Thursday, December 25, 2008

आज का कंधमाल

(आज क्रिसमस के दिन कंधमाल फिर से खबरों में मौजूद है। एक ओर कई सारे संगठनों ने बंद का आह्वान किया है वहीं केंद्र सरकार ने हिंसा की आशंका जताते हुए उड़ीसा सरकार को सावधान रहने की हिदायत दी है। सैन्‍यबलों की तैनाती भी कर दी गई है। समझा जा सकता है कि कंधमाल में स्थिति अभी सामान्‍य नहीं हुई है। इन्‍हीं हालातों के बीच सामाजिक कार्यकर्ता प्रमोदिनी प्रधान और रंजना पाधी कंधमाल के दौरे से वापस आई हैं। उनके अनुसार राहत शिविरों में लोगों के बेहद बुरे हालात हैं, उन पर बम फेंके जा रहें हैं, पानी के टैंक को जहरीला किया जा रहा है। वहां के ताजा हालात पर उनके लेख का हिन्‍दी में अनुवाद करके दे रहा हूं। जाहिर है अभी कंधमाल शांत नहीं हुआ है और सतह के नीचे कुछ चल रहा है।)..................................






आज कंधमाल की स्थिति कितनी 'सामान्य' है

- प्रमोदिनी प्रधान, रंजना पाधी
''...साम्प्रदायिक हिंसा के इन भयानक और शर्मनाक हादसों की एकदम शुरुआत से ही मेरी सरकार ने उस अशांत जिले में स्थिति सामान्य करने और शांति बहाल करने के लिए हरसंभव कदम उठाये थे। बीते सप्ताह या उससे पहले से वहाँ स्थिति सामान्य है और इसे नियंत्रण में लिया जा चुका है।'' - सीएनएन-आईबीएन को दिये गये एक साक्षात्कार में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक।

23 अगस्त के बाद से उड़ीसा का कंधमाल जिला आदिवासी और दलित दोनों पृष्ठभूमि के ईसाइयों पर भयानक और क्रूर हमलों की एक अन्तहीन बाढ़ का साक्षी रहा है। 50,000 से ज्यादा ईसाइयों को हिंसा के दम पर उनकी जगह-जमीन और रोजी-रोटी से बेदखल कर दिया गया है। उनके अपने गाँवों में संघ परिवार के तलवार लहराते हिन्दू गिरोहों की जोर-जबर्दस्ती के अलावा राहत शिविरों के नरक और अपने घरों को वापस लौटने की असम्भव लगती सम्भावना के बीच ये लोग गहरे सदमे, निराशा और अनिश्चितता में डूबे हुए हैं।
यह लेख कंधमाल हिंसा से प्रभावित लोगों और उनकी बेदखली के अभी तक महसूस किये जा रहे गहरे आतंक की एक झलक प्रस्तुत करेगा। हमने कंधमाल से बाहर शरण लेने वालों के साथ-साथ जी उदयगिरी ब्लॉक में बनाये गये राहत शिविरों में से एक शिविर के लोगों से बातचीत की। हमने बेरहामपुर में एमकेसीजी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती पीड़ितों से मुलाकात की। उड़ीसा सरकार के इस दावे के उलट कि कंधमाल में स्थिति नियंत्रण में है और गिरफ्तारियाँ करके कड़े कदम उठाये जा रहे हैं जो कि सिर्फ दो सप्ताह पहले शुरू की गयीं थीं, हम यहाँ सवाल उठाना चाहते हैं कि कंधमाल आज हकीकत में उन लोगों के लिए कितना सुरक्षित है जो यहां कई दशाब्दियों या