Thursday, October 22, 2009

जनवादी अधिकार कर्मियों, कवियों-लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों के नाम एक ज़रूरी पत्र - कात्‍यायनी

(गोरखपुर मजदूर आंदोलन के दमन के खिलाफ मजदूरों की एकजुटता और देश भर से इसे समर्थन की वजह से कल यूपी सरकार ने अपने कदम पीछे खींचते हुए सामाजिक कार्यकर्ता तपीश, प्रशांत, प्रमोद व मजदूर मुकेश को बिना शर्त रिहा कर दिया। आज गोरखपुर के लगभग दो-ढाई हजार मजदूर और आम नागरिक, छात्र, बुद्धिजी‍वी, अन्‍य संगठनों के लोग आंदोलन को समर्थन देने के लिए कलेक्‍ट्रेट पर जुटे हैं। हालांकि प्रशासन अभी मजदूरों की मांगों को मानने में हीलाहवाली कर रहा है। एक अहम बात यह दिखाई पड़ रही है कि इस पूरे इलाके की व्‍यापक मजदूर आबादी में इस आंदोलन ने हलचल पैदा कर दी है। कल से वहां पर नागरिकों ने सत्‍याग्रह भी शुरू कर दिया था। वरिष्‍ठ कवियत्री कात्‍यायनी ने नागरिक मोर्चा की ओर से एक अपील जारी की है। इसे नीचे दिया जा रहा है।)
गोरखपुर मजदूर आन्दोलन समर्थक नागरिक मोर्चा

जनवादी अधिकार कर्मियों, कवियों-लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों के नाम एक ज़रूरी पत्र

त्वरित सहयोगी कार्रवाई के लिए आपात अपील - 21 अक्टूबर 2009, गोरखपुर


प्रिय साथी,

गोरखपुर में आन्दोलनरत मजदूरों और उनके नेताओं पर, फैक्टरी मालिकों के इशारे पर प्रशासन द्वारा आतंक और अत्याचार का सिलसिला चरम पर पहुंचने के साथ हमने 'करो या मरो' के संकल्प के साथ सड़क पर उतरने का निर्णय लिया है और आज से नागरिक सत्याग्रह की शुरुआत की है। इस न्याययुद्ध में हमें आपका साथ चाहिए। इसलिए मैं यह पत्र आपको लिख रही हूं। हम हक, इंसाफ और जनवादी अधिकारों के इस संघर्ष में लाठी-गोली-जेल-मौत के लिए तैयार होकर उतरे हैं। हम आपसे इस संघर्ष में सहयोग की अपील करते हैं, भागीदारी की अपील करते हैं, क्योंकि यह आपकी भी लड़ाई है।

हम दमन, फर्जी मुकदमे कायम करके तीन नेताओं की गिरफ्तारी, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा उनकी बरबर पिटाई और नौ मजदूरों पर फर्जी मुकदमों के विरोध में नागरिक सत्याग्रह में भागीदारी की अपील करते हैं!

मजदूर नेताओं पर ''नक्सली उग्रवादी'' होने के झूठे आरोप और मालिक-प्रशासन-नेताशाही गंठजोड़ के विरुद्ध हम आरपार की लड़ाई लड़ेंगे!

हमें इस न्याययुद्ध में आपका साथ चाहिए!

- कात्यायनी


आपको शायद पता हो कि गोरखपुर की धागा एवं कपड़ा मिलों तथा प्लास्टिक बोरी के दो कारखानों के मजदूर श्रम कानूनों को लागू करवाने की मांग को लेकर विगत छ: माह से लड़ते आ रहे हैं। गोरखपुर की फैक्टरियों में श्रम कानून का कोई भी प्रावधान लागू नहीं होता और मजदूरों की हालत बंधुआ गुलामों जैसी रही है। ट्रेड यूनियन बनाने की कोशिशें गुण्डागर्दी के बल पर दबा दी जाती रही हैं। पहली बार यह गतिरोध तीन धागा एवं कपड़ा मिलों में टूटा, जब मालिक-प्रशासन-नेताशाही गंठजोड़ के खिलाफ खड़े होकर मजदूरों ने आन्दोलन शुरू किया। उनकी कुछ मांगें मान ली गयीं (जिनसे अब फिर मालिक मुकर रहे हैं) और आन्दोलन समाप्त हो गया। इसके बाद प्लास्टिक बोरी के दो कारखानों के करीब 1200 मजदूरों ने ढाई महीने पहले न्यूनतम मजदूरी सहित श्रम कानूनों के कुछ प्रावधानों को (ध्‍यान दें - कुछ प्रावधान, सभी नहीं) लागू करने के लिए आन्दोलन शुरू किया। इन कारखानों के मालिक कांग्रेसी नेता व पूर्व मेयर पवन बथवाल और उनके भाई किशन बथवाल हैं। इन कारखानों में आन्दोलन शुरू होते ही, सारे मालिक एकजुट हो गये, कई पार्टियों के चुनावी नेता भी उनके पक्ष में बयान देने लगे, प्रशासन छल-फरेब में लग गया और मालिकों के गुण्डों और पुलिस ने आतंक फैलाने का काम शुरू कर दिया।

