेहद जानकारीपूर्ण और तेजी से लोकप्रिय होती जा रही किताब 'बहरों को सुनाने के लिए' (लेखक एस.इरफान हबीब) में दी गयी है। श्री छबीलदास की राम और रावण को प्रतीक बनाकर लिखी एक कविता नीचे दे रहा हूँ...
राम और सीता छ: पैसे में!
कृष्ण और राधा छ: पैसे में!!
मैंने पुकारा रावण दे दो!
बोला तीन आने में ले लो!!
मैंने कहा ऐ मूरतवाले!
भोली भली सूरत वाले!!
राम और सीता छ: पैसे में!
कृष्ण और राधा छ: पैसे में!!
लछमन सस्ता, शिवजी सस्ता!
रावण है क्यों इतना महंगा!!
बोला वे हैं छोटे-छोटे!
बनते हैं थोडी मिटटी से!!
उफ़ रे! रावण का मुहँ काला!
लंबा मोटा दस सर वाला!!
जब भी हूँ इसे मैं बनाता!
माल मसाला सब चुक जाता!!
बोला 'इसे बनाते क्यों हो?'
इतना माल लगाते क्यों हो?
राम को बेचो सीता को बेचो!
लछमन बेचो शिवजी बेचो!
बोला, इसकी मांग बहुत है!
घर घर इसकी धाक बहुत है!!
हर घर हर मन इसका मंदर!
मुहँ में राम तो रावण अन्दर!!
सीताराम के गए पुजारी!
अब है रावण की मुख्तारी!!
रावण का है राज जगत में!
खेत को खाए बाढ़ जगत में!!

Friday, October 3, 2008

धर्म और जनता

धर्म सदियों से इंसानी जीवन के साथ रहा है। हर चीज़ की तरह इसके भी दो पक्ष रहे हैं। आमतौर पर हमारे देश में धरम पर अवैज्ञानिक नजरिया हावी रहा है। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय भारतीय दर्शन के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान थे। भारतीय दर्शन के वैज्ञानिक पक्ष पर उनकी किताब 'लोकायत: प्राचीन भारतीय भौतिकवाद पर अध्ययन', (१९५९) एक महत्वपूर्ण किताब है। उनके धर्म पर एक लेख के संपादित अंश दे रहा हूँ:-

इंग्लैंड के राजा चार्ल्स प्रथम को प्राणदंड दिए जाने के बीस साल बाद फ्रांसीसी बिशप बोस्सुये ने कहा, "जब आप धर्म के साथ छेड़छाड़ करते हैं तब आप उसे कमज़ोर करते हैं और उसे उस गुरुता से वंचित कर देते हैं जिसके बल पर वेह जनता को नियंत्रण में रखता है। " आप उक्त कथन से सहमत हो या न हो लेकिन आप उसकी उर्क्रिष्ट स्पष्टता से इंकार नहीं कर सकते। बोस्सुये द्वारा किया गया धर्म का समर्थन वस्तुत: बिल्कुल साफ़ शब्दों में धर्म के राजनीतिक कार्य का समर्थन था। इसे जनता को नियंत्रण में रखने का एक कारगर हथियार माना गया है

किसी व्यक्ति के वैयक्तिक विश्वासों में समाजशास्त्री की कोई दिलचस्पी नहीं है।...

आइसोक्रितिज़ इसा पूर्व चौथी शताब्दी का एक सुविग्य यूनानी था। उसने धर्म की उपयोगिता के बारे में लिखा। प्रथम, "क्योंकि उसकी राय में यह उचित था की जनता अपने से बड़ों द्वारा दिए गए प्रत्येक आदेश का पालन करने की अभ्यस्त हो जाए और दूसरे, "उसने देखा की जो लोग अपनी पवित्रता का प्रदर्शन करते थे वे अन्य सभी दृष्टियों से भी कानून का पालन करने वाले होते थे। " वस्तुत: संगठित धर्म जिस प्रकार की आचरण की अपेक्षा करता है, वह ऐसी है जो जनता को अनुपालन का अभ्यस्त कर देती है। जुड़े ही हाथ, झुका हुआ सर, टिके हुए घुटने- दूसरे शब्दों में, सहमति और समर्पण की मुद्रा और मन:स्थिथि। यह वही आचरण है जिसकी एक स्वामी अपने कृत दास से, ज़मींदार अपनी रियाया से, राजा अपनी प्रजा से अपेक्षा करता है।