उससे पहले से रहे रहे थे। ईसाई समुदाय डर, सदमे और गहरी असुरक्षा की भावना में जी रहा है। यहाँ तक कि शिविरों में भी लोग किसी भी क्षण हमले का शिकार होने के लगातार डर से सहमे हुए हैं। ये लोग आपको उन लोगों के नाम बताएंगे जिन्होंने बढ़-चढ़कर उन पर हमला करने वाली भीड़ को भड़काया लेकिन अभी भी यहाँ-वहाँ खुलेआम घूम रहे हैं। वे आपको उन स्थानीय पुलिस अधिकारियों के नाम बताएंगे जो दंगाइयों को सूचनाएँ पहुँचा रहे हैं।

उड़ीसा सरकार के दावे
कंधमाल में ईसाइयों पर हुए हमलों के संबंध में सरकार ने 500 से ज्यादा लोगों को पकड़ने का दावा किया है। ईसाइयों के खिलाफ हमलों में शामिल लोगों की हाल में हुई गिरफ्तारियों से शायद हिंसा का पैमाना थोड़ा नीचे आया हो। लेकिन उड़ीसा पुलिस प्रभावित होने वाले दलित ईसाइयों का भरोसा खो चुकी है जिसने भीड़ द्वारा हमला किये जाने पर उनकी पुकारों का कोई जवाब नहीं दिया था। दूसरी तरफ, कुई समाज समन्वय समिति, जोकि कंधमाल में आदिवासियों का छाता संगठन है, क्षेत्र से केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल हटाने और शांति बहाल करने की पूर्व-शर्त के तौर पर गिरफ्तार किये गये 'निर्दोषों' की रिहाई की अपनी माँग पर अड़ी हुई है (टाइम्स ऑफ इण्डिया, 15.10.08; कंधमाल ट्राईबल्स सेट टर्म्स फॉर ट्रूस)।
उड़ीसा सरकार लगातार यह कह रही है कि कंधमाल में स्थिति सामान्य होती जा रही है और लोग शिविरों को छोड़कर जा रहे हैं। यह दावा किया गया है कि शिविरों में रह रहे लोगों की संख्या 23,000 से घटकर 13,000 हो गयी है। कंधमाल में स्थिति निंयंत्रित करने वाले जिम्मेदार अधिकारी शिविरों में रह रहे लोगों को अपने गाँव वापस लौटने के लिए राजी करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। ''हमारे पास अपने पड़ोसी चुनने का विकल्प नहीं है। हमें उन्हीं के साथ रहना पड़ेगा।''- यह बात कंधमाल के जिला हेडक्र्वाटर फुलबनी में हुई शांति बैठक में अनुसूचित जाति और जनजाति के आयुक्त तारा दत्ता ने एकदम बेलागलपेट कही। सरकार ने कुछ इलाकों में कुछ लोगों को घर लौटने के लिए राजी कर लिया है। लेकिन ज्यादातर जगहों पर लोगों ने अपनी मर्जी से शिविरों को छोड़ दिया है। शिविरों में लोगों का आना-जाना जारी है लेकिन यहाँ पर केवल एक बार पंजीकरण किया गया था और शिविर छोड़ने वाले लोगों का यहाँ कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं रखा गया है। जी उदयगिरी ब्लॉक में, लगभग 4,000 लोगों वाले तीन शिविर बनाये गये थे। कई लोगों ने इन शिविरों को छोड़ दिया है, लेकिन कोई भी एक आदमी अपने घर नहीं लौटा। तब ये लोग कहाँ चले गये? और वे लोग जो अपने गाँव वापस लौटे हैं, किन शर्तो पर?