पिछले ढाई महीनों के दौरान फैक्टरी मालिक और प्रशासन कई बार अपने वायदों से मुकरे। फिर कई बार की वार्ताओं और चेतावनियों के बाद विगत 15 अक्टूबर को मजदूर निर्णायक संघर्ष के लिए कचहरी परिसर में भूख हड़ताल पर बैठे। इसके बाद बर्बर पुलिसिया ताण्डव की शुरुआत हुई। मजदूरों को बलपूर्वक धरनास्थल से हटा दिया गया। महिला मजदूरों को पुरुष पुलिसकर्मियों ने घसीट-घसीटकर और ऊपर उठाकर धरनास्थल से दूर फेंक दिया। फिर 'संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा' (जिसके बैनर तले आन्दोलन चल रहा है) के तीन नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं - तपीश मैंदोला, प्रशांत मिश्र और प्रमोद कुमार को और मुकेश कुमार नाम के एक मजदूर को एडीएम (सिटी) कार्यालय में बातचीत के बहाने बुलाया गया और फिर कैण्ट थाने ले जाकर स्वयं सिटी मजिस्ट्रेट अरुण, एडीएम (सिटी) अखिलेश तिवारी और कैण्ट थाने के इंस्पेक्टर विजय सिंह ने उन्हें लात-घूंसों से बर्बरतापूर्वक पीटा। तपीश और प्रमोद बार-बार कहते रहे कि प्रशांत दिल के गंभीर रोगी हैं, अत: उनके साथ मारपीट न की जाये, पर पुलिस अधिकारी अपनी पशुता से बाज नहीं आये। प्रशांत का इलाज दिल्ली के 'एम्स' और 'मैक्स' संस्थानों में चल रहा है। फिर इन चारों लोगों पर शान्तिभंग और 'एक्स्टॉर्शन' की धाराएं लगाकर जेल भेज दिया गया। जेल में भी बार-बार आग्रह के बावजूद न तो इन सबका मेडिकल हुआ, न ही प्रशांत को कोई डाक्टरी सुविधा मुहैया करायी गयी। इन्हें जानबूझकर अबतक जेल में रखा गया है ताकि मारपीट के मेडिकल साक्ष्य जुटाये न जा सकें और इनका मनोबल तोड़ दिया जाये। प्रशासन ने अब गैंग्स्टर एक्ट लगाने की भी पूरी तैयारी कर रखी है। प्रशासन की तैयारी कुछ मार्क्‍सवादी साहित्य, बिगुल मजदूर अखबार और पेन ड्राइव आदि की बरामदगी दिखाकर ''माओवादी'' बताते हुए संगीन धाराएं लगाने की थी और कुछ अधिकारियों ने मीडिया में इस आशय का बयान भी दिया। लेकिन फिर कुछ पत्रकारों द्वारा ऐसे कदम के उल्टा पड़ जाने के खतरे के बारे में चेतावनी देने तथा व्यापक मजदूर आक्रोश को देखते हुए प्रशासन ने फिलहाल हाथ रोक रखा है। इन चार लोगों के अतिरिक्त अन्य नौ मजदूरों पर भी फर्जी मुकदमे दर्ज किये गये हैं।

यह बताना जरूरी है कि स्थानीय 'चैम्बर ऑफ कॉमर्स', अलग-अलग फैक्टरी मालिक और पुलिस एवं नागरिक प्रशासन के अधिकारी पिछले ढाई महीने से मीडिया में इस आशय का बयान देते रहे हैं कि इस मजदूर आन्दोलन में ''बाहरी तत्व'', ''नक्सली'' और ''माओवादी'' सक्रिय हैं। स्थानीय भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने भी कई ऐसे बयान जारी किये। मामले को साम्प्रदायिक रंग देते हुए उन्होंने यह भी दावा किया कि इस आन्दोलन में माओवादियों के अतिरिक्त चर्च भी सक्रिय है। इस तरह मालिक-प्रशासन-नेताशाही के गंठजोड़ ने मीडिया के जरिये दुष्प्रचार करके मजदूर आन्दोलन को कुचल देने के लिए महीनों पहले से माहौल बनाना शुरू कर दिया था।

यहां यह बताना जरूरी है कि जिन्हें ''नक्सली'', ''आतंकवादी'' और ''माओवादी'' कहा जा रहा है, उनमें से दो - प्रशांत और प्रमोद गोरखपुर और पूर्वांचल के निकटवर्ती इलाकों में छात्र-युवा संगठनकर्ता के रूप में सात-आठ वर्षों से काम कर रहे हैं और नागरिकों के लिए सुपरिचित चेहरे हैं। छात्र-युवाओं के आन्दोलनों के अतिरिक्त शराबबंदी आन्दोलन, सफाई कर्मचारियों के आन्दोलन और सिरिंज फैक्टरी मजदूरों के आन्दोलनों में वे पहले भी अग्रणी भूमिका निभा चुके हैं। तीसरे साथी तपीश मैंदोला दिल्ली-गाजियाबाद-नोएडा में मजदूरों के बीच काम करने के अतिरिक्त श्रम मामलों के विशेषज्ञ लेखक-पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के मजदूरों के गुमशुदा बच्चों पर पिछले वर्ष प्रकाशित उनकी रिपोर्ट राष्ट्रीय अखबारों और प्रमुख चैनलों पर चर्चित हुई थी और दिल्ली हाई कोर्ट तथा इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दो अलग-अलग मामलों पर अपने निर्णयों में उक्त रिपोर्ट का हवाला दिया था। 'नरेगा' में भ्रष्टाचार पर प्रकाशित उनकी सर्वेक्षण रिपोर्ट भी काफी चर्चित रही थी। इस समय तपीश मैंदोला मैनपुरी, इलाहाबाद और मऊ में नरेगा के मजदूरों को संगठित करने का काम कर रहे हैं। अब इन लोगों पर गोरखपुर के प्रशासक और चुनावी नेता ''आतंकवादी'' का लेबल चस्पां कर रहे हैं। यह व्यवहार एक बार फिर यह साबित कर रहा है कि सबसे बड़ा आतंकवाद तो वास्तव में राजकीय आतंकवाद ही होता है। यह साबित करता है कि ''नक्सलवाद तो बहाना है, जनता ही निशाना है।'' लोकतांत्रिक प्रतिरोध के सारे विकल्प जब जनता से छीन लिये जाते हैं तो उग्रवादी विकल्प चुनने के लिए कुछ लोगों का प्रेरित होना स्वाभाविक होता है।

फिलहाल गोरखपुर में फैक्टरी मालिकों के इशारे पर प्रशासन का जो नंगा आतंकराज चल रहा है, उसके खिलाफ सात कारखानों के मजदूर धरना और क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठे हैं। तपीश, प्रशांत, प्रमोद और मुकेश जेल में बंद हैं। मजदूरों की मांगें स्पष्ट हैं : (1) गिरफ्तार नेताओं को बिना शर्त रिहा करो और फर्जी मुकदमे हटाओ (2) मारपीट के दोषी अधिकारियों के विरुद्ध जांच और कानूनी कार्रवाई शुरू करो, (3) श्रम कानूनों को लागू कराने का ठोस आश्वासन दो।