Wednesday, October 1, 2008

रामलला का लाला से रिश्ता

भव्य रामलीलाओं का मौसम है। लेकिन एक सवाल बार-बार उठता है कि एक-एक पैसा दांत से पकड़ने वाला लाला रामलीला के लिए लाखों रुपये क्यों दे देता है? यह सवाल एक दिलचस्प सामाजिक-राजनीतिक पहलू को खोलता है...


पिछले कुछ सालों में रामलीलाओं का स्वरुप काफी बदल गया है। अब यह बड़ी पूँजी का खेल बन गया है। बाज़ार यहाँ भी पहुँच गया है। लेकिन आज भी व्यापारिक तबका ही इसके आयोजन से लेकर पैसा लगाने में आगे रहता है। ऐसा क्यों है आइये जानते हैं। रामलीला का आधार रामायण है। पहले यह ग्रन्थ केवल महलों और गुरुकुलों तक ही सीमित था। तुलसीदास द्वारा इसका सरल भाष्य लिखने पर यह आम जनता में लोकप्रिय होना शुरू हुआ। सनातन धर्म और उसके राजाओ के लिए यह बड़े काम की चीज थी। इसकी मदद से जनता को धर्मभीरु और राजा का स्वामिभक्त बनने की घुट्टी बड़ी आसानी से पिलाई जा सकती थी। जाहिरा तौर पर राजाओं ने इसे शासकीय प्रश्रय प्रदान किया। राजाओं द्वारा संरक्षित ऐसी रामलीला बनारस के रामनगर और हिमाचल के कुल्लू में आज भी देखी जा सकती है। गीत-संगीत का समावेश होने के बावजूद अभी भी रामकथा का श्रव्य रूप ही ज्यादा लोकप्रिय रहा। स्थानीय स्तर पर रामकथा कहने वालों को ज़मींदारों का सहारा मिला। रामलीला को वर्तमान स्वरुप में लोकप्रिय बनने का कम २०वी सदी की शुरुआत में 'राधेश्याम कथावाचक' ने किया। उन्होंने संक्षिप्त, चुस्त और प्रवाहमय पटकथा के साथ इसमे पारसी रंगमंच की नाटकीयता जोड़ दी। यह वही समय था जब हमारे देश का व्यापारिक तबका राष्ट्रिय आन्दोलन के नेतृत्व को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश कर रहा था। इस उदीयमान तबके को भी राजाओं और ज़मींदारों की तरह रामलीला की उपयोगिता समझ में आ गयी थी। लिहाज़ा तभी से वह इसके पीछे मुस्तैदी से खड़ा हो गया और आज भी खड़ा है।

रामायण जनता को मर्यादा (यानि अपनी औकात) में रहने की सीख देती है। उसे घर पर माँ-बाप, बड़े भाई तो समाज में अपने से बड़े हर किसी की हर सही-ग़लत बात मानने की शिक्षा दी जाती है। उसे सिखाया जाता है की हनुमान की तरह अपने प्राणों की बाज़ी लगा कर आजीवन अपने मालिक के चरणों का दास बना रहना चाहिए। उसे तार्किक, प्रश्न पूछने वाला कतई नहीं होना चाहिए। उसे हर आज्ञा का सर झुका कर पालन करना चाहिए। कुल मिलाकर यह जनता को अतार्किक, आज्ञा पालन करने वाली, स्वामिभक्त और धरमभीरू बनाती है।