दूसरे जिलों और राज्यों में पलायन
शिविरों मे लोगो का कम होना लोगों का अपने गाँव वापस लौटने का सूचक नहीं है जैसाकि उड़ीसा सरकार दावा करते हुए कह रही है। कई लोग दूसरे राज्यों जैसे आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडू और केरल की ओर जा रहे हैं तो दसियों-हजारों लोगों ने उड़ीसा के ही दूसरे शहरों में शरण ले ली है। भुवनेश्वर में 250 से ज्यादा लोग वाईएमसीए की मदद से रह रहे हैं और उन्हें सरकार से भी राहत मिली है। कई लोगों ने खुरदा के पास जालना में मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी में आश्रय लिया है। कंधमाल से या फिर राहत शिविरों से रिश्तेदारों के घरों में अस्थायी शरण माँगकर रहने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। वे चोरी-छिपे रहते हैं और उन्होंने हमसे अनाम रखे जाने का निवेदन करते हुए बातचीत की। रिश्तेदारों या कुछ शुभचिन्तकों द्वारा गुप्त ढंग से राहत दी जा रही है। ऐसी जगहों में कटक और बेरहामपुर और संभवत: कई अन्य स्थान हैं। बेरहामपुर में काफी सुरक्षित अनुमान भी कम से कम 200 लोगों के शरण लिये जाने का है। सहायता करने वाली स्थानीय पुलिस के अनुसार, प्रशासन ने उनकी रक्षा करने और सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन उनके किसी से न मिलने और कोई राहत न लेने की शर्त पर दिया है। इस प्रकार का कोई भी मिलना-जुलना बजरंग दल के स्थानीय तत्वों का ध्यान खींचने वाला समझा जाता है जिससे प्रशासन बचना चाहता है। इस तरह पीड़ितों द्वारा चुप्पी और गुमनामी बनाये रखने की शर्त पर सुरक्षा सुनिश्चित की गयी है। तब फिर उनके द्वारा मदद माँगे जाने या अपनी एफआईआर तक दर्ज कराने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? बेरहामपुर में रह रहे लोगों में मौजूद भय और उद्विग्नता काफी कुछ बल्कि कहें कि सबकुछ रेखांकित कर देता है जो शायद उन लोगों को अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में कहना है।
एक 32 वर्षीय आदमी ने अपनी पत्नी को अपने चाचा के यहाँ छुपा रखा है क्योंकि उनका परिवार हिन्दू है। वे लोग भी लंबे समय तक उसकी पत्नी को रखते हुए बेहद भयभीत थे क्योंकि यह बात आरएसएस के स्थानीय लोगों द्वारा खोजी जा सकती है। 4 साल और 2 साल के दो बच्चे उसके साथ हैं। वह अपनी पत्नी की सुरक्षा के बारे में सोचकर परेशान है। वह साफ-साफ कहता है कि वह उड़ीसा छोड़कर इलाहाबाद चला जाएगा जहाँ उसका भतीजा कुली बनने में उसकी मदद कर देगा। उसके लिए सबसे जरूरी है कि उसका परिवार सुरक्षित और एकसाथ रहे। वह एक छोटा काश्तकार था लेकिन अब अपने परिवार के सुरक्षित रहने के लिए कोई भी कठिनाई उठाने को तैयार है। वह कहता है - ''हम आदिवासी हैं; हम कोई भी काम कर सकते हैं चाहे वह कितना भी मुश्किल हो। और अब मैं जान गया हूँ कि मैं कोई भी काम शुरू से सीख सकता हूँ। इसमें समय लगेगा लेकिन मैं जो भी करूँगा, अच्छा ही कर लूँगा। हमारी जिन्दगियाँ अब कंधमाल में कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं, न यहाँ पर और न राहत शिविर में। इन बच्चों का आखिर दोष क्या है - मुझे उनका पालन-पोषण ठीक से करना है।'' कुछ और लोगों ने भी केरल चले जाने की संभावना के बारे में हमसे बात की। कंधमाल और उड़ीसा छोड़ देना उनके लिए तय बात है क्योंकि दूसरे लोग पहले ही उड़ीसा से जा चुके हैं। इस तरह कितने लोग जा चुके हैं और कितने जा रहे हैं, इसके सही अनुमान का आप अन्दाजा ही लगा सकते हैं क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। एक 55-वर्षीय पीड़ित जो शरण माँगने वाले कई लोगों की मदद कर रहा है, ने हममें से एक से कहा कि केवल रेलवे स्टेशन पर जाकर हमारे लोगों को इधर-उधर घूमते और किसी रिश्तेदार या परिचित से थोड़ा-बहुत पैसा मिलते ही यह जगह छोड़ने की प्रतीक्षा करते हुए देखा जा सकता है। ये लोग कहीं भी रह लेंगे लेकिन उस गाँव में दोबारा (शायद कभी) नहीं आयेंगे।

वापस लौटने की भयंकर दुविधा
ज्यादातर लोग जिनसे हमने बात की, अपने गाँव वापस लौट सकने की बात सोचकर भी काफी भयभीत हो जाते हैं। जिन लोगों से हमने बात की, उनमें से ज्यादातर इतने डरे हुए हैं कि अपने गाँव वापस लौटने के बारे में सोचना भी नहीं चाहते। लगभग हर व्यक्ति बताता है कि स्थानीय आरएसएस कार्यकर्ता या आरएसएस द्वारा संचालित ग्राम समितियों या पंचायतों के लोगों ने ईसाइयत छोड़कर हिन्दू बनने के लिए उसे धमकाया। ऐसा दो बार किया गया, पहली बार गाँवों में हमला करने से पहले सामान्य तौर पर और दूसरी बार जंगलों में छुपे होने पर। और हाँ, संघ परिवार ने ईसाइयों को चुनने का एक मौका भी दिया है: अपना धर्म बदलकर हिन्दू बनो और अपने गाँवों में वापस आ जाओ; या फिर दफा हो जाओ। वीएचपी को दिये जाने वाले एक प्रार्थनापत्र की फोटोकापियाँ बाँटी गयी हैं। जो कोई हिन्दू धर्म में वापस आना चाहता है इस पर हस्ताक्षर करके स्थानीय नेताओं को सौंप दे। इसके बाद ही उन्हें अपने गाँवों में लौटने की इजाजत है।
प्रार्थनापत्र के साथ-साथ कुछ रीति-रिवाज करवाये जाते हैं और 350 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक का जुर्माना देना पड़ता है। कुछ लोगों ने इस विकल्प को चुन लिया है। हम कुछ ऐसे लोगों से मिले जिन्होंने इसपर हस्ताक्षर किये थे लेकिन अब अपने घरों से भाग भी आये। 33 वर्षीय एक आदमी ने कहा कि उसे हस्ताक्षर करने पड़े वरना शायद मारा जाता; इसलिए उसने ऐसा किया। उसने कहा कि इसके बाद भी वह सुरक्षित नहीं है। लगभग इसी स्वर में एक दूसरे पीड़ित ने कहा कि इसके बाद भी रहना आसान नहीं है क्योंकि किसी भी तरह आपको वह सब करने के लिए धमकाया जायेगा, जो वे लोग कर रहे हैं - यानी ईसाइयों के खिलाफ हिंसा में शामिल होना।