इस आन्दोलन के पक्ष में हमने भी आर-पार की लड़ाई के लिए सड़क पर उतरने का निश्चय किया है और हमारी भी वही मांगें हैं जो मजदूरों की हैं। गोरखपुर पहुंचने के बाद आज से हम नागरिक सत्याग्रह की शुरुआत कर रहे हैं। इसके अन्तर्गत दो दिनों तक लोक आह्नान के लिए शहर में पदयात्रा एवं जनसभाएं करने के बाद हम आन्दोलनरत मजदूरों के धरना और क्रमिक भूख हड़ताल में शामिल हो जायेंगे। यदि प्रदेश शासन और प्रशासन के कानों तक फिर भी आवाज नहीं पहुंची तो दो दिनों के क्रमिक भूख हड़ताल के बाद हम आमरण भूख हड़ताल शुरू कर देंगे। हम फर्जी मुकदमों, गिरफ्तारी और दमन का सामना करने के लिए तैयार हैं। इस ठण्डे, निर्मम और गतिरोध भरे समय में, व्यापक जनसमुदाय के अन्तर्विवेक को जागृत करने और आततायी सत्ता को चेतावनी देने के लिए यदि आमरण भूख हड़ताल करके प्राण देना जरूरी है, तो हम इसके लिए तैयार हैं और हम अपनी इस भावना को आप तक सम्प्रेषित करते हुए आपसे हर सम्भव सहयोग की अपील करते हैं।

इस आंदोलन की तमाम खबरों की जानकारी आपको http://bigulakhbar.blogspot.com पर मिल सकती है। आप इन नंबरों पर संपर्क भी कर सकते हैं:

कात्‍यायनी - 09936650658, सत्‍यम - 09910462009, संदीप - 09350457431

ईमेल: satyamvarma@gmail.com, sandeep.samwad@gmail.com

आप क्या कर सकते हैं :

- दिल्ली, लखनऊ, लुधियाना और देश के अन्य शहरों से साथीगण गोरखपुर आकर इस नागरिक सत्याग्रह में शामिल हो रहे हैं। हम आपका भी आह्वान करते हैं।

- हमारा आग्रह है कि नागरिक अधिकारकर्मियों की टीमें यहां आकर स्थितियों की जांच-पड़ताल करें, जन-सुनवाई करें, रिपोर्ट तैयार करें और शासन तक न्याय की आवाज़ पहुंचायें।

- हमारा आग्रह है कि आप अपने-अपने शहरों में, विशेष तौर पर, दिल्ली, लखनऊ और उत्तर प्रदेश के शहरों में इस मसले को लेकर विरोध प्रदर्शन आयोजित करें।

- हमारा आग्रह है कि आप उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, श्रम मंत्री, श्रम सचिव और गोरखपुर प्रशासन के अधिकारियों को ईमेल, फैक्स, फोन, पत्र और टेलीग्राम के द्वारा अपना विरोध पत्र भेजें और हस्ताक्षर अभियान चलाकर ज्ञापन दें। ये सभी पते, ईमेल पता, फैक्स नं. आदि साथ संलग्न हैं।

साथियो,

गतिरोध और विपर्यय से भरे दिनों में वैचारिक मतभेद अक्सर पूर्वाग्रह एवं असंवाद की शक्त अख्तियार कर लेते हें। अवसरवादी तत्व अक्सर अपने निहित स्वार्थी राजनीतिक खेल और कुत्सा प्रचारों से 'जेनुइन' परिवर्तनकामी जमातों के बीच विभ्रमों-विवादों-पूर्वाग्रहों को जन्म देते और बढ़ाते रहते हैं। हम समझते हैं कि असली कसौटी सामाजिक व्यवहार को बनाया जाना चाहिए। न्याय और अधिकार के 'जेनुइन' और ज्वलंत मुद्दों पर जारी संघर्षों में हमें जरूर कन्‍धे से कन्धा मिलाकर साथ खड़े होना चाहिए, तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद। यही भविष्य की व्यापक एकजुटता की दिशा में पहला ठोस कदम होगा।

गोरखपुर में पुलिसिया आतंक राज की जो बानगी देखने को मिली है, वह भावी राष्ट्रीय परिदृश्य की एक छोटी झलकमात्र है। आपातकाल की पदचापें एक बार फिर दहलीज के निकट सुनायी दे रही हैं। सत्ता जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की तैयारी कर रही है। हम उस युद्ध की चुनौती की अनदेखी नहीं कर सकते। हमें संघर्ष के मुद्दों पर साझा कार्रवाइयों की प्रक्रिया तेज करनी होगी। हमें नागरिक स्वतंत्रता और जनवादी अधिकारों के आन्दोलन को सशक्त जनान्दोलन का रूप देने में जुट जाना होगा। हमें साहस के साथ सड़कों पर उतरकर सत्ता की निरंकुश स्वेच्छाचारिता को चुनौती देनी होगी। हमें साथ आना ही होगा। एकजुटता बनानी ही होगी।

इसी आह्नान और क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

(कात्यायनी)

संयोजक

Tuesday, October 20, 2009

गोरखपुर की घटना के विरोध में कल यूपी भवन, दिल्‍ली में प्रदर्शन

(गोरखपुर के मजदूर आंदोलन के दमन और सामाजिक कार्यकर्ताओं को 'नक्‍सली' बताने की कार्रवाई पर हर तबके की प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं। इसी घटना के विरोध में कल दिल्‍ली में उत्तरप्रदेश भवन पर प्रदर्शन किया जा रहा है। बड़ी संख्‍या में मजदूर, छात्र, युवा, बुद्धिजीवी, नागरिक और मानवाधिकार कर्मी इस घटना के विरोध में जुट रहे हैं। तमाम इंसाफपसंद लोगों से एक अपील भी जारी की गई है...)