यही मूल्य लालाओं को इसे समाज में प्रचारित करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये मूल्य उस तबके के लिए बेहद मुफीद हैं जो २ रुपये की चीज १० रुपये में बेचता हो। जो मेहनत के नाम पर घर से गल्ले पर आना-जाना ही करता हो। जो गद्दी पर बैठे-बैठे धन-संपदा इकट्ठा करता जा रहा हो। जिसे इमानदार और मेहनती काम करने वालों की ज़रूरत पड़ती हो। जिसके लिए अपने नौकरों को संयम का पाठ देना अति आवश्यक हो। उसके लिए हनुमान पैदा कर सकने वाली शिक्षा उसकी कई समस्याओं का हल है। सो ये सारे काम रामलीला बखूबी निभाती है। हालाँकि कोई लाला यह सोच कर रामलीला में दान नहीं देता होगा लेकिन उसकी सामाजिक चेतना उसे इसके लिए प्रेरित ज़रूर करती है।

Thursday, September 25, 2008

सीईओ की मौत पर पाश की कविता याद आती है...

ज़िन्दगी-ज़िन्दगी में फर्क होता है, मौत-मौत में फर्क होता है, इंसान-इंसान में फर्क होता है। एक सीईओ के मारे जाने पर "स्वतंत्रता", "समानता" और "भ्रातृत्व" जैसे शब्दों की असलियत सामने आ रही है। जिस तरह एक सीईओ के अनंत को ढूँढने के लिए शाशन-प्रशाशन दौड़ने लगता है और बराबर में निठारी में कई बच्चों के गायब होने की परवाह नहीं होती और नॉएडा में ही गार्ड द्वारा मजदूर को पीट-पीटकर मारने पर पत्ता नही हिलता लेकिन आज देश-विदेश के धनपति, मंत्री-सरकार और "पूँछ हिलाऊ"(सारा नहीं) मीडिया सब परेशान हैं। बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की यह कविता ज्यादा बयान करेगी...
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढें
इसके शब्दों में मौत की ठंडक है
और एक-एक पृष्ट
ज़िन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु...
और जब मैं जगा
तो मेरे इंसान बनने तक
यह पुस्तक मर चुकी थी
अब यदि इस पुस्तक को पढोगे
तो पशु बन जायोगे
सोये हुए पशु।

Wednesday, September 24, 2008

घोर अन्याय हैं सीईओ को मारना!

भगतसिंह ने अपनी नोटबुक में मार्क ट्वेन का यह उद्धरण नोट किया है — "लोगों के सर कलम कर दिए जाने को तो हम भयंकर मानते हैं, पर हमें जीवन-पर्यंत बरकरार रहने वाली मृत्यु की उस भयंकरता को देखना नहीं सिखाया गया है जो गरीबी और अत्याचार द्वारा व्यापक आबादी पर थोप दी गयी हैं।" इटालियन कंपनी के सीईओ की ह्त्या को दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक बताया जा रहा है। बेशक मजदूरों की एकदम गलती हैं। उन्हें न्याय-फ्याय की लड़ाई लड़नी ही नहीं चाहिए थी। नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा से रोजाना मजदूर निकाले जाते हैं। पर वो तो चुपचाप खून के आंसू पीकर बैठ जाते हैं। उस कंपनी के मजदूरों को क्या ज़रूरत थी हक की इतनी लम्बी लडाई लड़ने की। क्या समझते हैं की श्रम विभाग, अदालत, पुलिस, राजनीतिक पार्टियाँ, ट्रेड यूनियन उनके लिए हैं। बड़ी ग़लतफहमी में थे बेचारे। किस्मत के मारे इन अच्छे-अच्छे शब्दों के फेर में पड़ गए। और जब इनका असली रूप सामने आया तो बिफर उठे। अगर चुप्पा मार लेते तो क्या बिगड़ जाता? ज्यादा से ज्यादा दो-चार मजदूर पैसे की तंगी से आत्महत्या कर लेते, या १००-५० घरों में कुछ दिन फाका करना पड़ता या नौकरी छोटने का दंश सारी जिंदगी उन्हें और उनके परिवारों को झेलना पड़ता या नए सिरे से मजदूरी तलाशनी पड़ती और पहले से कम पैसो में काम करना पड़ता। अब देखिये यह तो झेलना ही पड़ेगा वरना देश आगे कैसे बढेगा। वैसे अब पुलिस सजग हो गयी हैं। अबकी ऐसा हुआ तो देश की तरक्की के लिए सख्त से सख्त कदम उठाया जाएगा। आप लोगों ने बहुत बड़ी गलती की। लेकिन आपको मिली सज़ा दूसरे मज्दूरों के लिए एक सबक हो यह सुनिश्चित किया जायेगा।