गाँवों में वापस लौटना कई दूसरी समस्याओं से भरपूर है। चूँकि आतंक और बहिष्कार चारों तरफ व्याप्त है। बालीगुडा ब्लॉक में मादीनादा गाँव के शिविर में शरण लेकर रह रहे 14 परिवारों को अपने गाँव वापस जाने पर राजी कर लिया गया। उनके घर अगस्त में हिंसा के दौरान जला दिये गये थे। शांति स्थापित करने के प्रयासों की कई कार्रवाइयों से गुजार कर सरकारी अधिकारी इन परिवारों को इनके गाँव ले गये। उन्हें 10 किलो चावल, 1 किलो दाल और कुछ बर्तन दिये गये। गाँव में इन परिवारों से कोई बोलता नहीं है। वे रात को हमलावर गांव वालों के डर से सो नहीं सकते हैं। वे बाजार जाने से डरते हैं। उनका गुजारा जलावन लकड़ी और पत्तो इकट्ठा करके और बेचकर चलता था। अब उनमें बाजार जाने की हिम्मत नहीं है। ये परिवार बेहद गरीब हैं। उन्हें जॉब कार्ड दिये गये हैं लेकिन इस योजना के अन्तर्गत एक भी दिन का काम उन्हें उपलब्ध नहीं कराया गया है। आखिरी बार दिसम्बर-जनवरी की हिंसा के दौरान भी इन परिवारों ने गाँव से भागकर दो सप्ताह के लिए बालीगुडा में एक राहतशिविर में शरण ली थी। इस शिविर में उनके रहने के बारे में बात करते ही एक 20 वर्षीय नौजवान औरत फूट-फूटकर रोने लगी। शिविर में उसके एक साल के लड़के की मौत हो गयी थी। उस बार उनके घर नहीं तोड़े गये थे। लेकिन हमले के डर से उन्होंने गाँव छोड़ दिया था। वे अभी भी हाशिये पर धकेले जाने को अभिशप्त हैं; कोई भी इस बात से अन्दाजा लगा सकता है कि सैकड़ों परिवारों के लिए लौटने पर क्या-क्या हो सकता है।
एक ईसाई बस्ती से वापस लौटते हुए हम लोग बेचने के लिए जलावन लकड़ी का गट्ठर बनाती एक गरीब आदिवासी महिला से मिले। नरेगा और मिलने वाले काम के बारे में पूछने पर पता चला कि उसे योजना के वायदे यानी 100 दिन रोजगार की गारंटी की कोई जानकारी नहीं है। यह पूछने पर कि लोग ईसाई परिवारों से बात क्यों नहीं करते हैं, उसके चेहरे का भाव अचानक बदल गया। वह तीखे लहजे में पूछने लगी, 'अपको किसने बताया कि हम बोलते नहीं हैं, क्या इन लोगों ने आपको बताया है? मै जाकर पूछती हूं उनसे इस बारे में, पता नहीं ये अपने आपको समझते क्या हैं?' आक्रामक स्वर में मिले जवाब से हमें अपनी गलती समझ में आ गयी और इस गलती को ठीक करने की कोशिश की गयी। यह शत्रुतापूर्ण भाव और गुस्सा उन लोगों के साफ-साफ नजर आने वाले वर्चस्व और 'दम है तो हमारे खिलाफ कुछ कहकर दिखाओ' वाले भाव को प्रतिबिंबित करता है जो दलित ईसाइयों को नीची नजरों से देखते हैं।
कंधमाल की सड़कों से गुजरते हुए किसी भी व्यक्ति का ध्यान छोड़े गये घरों के अवशेषों, या तो टूटे-फूटे या जले हुए और नष्ट किये गये चर्चों की तरफ चला जाएगा। हालाँकि ये उतनी हैरानी पैदा नहीं करता जितना कि घरों के ऊपर लगे भगवा झण्डे जो अब 'हिन्दू गाँव' कहलाते हैं। कुछ समय पहले कौन इस चीज की कल्पना कर सकता था। जी उदयगिरी की तरह के छोटे शहर के बाजारों में हर 'हिन्दू दुकान' के ऊपर एक भगवा झण्डा लहरा रहा है। और यहाँ पर भगवा झण्डा लगा एक टूटा चर्च भी है। जाहिरा तौर पर, संघ परिवार के पास एक हिन्दू राष्ट्र बनाने के ''धर्मयुध्द'' में बाहुबल, जोर-जबर्दस्ती और हिंसा के अलावा और कुछ नहीं है।

राहत शिविरों में स्थितियाँ