गोरखपुर में पुलिस द्वारा मज़दूर आंदोलन के दमन के विरोध में
यू.पी. भवन पर प्रदर्शन में शामिल हों
21 अक्‍टूबर, 2009, सुबह 11 बजे
उत्तर प्रदेश भवन,
4, सरदार पटेल मार्ग, चाणक्‍यपुरी, दिल्‍ली


साथियो, हमने आपको गोरखपुर में मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए तीन युवा कार्यकर्ताओं को फर्जी मामलों में गिरफ्तार किए जाने की सूचना दी थी, इस मामले में 9 और मजदूरों पर झूठे मुकदमे दायर किए गए हैं। जिला प्रशासन और पुलिस, फैक्‍ट्री मालिकों के भाड़े के गुण्‍डों की तरह काम कर रहे हैं। जिला प्रशासन थैलीशाहों के पक्ष में बेशर्मी की हद पार कर चुका है। 15 अक्‍टूबर को बातचीत के बहाने एडीएम (सिटी) के कार्यालय में बुलाकर तीन वरिष्‍ठ प्रशासनिक अधिकारियों - एडीएम (सिटी), सिटी मजिस्‍ट्रेट और कैंट इंस्‍पेक्‍टर ने खुद इन श्रमिक नेताओं को बुरी तरह पीटा। उन्‍होंने दिल की गंभीर बीमारी से पीड़ि‍त एक युवा कार्यकर्ता तक को नहीं बख्‍शा और उनके साथियों के विरोध और अपील के बावजूद बर्बरता से उनकी पिटाई की गई।
इन सभी को 22 अक्‍टूबर तक जमानत देने से इंकार कर दिया गया है, और पुलिस ''गैंग्‍सटर एक्‍ट'' लगाकर उन्‍हें लंबे समय तक जेल में बंद रखने की योजना बना रही है। यही नहीं, पुलिस-प्रशासन-मालिक गठजोड़ इन युवा कार्यकर्ताओं को ''नक्‍सलवादी'' और ''आतंकवादी'' घोषित करने पर तुला हुआ है और उन्‍हें परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने की धमकियां दी जा रही हैं।
मालिकों की शह पर पुलिसिया आतंकराज कायम कर दिया गया है।
मज़दूर आंदोलन पर इस हमले के विरोध में मज़दूरों, विभिन्‍न संगठनों के कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्रों के प्रदर्शन में शामिल हों।
गोरखपुर में चल रहे इस आंदोलन के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप इस ब्‍लॉग को देख सकते हैं: bigulakhbar.blogspot.com

Sunday, October 18, 2009

यूपी सरकार सामाजिक कार्यकर्ताओं को नक्‍सली बता रही है

(यूं तो गोरखपुर में मजदूर आंदोलन की वजह से हलचल पिछले काफी समय से चल रही थी लेकिन ताजा घटनाक्रम ने हालात ज्‍यादा सरगर्म कर दिए हैं। मजदूरों के डटे रहने से तिलमिलाए उद्योगपति, राजनेताओं (वहां के सांसद यो‍गी आदित्‍यनाथ की अगुवाई में) और प्रशासन ने मिलकर अब दमन का हथकंडा अपनाया है। अनशन पर बैठी महिलाओं तक को पुलिस ने पीट कर हटाया वहीं 4 नेतृत्‍वकारी लोगों को बुरी तरह मार-पीट कर और 'नक्‍सली' होने समेत कई झूठे आरोप लगाकर जेल में डाल दिया है। इस घटना ने सिर्फ मजदूरों ही नहीं बल्कि शहर के छात्रों-युवाओं, नागरिकों और बुद्धिजीवियों को भी आक्रोशित किया है। मजदूरों की जायज मांगों को मानने की बजाय मालिकों की शह पर हुए इस दमनपूर्ण कार्रवाई से सतह के नीचे गुस्‍सा पैदा हो रहा है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्‍या जीने लायक मजदूरी मांगना इस देश में इतना बड़ा अपराध है। जायज मांगों को न मानकर सरकार क्‍या इस व्‍यवस्‍था पर उठते जा रहे विश्‍वास को खुद ही विस्‍तारित नहीं कर रही है। गोरखपुर के ताजा हालात की रिपोर्ट नीचे दी जा रही है।)


गिरफ्तार साथियों ने बताया कि 15 अक्टूबर की रात ज़िला प्रशासन ने तीनों नेताओं को बातचीत के बहाने एडीएम सिटी के कार्यालय में बुलाया था जहां खुद एडीएम सिटी अखिलेश तिवारी, सिटी मजिस्ट्रेट अरुण और कैंट थाने के इंस्पेक्टर विजय सिंह ने अन्य पुलिसवालों के साथ मिलकर उन्हें लात-घूंसों से बुरी तरह मारा। बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए ज़िले के इन वरिष्ठ अफसरों ने युवा कार्यकर्ता प्रशांत को भी बुरी तरह मारा जबकि वह और अन्य साथी बार-बार कह रहे थे कि वे हृदयरोगी हैं और पिटाई उनके लिए घातक हो सकती है। ज़िला प्रशासन फैक्ट्री मालिकों के हाथों किस कदर बिक चुका है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सका है कि जिन अफसरों पर कानून लागू कराने की ज़िम्मेदारी है वे खुद ऐसी अँधेरगर्दी पर आमादा हैं।
वार्ता के बहाने एडीएम सिटी के कार्यालय में बुलाए जाते ही इन चारों साथियों के मोबाइल फोन छीनकर स्विच ऑफ कर दिए गए और सारे कानूनों और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को ताक पर धरकर देर रात जेल भेजे जाने तक उन्हें किसी से बात करने की इजाज़त नहीं दी गयी। जेल जाने के तीसरे दिन 17 अक्टूबर की शाम को जब कुछ साथी जेल में उनसे मिल सके, तब उन्होंने इन घटनाओं की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि बार-बार कहने के बावजूद प्रशासन ने उनका मेडिकल नहीं कराया। प्रशान्त दिल की गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं जिसका इलाज आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़, दिल्ली और मैक्स देवकी देवी हार्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली से चल रहा है। यह बताने पर भी उन्हें चिकित्सा सुविधा नहीं दी गयी और दवाएं तक नहीं मंगाने दी गयीं। इसके बारे में कहने पर एडीएम सिटी ने उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां दीं। उन्हें बार-बार आन्दोलन से अलग हो जाने के लिए धमकियां दी गईं।
इसके बाद उन्हें कैंट थाने ले जाया गया जहां उनके खिलाफ शांति भंग करने की धाराओं के अतिरिक्त ”एक्सटॉर्शन“ (जबरन वसूली) के आरोप में धारा 384 के तहत भी मुकदमा दर्ज कर लिया गया। इसके अगले दिन मालिकों की ओर से इन तीन नेताओं के अलावा 9 मजदूरों पर जबरन मिल बंद कराने, धमकियां देने जैसे आरोपों में एकदम झूठा मुकदमा दर्ज कर लिया गया।