Tuesday, September 23, 2008

"बाज़ार" समाजवाद यही दे सकता है

चीनी सरकार बता रही हैं ५४००० बच्चे मिलावटी दूध से बीमार पाये गए हैं। संख्या अभी और बड़ सकती हैं। धीरे-धीरे भयावह तथ्य सामने आ रहे हैं कि इसकी जानकारी तो लगभग दो महीने पहले लग चुकी थी लेकिन शायद ओलिम्पिक की वजह से दबा दी गयी। २००४ में भी १३ बच्चे मारे गए थे और मामले को दबा दिया गया था। इस बार भी उम्मीद हैं कि बड़ी मछलियों को बचा लिया जायेगा। यह हैं "बाज़ार" समाजवाद जिसकी तारीफ़ के कसीदे गाने वाले हमारे देश में भी कम नहीं हैं। अपने को "वामपंथी" होने का दावा करने वाले हमारे देश के "लाल तोते" भी इसी "बाज़ार" समाजवाद का रट्टा आजकल लगाते हैं। असल में यह लाल खाल ओढे हुए पूँजीवाद का ही शैतान हैं। जिसके लिए अपनी साख ५४००० बच्चों की जान से ज्यादा कीमती हैं। इतने बड़े पैमाने पर मिलावटी दूध का बिकना चीन के उभर चुके पूंजीपति और सरकार के गहरे रिश्ते को बताता हैं। ऐसे कूडमगजों की भी कमी नहीं हैं जो इसी को समाजवाद समझ कर कोसने लगते हैं। हमारे देश के बुद्धिजीवी तबके को भी इस बात का ज्ञान नहीं हैं कि चीन में समाजवाद का अंत १९७६ में हो चुका हैं। अब वहाँ समाजवाद के नाम पर पूँजीवाद कायम हैं। और पूँजीवाद के लिए सबसे बड़ी चीज रुपया होती हैं चाहे इसके लिए मिलावटी दूध बेचकर हजारों बच्चों की जान खतरे में क्यों ना डालनी पड़े। यह हजारों बच्चे जीवन भर इस बात को शायद सोचे कि उन्हें किस बात की सज़ा मिली हैं। क्या समाज चलाने वाले उन्हें भेड़-बकरियां तो नहीं समझते?

Saturday, September 20, 2008

गरीबों से लूटे जाते हैं ८८३ करोड़ हर साल

पिछले साल अर्जुनसेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट में खुलासा हुआ की देश के ७७ फीसदी लोगों की रोजाना की आमदनी २० रुपया रोज़ हैं। ट्रांस्पेरंसी इंटरनेशनल की ताज़ा रिपोर्ट में पता चला है की इस तबके के लोगो से सरकारी तंत्र में घूस के रूप में सिर्फ़ एक साल ८८३ करोड़ लूटे जातें हैं। यह घूस पुलिस, राशन, अस्पताल, स्कूल, ग्रामीण रोज़गार योजना आदी में ली गयी।

Friday, September 19, 2008

बजरंग दल आतंकवादी संगठन है!