लोग स्कूल की बिल्डिंगों में या फिर विद्यालय के प्रांगण या उससे सटे खुले मैदानों में लगे हुए टेण्टों में रह रहे हैं। खुले मैदान वाले शिविर बारिश होने पर असहनीय रूप से बदबूदार हो जाते हैं। यहाँ पर पेट की बीमारियों और बुखार का हमला लगातार हो रहा है। इसकी सूचना राष्ट्रीय समाचारपत्रों में छपी थी (टाइम्स ऑफ इण्डिया; 20.09.08, कंधमाल ग्रेपल्स विद् डिज़ीज, रेन) प्रशासन द्वारा बनाये गये अस्थायी शौचालय प्रयोग किये जाने की हालत में नहीं हैं; जहाँ बड़े लोग शौचादि के लिए बाहर जाते हैं, वहीं बच्चे शिविर के मैदान का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। कुत्तो और गाय शिविर में निर्बन्ध होकर घूमते हैं।
प्रति व्यक्ति कपड़ों का केवल एक जोड़ा दिया गया है, महिलाओं के लिए एक पेटीकोट और ब्लाऊज़, पुरुषों के लिए एक धोती और एक कमीज और बच्चों के लिए एक पैण्ट और कमीज/फ्रॉक। व्यस्क लोगों में प्र्रति व्यक्ति एक कम्बल दिया गया है। महिलाओं के सैनिटरी कपड़े का कोई इन्तजाम नहीं है। 6 से 8 परिवारों के एक टेंट में दो बाल्टियाँ दी गयी हैं। इसी तरह टेंट में नीचे की जमीन ढँकने लायक चटाइयाँ पर्याप्त नहीं हैं। यद्यपि एक परिवार को एक मच्छरदानी दी गयी थी, सब परिवारों को वह भी नहीं मिली। प्रत्येक परिवार को एक साबुन, कपड़े धोने के पाउडर का एक छोटा पाऊच और हेअर ऑयल का एक पाऊच दिया गया है।
शिविर में लोगों को दिन में दो बार दाल-चावल का भोजन और नाश्ते में थोड़ा चूड़ा और गुड़ दिया जाता है। लोगों को खाना लेने के लिए कम से कम 1 घण्टे लाईन में खड़ा रहना पड़ता है। अक्सर लाईन में आखिर में लगे लोगों को पानी मिली दाल ही नसीब हो पाती है। नाश्ते के लिए लगने वाली लाईन में भी लोगों को उनका हिस्सा नहीं मिलता। शाम को लैम्प जलाने के लिए मिलने वाले कैरोसिन के लिए भी कम से कम 1 घण्टा तो खड़े रहना अनिवार्य है। लेकिन लोग इन चीजों के बारे में शिकायत करते दिखाई नहीं पड़ते हैं। वे आपसे पूछते हैं कि: इस तरह का जीवन कब समाप्त होगा? वे अपने घरों को कब वापस लौटेंगे? क्या उनको कोई रास्ता मिला है? कम गुस्से लेकिन खाली निगाहों के साथ लोग इन सवालों को पूछ रहे हैं और जवाब किसी के पास नहीं है। और तब वे हत्याओं, जिन्दा जला देने, जंगलों में भागने, कई-कई दिनों तक छोटे बच्चों के साथ बिना खाये जंगलों में चलते रहने और मौत से दूर भागने की दिल दहला देने वाली कहानियाँ सुनाने लगते हैं। एक टेण्ट से दूसरे टेण्ट तक वही कहानी, वही अनुभव सिर्फ नाम और जगह बदल जाती है। अपनी ऑंखों में उतर आये ऑंसुओं के साथ वे अपने भविष्य को अपने पालक, ईसा मसीह के ऊपर छोड़ देते हैं।

बच्चे और उनकी शिक्षा