जिला प्रशासन एकदम नंगई के साथ मिल‍मालिकों के पक्ष में काम कर रहा है। मजदूरों पर फर्जी मुकदमे लगाए जा रहे हैं जबकि खुद मालिकों के गुंडे मजदूरों को डराने-धमकाने का काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं, मजदूर बस्तियों में मकानमालिकों को धमकाया जा रहा है कि वे किराए पर रहने वाले मजदूरों से कमरा खाली करा लें और दुकानकारों को मजदूरों को उधार पर खाने-पीने का सामान देने तक से मना किया जा रहा है।

ऐसे में ज़रूरी है कि गोरखपुर में पूँजी, प्रशासन और घोर मज़दूर-विरोधी सांप्रदायिक शक्तियों (भाजपा सांसद योगी आदित्‍यनाथ) की सम्मिलित ताकत का अकेले मुकाबला कर रहे मज़दूरों और छात्र-युवा कार्यकर्ताओं को हम अपना हर संभव सहयोग और समर्थन प्रदान करें।

Sunday, October 11, 2009

मानवाधिकार आंदोलन की अपूरणीय क्षति है प्रो. के. बालगोपाल का देहांत

प्रो के.बालगोपाल नहीं रहे। मानवाधिकारों और राज्‍यसत्ता के दमन के खिलाफ अनवरत संघर्ष करने वाले प्रो. बालगोपाल का नाम सलवा जुडूम पर उनकी बेहद सटीक विश्‍लेषणात्‍मक रिपोर्ट के बाद पता चला था। प्रो. बालगोपाल ने दर्जनों फर्जी मुठभेड़ों और पुलिस दमन के खिलाफ लंबी लड़ाइयां लड़ीं। उन्‍होंने राज्‍यसत्ता के दमन के खिलाफ आवाज उठाने के साथ-साथ 'आतंकवाद' की राह पर चल रहे नक्‍सली आंदोलन की सोच पर भी सवाल उठाएं। आज के हालातों में प्रो. बालगोपाल का अचानक जाना हमारे देश के मानवाधिकार आंदोलन की अपूरणीय क्षति है और आंदोलन ने अपना एक विलक्षण सहयोद्धा और वैचारिक मार्गदर्शक खो दिया है। सलवा जुडूम पर उनकी चर्चित रिपोर्ट और भारत के राजनीतिक आंदोलन पर एक लेख पढ़ें।

Thursday, October 8, 2009

फ्रांसिस इंदवार की हत्‍या और नक्‍सलवाद

फ्रांसिस इंदवार की हत्‍या ने ऐसे समय में नक्‍सलवाद की सोच को सवालों के केंद्र में ला दिया है जब सरकार इनसे निपटने की तैयारियों को अमलीजामा पहना रही है। एक साधारण कर्मचारी की हत्‍या को किसी भी लिहाज से कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। एकदम साफ शब्‍दों में इसे नृशंस हत्‍या कहना ज्‍यादा ठीक होगा।
नक्‍सली राजनीति सामाजिक परिवर्तन के दीर्धगामी और श्रमसाध्‍य रास्‍ते को छोड़कर अपने उद्भव से ही शोटकर्ट के रास्‍ते को पकड़ चुकी थी। बल्कि कहना चाहिए कि सही रास्‍ते उसे कभी ठीक नहीं लगे। इस प्रकार की हत्‍याओं से सबसे ज्‍यादा नुकसान जहां जनआंदोलनों को होगा वहीं इनसे जुड़े मानवाधिकार और नागरिक अधिकार के लिए लड़ने वाले लोगों को हो सकता है। ऐसे समय में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई को महज आतंकवादी कार्रवाई में तब्‍दील कर देने वाली नक्‍सली राजनीति से अलग करके सामने लाने की जरूरत आज पहले से कहीं ज्‍यादा है।

Monday, August 10, 2009

हाल अच्‍छा नहीं है मीडियाकर्मियों की सेहत का

(मीडिया स्‍टडीज ग्रुप काफी लंबे समय से मीडियाकर्मियों से जुड़े विभिन्‍न मुद्दों पर अध्‍ययन और सर्वेक्षण कर रहा है। इसकी ताजा रिपोर्ट में मीडियाकर्मियों के स्‍वास्‍थ्‍य के पहलू पर नजर डाली गई है। इस रिपोर्ट को जनसत्ता (साभार) में छपे अनुसार प्रस्‍तुत कर रहा हूं...)