आतंकवाद फिर चर्चा के केन्द्र में हैं। यह सही मौका हैं कि बजरंग दल के काले कारनामों का कच्चा-चिटठा खोला जाए और उसके हत्यारे चेहरे को देश के सामने उजागर किया जाए। हम लोगों को जानना चाहिए कि धरम के रक्षा के नाम पर यह संगठन खून बहाने में किसी सिमी या लाश्कारेतैय्ब्बा से कम नहीं हैं। पिछले महीने की २४ तारीख को कानपूर में एक प्राईवेट हॉस्टल के कमरे में विस्फोटक पदार्थ तैयार करते हुए दो लोगों के चीथड़े उड़ गए थे और दो छात्र घायल हो गए थे। पुलिस को कमरे से भारी मात्र में विस्फोटक, हैण्ड ग्रेनेड, बने-अधबने बम, टाइम डिवाइस और डेटोनेटर समेत बम बनने का काफी समान मिला था। मारे गए लोगों में से एक कानपूर शहर में बजरंग दल का पूर्व नगर संयोजक था। आईजी सं सिंह ने साफ़ कहा कि टाइम डिवाइस मिलना इस बात का पुक्ता सबूत हैं कि विस्फोट करके सूबे में तबाही मचने कि बड़ी योजना थी। (२५ अगस्त, २००८-अमर उजाला)
इस घटना ने सनसनी मचा दी हालाँकि बजरंग दल के इतिहास और विचारधरा को करीब से जानने वालों के लिए इसमे कोई आश्चर्य कि बात नहीं थी। इस घटना कि सीबीआई जाँच कि मांग मुख्यमंत्री मायावती ने खारिज कर दी। इस घटना कि उच्चस्तरीय जाँच अगर इमानदारी से करवाई जाए तो और कई राज भी खुल सकते हैं। कानपूर से पहले महारास्थ्र के नांदेड में भी बजरंग दल के एक कार्यकर्ता के घर बम बनाते हुए दो कार्यकर्ता मारे गए थे और तीन ज़ख्मी हुए थे। नांदेड के आईजी के अनुसार मोके से ज़िंदा पाइप बम हुए थे और चिंता की बात यह थी कि ज़िंदा बम आईईडी किस्म के थे जिसे रेमोते कंट्रोल से संचालित किया जा सकता हैं। सभी मृतक और आरोपी बजरंग दल के सक्रीय कार्यकर्ता थे। (९ अप्रैल २००६, मिडडे और १० अप्रैल, २००६, दी टेलीग्राफ) । यह घटनाये पुख्ता सबूत हैं कि यह संगठन हिंसक और आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न हैं। १९९९ में ऑस्ट्रलियाई पादरी ग्राहम स्टांस और उनके दो छोटे बच्चों को जिंदा ज़लाने से लेकर गुजरात में व्यापक रूप से नरसंहार को अंजाम देने का कारनामे इसी संघठन के नाम हैं। इस संगठन की घटिया और गैर इंसानी मानसिकता का पता तहलका के स्टिंग ओपरेशन से सामने आ चुका हैं जिसमे बाबु बजरंगी नामक दंगों के मुख्य आरोपी ने बेशर्मी के साथ की गयी हत्याओं का वीभत्स वर्णन किया हैं। कभी पत्रकारों-कलाकारों को पीटना तो कभी पार्क में लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर मारना भी इसके "कर्तव्यों" में शामिल हैं। पता नहीं केन्द्र सरकार को इस संगठन को प्रतिबंधीत करने के लिय और कितने सबूतों के ज़रूरत hein ?

Thursday, September 18, 2008

प्रखर पत्रकार भी थे भगतसिंह

भगतसिंह सिर्फ़ बम-पिस्तौल ही अच्छी तरह नहीं चलते थे बल्कि कलम का भी खूब जमकर प्रयोग करते थे। अपने मकसद के पूरा होने में विचारो की अहमिअत को तरजीह देते हुए उन्होंने उस दौर के सभी प्रमुख जनपक्षधर पत्र-पत्रिकाओं में लिखा। गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रताप, 'मतवाला', 'चाँद', 'कीरती', 'महारथी', 'अभुऊदय' और 'द पीपुल' में उनके ढेरो लेख छपे थे। इनमे उन्होंने सभी महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों को गहराई के साथ उठाया था। भाषा, जाती-समस्या, छूआछूत, धर्म, राजनीति, भारत के क्रांतिकारी इतिहास आदि कई विषयों पर उनका लेखन उनकी असाधारण पैनी दृष्टी का परिचय देता हैं। उनकी पहली गिरफ्तारी भी काकोरी के शहीदों के सस्मरण लिखने पर ही हुई थी। आखिरी समय में भी मुक़दमे के दौरान उनके लेख चोरी-छुपे अख़बारों में छपते थे। जाहिर हैं भगतसिंह कलम को एक हथियार से कम नहीं समझाते थे। वे वास्तव में एक प्रखर पत्रकार थे।