सबसे बड़ा हादसा तो बच्चों की पढ़ाई का एकाएक रुक जाना है। इस बारे में कोई सोच नहीं है कि पढ़ाई कैसे, कहाँ और कब दोबारा शुरू होगी। यहाँ उन्हीं स्कूलों में वापस पढ़ सकने के बारे में कोई बात या उम्मीद नहीं है। कुछ जगहों पर हाल ही में सिर्फ किताबें वितरित की गयी हैं लेकिन बच्चों या छोटे बच्चों को किसी चीज में लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि बड़ी संख्या में बच्चे अपने माता-पिता के साथ चिपके हुए थे और हमारी बातचीत सुन रहे थे। राहत शिविरों में कई बच्चे सोते वक्त चिल्लाते हैं या गहरी नींद में हमला करने वालों पर चीखते हैं। इसकी रिपोर्ट भी राष्ट्रीय समाचारपत्रों में छपी थी (टाइम्स ऑफ इण्डिया, 07.10.08; इफ आई रिटर्न दे विल किल मी: राईट अफैक्टेड चिल्ड्रन रिफ्यूस टू गो बैक टू देयर होम्स)। कभी-कभार वे हँसी और खेलों से माहौल को हल्का करने में मदद भी करते हैं। लेकिन उनकी पढ़ाई का क्या होने जा रहा है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। चूँकि परिवारों को शून्य से जीवन शुरू करना है, इसलिए यह बेहद संदेहपूर्ण है कि पहले स्थानों पर परिवारों द्वारा बच्चों को स्कूल भेजने के प्रयासों और मेहनत को फिर से दोहराया जाएगा।

महिलाओं के खिलाफ हिंसा और स्वास्थ्य चिंताएँ
हालाँकि नन के साथ सामूहिक बलात्कार काफी चर्चा में आ गया जो आना भी चाहिए था, पर यहाँ बलात्कार के दो अन्य मामले भी हुए थे। इस वक्त यौनिक दर्ुव्यवहार की घटनाओं की संख्या का अंदाजा लगाना संभव नहीं है। और उम्मीद करनी चाहिए कि यह संख्या कम हो। हालाँकि इससे ज्यादा चारों तरफ व्याप्त भय और आतंक की बात हमसे मिली लगभग सभी महिलाओं ने व्यक्त की। यह बात शौचादि या नहाने के लिए बाहर जाने वाली शिविर की महिलाओं के लिए सच होने के साथ-साथ शरण की तलाश में या अस्पताल या सार्वजनिक परिवहन में जाने वाली सभी महिलाओं के लिए भी सच है। मासिक स्राव के लिए सैनिटरी नैपकिन या कपड़े का इन्तजाम यहाँ नहीं है। गर्भवती महिलाओं की सेहत बुरी दशा में है। इस बीच गर्भपात भी हुए हैं।
पूरी तरह से बेघरबार दिखायी देने पर, नयी जगहों पर नये और अजनबी लोगों से संपर्क करने पर असुरक्षा बढ़ जाती है और ये उन्हें ज्यादा अरक्षित बना देती है। हालाँकि सरकार चाहती है कि हम सुरक्षित और सामान्य होने का भरोसा कर लें। उनमें से कुछ भीड़ के चिल्लाने को डर के साथ याद करती हैं ''हम तुम्हारी औरतों के साथ वहीं करेंगे जो तुमने हमारी माता के साथ किया था''(भक्तिमयी माता पर हमले के संबंध में, यह एक शिष्या थी जो लक्ष्मणानंद सरस्वती के साथ 23 अगस्त को मारी गयी थी)।
राहत शिविरों में लोगों की संख्या में कमी आने को लोगों के पुन: व्यवस्थित होने या सामान्य स्थिति बहाल होने का सूचक बताना उड़ीसा सरकार का एक फूहड़ मजाक है। जो वह ऐसे समय पर कर सकती है जब जिले का पूरा जनसांख्यिकीय विन्यास ही अपने आप भयंकर ढंग से रातो-रात बदल गया हो। सीएनएन-आईबीएन पर मुख्यमंत्री के साक्षात्कार में किये गये दावे कि राज्य में 1,000 लोगों को गिरफ्तार करके कार्रवाई कर दी गयी है, के जवाब में कोई भी सिर्फ यही कह सकता है कि यह काफी देर से उठाया गया छोटा सा कदम है। बड़े पैमाने की हिंसा के कुकर्मी हर गली और सड़क पर सीना ताने घूम रहे हैं। लगभग सभी लोगों ने हमसे बातचीन में कहा कि वस्तुत: सभी हमलावर उनके अपने गाँव या पड़ोसी गाँवों के हैं। उन्हीं पड़ोसियों के पास वापस जाने का आतंक स्पष्टतया काफी अधिक है।