मीडियाकर्मी यूं तो काम के तनाव के कारण कई तरह की बीमारियों का सामना कर रहे हैं लेकिन मीडिया क्षेत्र में सर्वाधिक रोगी हड्डी एवं रीढ़ तथा मधुमेह से संबंधित समस्‍याओं के है। यदि पत्रकारों को लेकर किए गए एक अध्‍ययन पर गौर करें तो 14.34 फीसदी पत्रकारों को हड्डी एवं रीढ़ में तकलीफ का सामना करना पड़ रहा है जबकि 13.81 फीसदी मीडियाकर्मी मधुमेह से पीडि़त हैं।
मीडिया स्टडीज ग्रु ने पत्रकारों की कार्य स्थिति तथा जीवन स्‍तर का पता लगाने के उद्देश्‍य से 13 जुलाई 2008 से 13 जून 2009 के बीच एक सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण के अनुसार 13.50 फीसदी हृदय एवं रक्तचाप संबंधी रोगों से पीड़ि‍त हैं, दंत रोग से पीडि़त मीडियाकर्मियों की संख्‍या 11.39 फीसदी है।

वरिष्‍ठ पत्रकार अनिल चमड़ि‍या और शोधार्थी देवाशीष प्रसून की टीम द्वारा किए गए अध्‍ययन में कहा गया है कि 13.08 प्रतिशत मीडियाकर्मी उदर रोगों से पीडि़त हैं। 11.81 फीसदी नेत्र रोग तथा 2.10 प्रतिशत मीडियावाले कमजोरी थकान और सिरदर्द जैसी समस्याओं से परेशान हैं। 48.06 प्रतिशत मीडियाकर्मियों का यह कहना है कि उन्हें उपचार के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है जबकि 51.94 फीसदी मीडियाकर्मियों को इलाज के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता।
सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि 61.27 प्रतिशत मीडियाकर्मियों के खाने पीने का कोई निर्धारित समय नहीं है जबकि 17.61 फीसदी मीडियाकर्मियों ने अपने भोजन का समय निर्धारित कर रखा है।

अध्ययन के अनुसार 54.17 फीसदी मीडियाकर्मी अपनी नौकरी के मामले में असुरक्षा महसूस करते हैं लेकिन 45.82 प्रतिशत अपनी नौकरी को सुरक्षित मानते हैं। 12.59 फीसदी मीडियाकर्मियों ने अब तक छह या इससे अधिक जगहों पर अपनी सेवाएं दी हैं जबकि 66.43 प्रतिशत मीडियावाले दो से पांच नौकरियां बदल चुके हैं। एक ही संस्थान या संगठन में काम करने वालों का प्रतिशत 28.8 है

दफ्तर तक के सफर को देखें तो 56.25 प्रतिशत मीडियाकर्मी 10 किमी या इससे अधिक दूरी तय कर अपने कार्यालय पहुंचते हैं जबकि 21.53 फीसदी मीडियाकर्मियों को इसके लिए 5-10 कि मी तक की दूरी तय करनी पड़ती है। 1-5 किमी तक की दूरी तय करने वालों का प्रतिशत 10.06 है जबकि कार्यालय आने के लिए एक से भी कम किमी की दूरी तय करने वालों का प्रतिशत 4.17 है। 16.32 फीसदी मीडियाकर्मी अपने दफ्तर पहुंचने के लिए सिर्फ मेट्रो का इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि 11.58 फीसदी को मेट्रो के अलावा दूसरे परिवहन साधनों का भी इस्तेमाल करना पड़ता है। कार से दफ्तर पहुंचने वालों का प्रतिशत 13.16 है जबकि 18.42 फीसदी मीडियाकर्मी स्कूटर या मोटरसाइकिल से कार्यालय पहुंचते हैं। 13.68 फीसदी मीडियाकर्मी तिपहिए से दफ्तर पहुंचते हैं 10 फीसदी बस के जरिए कार्यालय पहुंचते हैं।
दिन की पाली में काम करने वाले मीडियाकर्मियों की संख्‍या 52.35 फीसदी है जबकि 21.76 प्रतिशत शाम के समय काम करते हैं। 14.71 फीसदी मीडियाकर्मियों का काम रात के समय निश्चित होता है और 11.18 फीसदी सुबह की पाली में अपने काम को अंजाम देते हैं।
र्वेक्षण के अनुसार 61.63 फीसदी मीडियाकर्मियों का पसंदीदा क्षेत्र प्रिंट मीडिया है जबकि टेलीविजन 22.09 प्रतिशत की पसंद है। 4.65 प्रतिशत मीडियाकर्मी खुद को किसी समाचार एजेंसी में काम करने का इच्छुक बताते हैं। 54.55 प्रतिशत मीडियाकर्मी अपने काम से संतुष्ट हैं जबकि 45.45 प्रतिशत असंतुष्ट 65.51 फीसदी मीडियाकर्मियों को प्रतिदिन 8 घंटे से अधिक समय तक काम करना पड़ता है जबकि 23.65 फीसदी ने कहा कि उनसे 8 घंटे ही काम लिया जाता है। 12.84 फीसदी मीडियाकर्मियों ने कहा कि उन्हें 8 घंटे से भी कम समय तक काम करना पड़ता है। 71.53 फीसदी मीडियाकर्मियों को एक दिन का साप्ताहिक अवकाश मिलता है और 17.36 प्रतिशत को दो दिन का साप्ताहिक अवकाश मिलता है जबकि 11.11 प्रतिशत मीडियाकर्मी ऐसे हैं जिन्हें कोई अवकाश ही नहीं मिलता। 4.41 फीसदी मीडियाकर्मी पिछले पांच साल से अस्‍वस्‍थ महसूस कर रहे हैं। 6.62 फीसद की पिछले तीन साल से तबियत अच्‍छी नहीं है। सर्वेक्षण के लिए पत्रकारों से ईमेल के जरिए सवाल पूछे गए जिन पर प्रतिक्रिया देने वालों में 83.67 फीसद पुरुष तथा 16.33 फीसद महिलाएं हैं।