Wednesday, September 17, 2008

आतंकवाद-कौन हैं जिम्मेदार?—2

आतंकवाद--कौन हैं जिम्मेदार?—2
आतंकवाद के बारे में आमतौर पर दो तरह के विचार पाये जाते हैं। पहला विचार इस समस्या को बिना सोच-विचारे बन्दूक के दम पर ख़तम कर देने का होता हैं। इसका ज़ोर ज़्यादा खून-खराबा मचा कर या हर विरोधी आवाज़ को दबा देने का होता हैं। अमेरिका और हमारे देश में संघपरिवार या भाजपा का यही स्टैंड हैं। लेकिन हम देख सकते हैं। ताक़त के दम पर इसे ख़तम करना नामुमकिन हैं। चाहे इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान हो या अपने देश में कश्मीर, पूर्वोत्तर। शासकों के एक हिस्से की यह ज़ल्दबाजी उनकी अपनी विफलताओं को छुपाने की कोशिश होती हैं जो नाकामयाब रहती हैं। जितना ही दबाने की कोशिश की जाती हैं, यह उतना ही उभर कर सामने विकराल रूप ले लेती हैं। दूसरे तरह की सोच में इसे एक सामाजिक समस्या मानने का दिखावा तो किया जाता हैं, पर असल में ज़ोर बन्दूक के ज़रिये समस्या सुलझाने पर ही रहता हैं। शासक वर्ग का यह हिस्सा ज्यादा चालाक होता हैं। हमारे देश में कांग्रेस इस सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं।इन दोनों ही विचारों में इस समस्या से निपटने की कवायद मात्र की जाती हैं।जैसा की मैंने पहले इशारा किया की इस समस्या की सामाजिक-राजनीतिक ज़मीन और जडों की तलाश किए बिना इसे ख़तम करने की सोचना सिर्फ़ गत्ते की तलवार भांजना होगा। सवाल यह हैं की आतंकवाद पैदा ही क्यों होता हैं? अगर गौर से देखें तो सारी दुनिया के आतंकवाद के रूपों में एक कॉमन फैक्टर दिखायी पड़ेगा, वो हैं--असंतोष! आतंकवाद ना जुनून की ज़मीन से पैदा होता हैं ना बदले की। जहाँ पर जनता के किसी हिस्से में असंतोष होता हैं वहां इसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद होने लगती हैं। यह असंतोष ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों के लिए होता हैं। बेहतर ज़िन्दगी में यकीनन रोज़गार, दवा-इलाज़, शिक्षा तो होते ही हैं पर साथ में जीवन के हर हिस्से में (अपने मूल्यों-आस्थाओं के साथ जीने देने की आज़ादी समेत) समान भागीदारी भी इसका बड़ा फैक्टर होता हैं। जब समान अवसरों के अधिकार पर किसी ख़ास इलाके, नस्ल, धर्म, जाती और क्लास के लोगों को लगातार भेदभाव झेलना पड़ता हैं और उनकी आवाज़ सत्ता तक पहुच कर भी अनसुनी रह जाती हैं तो लोगों को निराशा में या ग़लत ताक़तों के बहकावे में आकर बन्दूक उठानी पड़ती हैं। हालांकी बन्दूक कोई समाधान नहीं हैं पर लोगों के पास विकल्प नहीं होता। आपको क्या लगता हैं कश्मीर के लोग आज़ादी क्यों चाहते हैं। वहां के नौजवानों ने बन्दूक क्यों उठाई हैं? इस वजह से क्यों की दिल्ली उनको बेहतर जीवन ना तो मुहैय्या करवा पाई न भरोसा कायम रख पाई। कश्मीर पर राजनीती तो बहुत हुई पर बताईये कितने स्कूल-कालेज, अस्पताल, बिजलीघर, उद्योग-धंधे लगाए गए। मेरा मानना हैं की जितना पैसा आज फौज पर खर्च किया जा रहा हैं उसका एक-चौथाई भी विकास पर खर्च होता तो वहां समस्या खड़ी नहीं होती। यही बात पूर्वोत्तर से लेकर नक्सल-प्रभावित इलाकों में लागू होती हैं। अच्छी ज़िन्दगी सबसे बड़ी ज़रूरत होती हैं। अगर यह ज़रूरत पूरी नहीं होगी तो ग़लत ताक़तें लोगों को गुमराह करने में कामयाब हो जाती हैं। लोगों की ज़िन्दगी के ख़राब हालत उन्हें दिस्त्रिक्टिव पॉलिटिक्स का हिस्सा बना देता हैं। यह भेदभाव व्यवस्था की प्रकृति में मोजूद होता हैं। कैसे अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा।