सरकारी संस्थाओं को शांति बनाये रखने के लिए सुरक्षा का वातावरण निर्मित करना होगा ताकि लोग कम से कम राहत के लिए अपील करने या उन पर हुए हमलों के आपराधिक मामले दर्ज करवाने या अपने जीवन को फिर से शुरू करने के बारे में सोचना तो शुरू करें। राहत शिविरों को बुनियादी सफाई और स्वास्थ्य-रक्षा सुनिश्चित करवानी होगी क्योंकि अभी तो वे तेजी से मलेरिया, हैजा और पेट की बीमारियों के प्रजनन-स्थल बनते जा रहे हैं। इनमें आने वाले लोगों और जाने वाले लोगों का कि वे कहाँ जा रहे हैं, रिकार्ड तैयार करने की जरूरत है ताकि कुल संख्या में थोड़ी सी गिरावट पर लोगों के अपने घरों में वापस जाने के निशान के रूप दिखाने का दावा प्रशासन न कर सके। राहत शिविरों में पूर्ण सुरक्षा दिये जाने की जरूरत है क्योंकि शिविरों पर लगातार हमले हो रहे हैं, चाहे वह बम फेंकना हो या पानी के टैंक को जहरीला करना हो या स्थानीय दुर्गावाहिनी के महिला दस्तों द्वारा शिविर में आकर लोगों को डराना-धमकाना हो (टाइम्स ऑफ इण्डिया, 1.10.08, 3 बॉम्ब्स नियर जी उदयगिरी रिलीफ कैम्प)।
राहत को पड़ोसी शहरों में हजारों लोगों तक पहुँचाये जाने की जरूरत है; वे किसी भी सरकारी रिकार्ड में शामिल नहीं हैं, जैसा कि हमारे साक्षात्कार ने उद्धाटित किया है। और उन्हें भी सहायता और मदद उपलब्ध कराये जाने और एफआईआर दर्ज करने में मदद देने की जरूरत है।
उस हरेक परिवार की एफआईआर दर्ज करवाये जाने की जरूरत है जिस पर हमला हुआ है, संपत्ति लूटी गयी है, चोटें पहुँचायी गयी हैं और पशुओं का नुकसान हुआ है, वर्षभर के खाद्यान्न की लूटपाट हुई है, मानसिक यंत्रणा और निचले दर्जे का अपमान किया गया हो। अगर हम एक पूरी पीढ़ी के जीवन और भविष्य को उन लोगों द्वारा संकट में डाल दिये जाने पर वाकई गम्भीर हैं जो एक ऐसे राज्य में हिन्दु राष्ट्र स्थापित करना चाहते हैं जो वैश्विक आर्थिक शक्तियों द्वारा औद्योगीकरण की रफ्तार बढ़ाने के लिए भी उतना ही समर्पित है तो हमें बच्चों को उन्हीं के स्कूलों में जरूर वापस भेजना होगा। इन बच्चों के बारे में सरकार को क्या कहना है? अंतिम, पर कम महत्वपूर्ण नहीं बात ये है कि घरों को दोबारा बनाना होगा। जिंदगी की शुरुआत शून्य से करने की योजना बनाने के लिए भी किसी को सर पर छत जरूर चाहिए। वर्तमान साम्प्रदायिक नृशंस आक्रमण देश के सबसे निर्धनतम जिले में हुआ है; कंधमाल जिले में 75 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। अगर हम चाहते हैं कि लोग सम्मान के साथ जी सकें तो उनके लिए हमें उनके लिए आवाज बुलन्द करनी होगी और ऐसा करने की जिम्मेदारी केवल ईसाई समुदाय पर नहीं छोड़ी जानी चाहिए। इसके बावजूद यदि हम उम्मीद करें कि यह सब हो जायेगा, तब भी शायद स्थिति को ''सामान्य'' होने में अभी बरसों लग जायेंगे।

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