Tuesday, August 4, 2009

'चरणदास चोर' पर रोक

छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने हबीब तनवीर के नाटक 'चरणदास चोर' पर रोक लगा दी है। बेशक इसके खिलाफ विरोध दर्ज कराया जाना चाहिए। क्‍या यह सिर्फ संयोग है कि छत्तीसगढ़ में सरकार के पक्ष में वैचारिक-सांस्‍कृतिक माहौल बनाये जाने के शुरू किए गए प्रयासों (देखें आशुतोष का लेख) के साथ ही इस नाटक पर रोक लगाने की कार्रवाई हुई है। कहीं यह राज्‍य में जारी सरकारी दमन और सलवा जुडूम की हो रही आलोचनाओं से ध्‍यान भटकाने की साजिश या वैचारिक प्रत्‍याक्रमण तो नहीं है। जो भी हो भाजपा की रीति-नीति को देखते हुए इसे अस्‍वाभाविक बिलकुल नहीं माना जा सकता है।
लेकिन अक्‍सर ऐसी घटनाओं के बाद तात्‍कालिक प्रतिक्रियाओं के बाद सब शांत हो जाता है। एक तय ढंग-ढर्रे के हिसाब से ऐसी घटनाओं के बाद कुछ रस्‍मी विरोध की कवायदें, अखबारों में कुछ लेख, विरोध स्‍वरूप नाटक का जगह-जगह मंचन। ठीक है ये सब किया जाना चाहिए लेकिन इसी तक सीमित होकर रह जाना एक 'झूठी' प्रगतिशीलता के सिवा कुछ नहीं है जो दुर्भाग्‍य से आजकल बहुतायत और फैशन में है। मुझे लगता है कि ऐसी घटनाओं पर तात्‍कालिक प्रतिक्रियाओं के साथ-साथ ऐसे दीर्घकालिक काम किए जाने की जरूरत हैं जो सांप्रदायिकता के खिलाफ जनमानस तैयार करें। हबीब साहब का नया थियेटर का एक हद तक का प्रयोग भी सिखाता है कि आम जनता के जनजीवन की बातों, चीजों को उठाकर प्रगतिगामी विचारों को किस प्रकार लोकप्रिय कला माध्‍यमों से पहुंचाया जा सकता है। ऐसे नाटकों पर रोक लगना न तो पहली कोशिश है न आखिरी। इसलिए ऐसी घटनाओं पर तात्‍कालिक रोष-प्रतिक्रिया के अलावा रचनात्‍मक कामों और संस्‍थाओं को खड़ा करने के बारे में क्‍या सोचे जाने की जरूरत नहीं है?

Sunday, July 26, 2009

भूमंडलीकरण की नयी चुनौतियों का सामना नये रूपों से करना होगा

भूमंडलीकरण के दौर में देश की विशाल कामगार आबादी के सामने आज खड़े हुए चौतरफा संकटों पर देशभर से मजदूर आंदोलन से जुड़े लोगों के बीच एक काफी विचारोत्तेजक बातचीत हुई। मौका था अरविंद के निधन के एक साल पूरे होने पर आयोजित प्रथम अरविंद स्‍मृति संगोष्‍ठी का, जो 24 जुलाई को गांधी शांति प्रतिष्‍ठान, दिल्‍ली में संपन्‍न हुई। अरविंद के निधन का एक साल पूरा हो गया है। मात्र 44 साल के अपने छोटे लेकिन बेहद सरगर्म जीवन जीने वाले अरविंद इस देश में सामाजिक बदलाव की लड़ाई के अविचल योद्धा थे। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। साथ ही छात्र-युवा और मजदूर आन्दोलन में वे लगभग डेढ़ दशक से सक्रिय थे। इस संगोष्‍ठी में आज के मजदूर आंदोलन की चुनौतियों से जुड़े कुछ अहम बुनियादी सवाल उभर कर सामने आये। इस संगोष्‍ठी की मुख्‍य बातों को संक्षेप में प्रस्‍तुत किया जा रहा है...