आतंकवाद-कौन हें जिम्मेदार?—1

खौफ और दर्द का मंज़र। आतंकवाद शब्द ज़हन में आते ही यह भाव उभर आता हैं। इसके साथ ही उन लोगों के लिए नफरत भी जो इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। निर्दोष जानें जाने पर गुस्सा पैदा होता हैं। जो बेहद लाजिमी हैं। लेकिन आतंकवाद के बारे में अक्सर बेहद जल्दबाजी में निष्कर्ष पर पहुँच जाया जाता हैं। आतंकवाद का रास्ता निश्चित तौर पर ग़लत मानते हुए भी यह जल्दबाजी इस समस्या की जड़ कभी पकड़ने नहीं देगी। यह कोई ऐसी समस्या नहीं हैं जो दिन-दो दिन में पैदा हो गयी हो। इसके निश्चित सामाजीक-ऐतीहासीक कारन होते हैं। इन कारणों की तलाश किए बिना इसे ख़तम करने का मंसूबा पालना सिर्फ़ गत्ते की तलवार भांजने जैसा होगा।

Tuesday, September 16, 2008

१४५६ अरब डॉलर जमा हैं स्विस बैंकों में हमारे कर्णधारों के!

स्विस बैंकों में सिर्फ़ भारत के लोगो(जाहिर तौर पर तथाकथित सफेदपोश लोग) का १४५६ अरब डॉलर जमा हैं। यह रकम भारत की जीडीपी से १७ लाख करोड़ ज्यादा और विदेशी मुद्रा भंडार का ५ गुना हैं। स्विस बैंकों की या कहें स्विट्जरलैंड की अर्थवयवस्था में सबसे बड़ी हिस्सेदारी भारत से जमा पैसे की हैं। भारत से इन बैंकों में १९८६ में १३०० करोड़ रुपये, १९९७ में २८ हज़ार करोड़ और २००६ में सीधे १४५६ अरब डॉलर रुपये जमा कराये गए। चिदंबरम जी को खुश होना चाहिए की भारतीय अर्थवयवस्था इतनी ताक़तवर होती जा रही हैं की उसका सिर्फ़ काला धन ही १४५६ अरब डॉलर हो गया हैं। पता नहीं देश का इतना पैसे बाहर जाने पर 'स्वदेशी' वालों की क्या प्रतिक्रिया होगी? खैर यह आइना हैं हमारे देश में फलते-फूलते भ्रष्ट्राचार के धंधे का जो अक्सर राजनीती की सीधी चढ़ कर आता हैं। भ्रष्ट्राचार को आज संस्थगत रूप प्राप्त हो चुका हैं। इसकी जड़ें वयवस्था से खाद-पानी लेती हैं। और हमारा तंत्र उसमे अपना बड़ा हिस्सा लेकर इसे छुपाने का काम करता हैं। स्विस बैंकों में जमा यह विशाल रकम हमारी वयवस्था के सड़ते हुए केवल कुछ अंगों का सामने आना हैं।

Monday, September 15, 2008

दिल्ली के धमाकों का संकेत

दिल्ली में हुए धमाके आतंकवाद रुपी उसी समस्या की अगली कड़ी हैं जिसकी जड़े काफी गहरी हैं। आमतौर पर ऐसी घटनायों के बाद चारों तरफ़ से ऐसी चीजों के ख़िलाफ़ माहौल बनने लगता हैं। ठीक भी हैं आतंकवाद किसी समस्या का समाधान नहीं हैं। लेकिन हमें इसकी भर्त्सना करते हुए यह भी सोचना चाहिए की यह समस्या पैदा ही क्यों होती हैं