प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी सम्‍पन्‍न

'भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप' विषय पर यहां आयोजित संगोष्ठी में विभिन्न क्षेत्रों से आए वक्ताओं ने परंपरागत ट्रेड यूनियन नेतृत्व को मजदूर आंदोलन के बिखराव और कमजोरी के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए नई क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें बनाने तथा बहुसंख्यक असंगठित मजदूर आबादी को संगठित करने की जरूरत पर जोर दिया।
'दायित्वबोध' पत्रिका के संपादक अरविन्द सिंह की पहली पुण्यतिथि के मौके पर आयोजित प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में ट्रेड यूनियन संगठनकर्ताओं, बुध्दिजीवियों तथा राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि एक और नव-उदारवादी नीतियों के प्रभाव से मजदूर वर्ग के आर्थिक-राजनीतिक तथा जनवादी अधिकारों में लगातार कटौती हो रही है दूसरी ओर मजदूर वर्ग अपने तात्कालिक एवं आंशिक हितों की लड़ाई को, आर्थिक माँगों एवं सीमित जनवादी अधिकारों की लड़ाई को भी प्रभावी ढंग से संगठित नहीं कर पा रहा है।
'आह्वान' पत्रिका के संपादक और मज़दूर संगठनकर्ता अभिनव सिन्हा ने अपने आधार वक्तव्य में कहा कि इक्कीसवीं सदी में पूँजी की कार्यप्रणाली में कई बुनियादी ढाँचागत बदलाव भी आये हैं। ऐसे में मजदूर आंदोलन को भी प्रतिरोध के तौर-तरीकों और रणनीति में कुछ बुनियादी बदलाव लाने होंगे। स्वचालन और अन्य नयी तकनीकों के सहारे पूँजी ने अतिलाभ निचोड़ने के नये तौर-तरीके विकसित कर लिये हैं। बड़े-बड़े कारख़ानों में मज़दूरों की भारी आबादी के स्थान पर कई छोटे-छोटे कारख़ानों में मज़दूरों की छोटी-छोटी आबादियों को बिखरा देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे कारख़ानों में अधिकांश मज़दूर ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल होते हैं या पीसरेट पर काम करते हैं। कम मज़दूरी देकर स्त्रियों और बच्चों से काम कराया जाता है। उन्होंने कहा कि देश की कुल मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक क्षेत्र के हैं जो किसी भी ट्रेड यूनियन में संगठित नहीं हैं। इस आबादी को संगठित करना आज के क्रान्तिकारी आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। इस आबादी को संगठित करने के लिए कारखानों में ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में जाकर भी काम करना होगा। वेतन और भत्तों को बढ़ाने के अतिरिक्त राजनीतिक माँगों के लिए भी इन मज़दूरों के आंदोलन संगठित करने होंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय के डा. प्रभु महापात्र ने मज़दूर वर्ग के बिखराव की चर्चा करते हुए कहा कि आज उन्हें संगठित करने के नये तरीके तलाशने होंगे। उन्होंने श्रम कानून बनाए जाने के इतिहास की चर्चा करते हुए कहा कि इन कानूनों में राज्य अपने आपको मज़दूर और पूँजीपति के बीच में स्वयं को एक निष्पक्ष मध्यस्थ दिखलाता है लेकिन वास्तव में उसकी पक्षधरता पूँजी के साथ होती है। डा. महापात्र ने कहा कि असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को संगठित करने के साथ-साथ संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बीच भी काम करना होगा।
सीपीआई-एमएल (न्यू प्रोलेतारियन) के प्रो. शिवमंगल सिध्दान्तकर ने कहा कि मज़दूर वर्ग आज पस्तहिम्मत है। लेकिन वह फिर से लड़ने की शुरुआत कर रहा है। ज़रूरत इस बात की है कि देश के पैमाने पर बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताकतें एक मंच पर आएं और मज़दूरों की लड़ाई को नेतृत्व दें जिससे कि मज़दूर आबादी में फैली हार की मानसिकता को दूर किया जा सके।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता शेख अंसार ने कहा कि यह बात बिल्कुल सही है कि आज मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में काम करना और उनके पेशागत संगठन और ट्रेड यूनियन बनाने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने यही काम आज से दो दशक पहले शुरू कर दिया था और आज वहाँ तीन ऐसी बस्तियाँ हैं जो स्वयं मज़दूरों ने बसाई हैं, उनके अपने अस्पताल और अपनी एंबुलेंस और स्कूल तक हैं। इस प्रकार से अपनी संस्थाएँ और समानान्तर शक्ति तैयार करके ही आज मज़दूर वर्ग लड़ सकता है। उन्होंने कहा कि शहीद शंकर गुहा नियोगी ने अपने अंतिम संदेश में कहा था कि किसी देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी के बिना मजदूरों का संघर्ष एक मंज़िल से आगे नहीं बढ़ सकता है।
राहुल फाउण्डेशन के सत्यम ने कहा कि भूमण्‍डलीकरण के दौर में पूँजी की आवाजाही के लिए राष्ट्र राज्यों की सीमाएँ ज्यादा से ज्यादा खुल गयी हैं जबकि श्रम की आवाजाही की बन्दिशें और शर्तें बढ़ गयी हैं। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सबकुछ को उत्पाद का दर्जा देकर बाज़ार के हवाले कर दिया गया है, लेकिन श्रम को नियन्त्रित करने के मामले में सरकार, नौकरशाही और न्यायपालिका ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने लगी हैं। विश्वव्यापी मन्दी के वर्तमान दौर ने पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत संकट को उजागर दिया है।
लुधियाना से आए पंजाबी पत्रिका 'प्रतिबध्द' के संपादक सुखविंदर ने कहा कि आज कई तरीकों से मज़दूरों की संगठित शक्ति और चेतना को विखण्डित करने के साथ ही कई स्तरों पर उन्हें आपस में ही बाँट दिया गया है और एक-दूसरे के ख़िलाफ खड़ा कर दिया गया है। संगठित बड़ी ट्रेड यूनियनें ज्यादातर बेहतर वेतन और जीवनस्थितियों वाले नियमित मज़दूरों और कुलीन मज़दूरों की अत्यन्त छोटी सी आबादी के आर्थिक हितों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। आज श्रम कानूनों और श्रम न्यायालयों का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। लम्बे संघर्षों के बाद रोज़गार-सुरक्षा, काम के घण्टों, न्यूनतम मज़दूरी, ओवरटाइम, आवास आदि से जुड़े जो अधिकार मज़दूर वर्ग ने हासिल किये थे वे उसके हाथ से छिन चुके हैं और इन मुद्दों पर आन्दोलन संगठित करने की परिस्थितियाँ पहले से कठिन हो गई हैं।
'हमारी सोच' पत्रिका के संपादक सुभाष शर्मा ने कहा कि मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों के बारे में क्रान्तिकारी नेतृत्व पहले से नहीं सोच सकता। ये नये रूप आन्दोलन के दौरान स्वयं उभरेंगे। उन्होंने कहा कि बड़े कारखानों में काम करने वाले संगठित मजदूरों के बीच भी परिवर्तनकारी शक्तियों को काम करना चाहिए क्योंकि असंगठित क्षेत्र का मज़दूर लड़ाई की मुख्य ताक़त बन सकता है उसे नेतृत्व नहीं दे सकता।
इंकलाबी मजदूर केंद्र फरीदाबाद के नागेंद्र, पटना से आये नरेंद्र कुमार, 'शहीद भगतसिंह विचार मंच' सिरसा के कश्मीर सिंह, 'हरियाणा जन संघर्ष मंच' के सोमदत्त गौतम, जनचेतना मंच गोहाना के संयोजक डा. सी.डी. शर्मा और क्रांतिकारी युवा संगठन के आलोक ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी में जापान से आई 'सेंटर फॉर डेवेलपमेण्ट इकोनॉमिक्स' की अध्येता सुश्री मायूमी मुरोयामा ने भी शिरकत की। दो सत्रों में चली चर्चा का संचालन राहुल फाउण्डेशन के सचिव सत्यम ने किया।
संगोष्ठी की शुरुआत में दिवंगत साथी अरविन्द की तस्वीर पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रध्दांजलि अर्पित की गई। 'विहान' सांस्कृतिक टोली के छात्रों ने शहीदों की याद में एक गीत'कारवां चलता रहेगा' प्रस्तुत किया। राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष और प्रसिध्द कवयित्री कात्यायनी ने कहा कि गत वर्ष इसी दिन अरविंद का असामयिक निधन हो गया था। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। अरविन्द को समर्पित एक क्रान्तिकारी गीत के साथ कार्यक्रम का समापन किया गया।

Sunday, July 19, 2009

प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी : भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप

(हमारे प्रिय साथी अरविंद सिंह के निधन के एक वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। इस मौके पर प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी का आयोजन किया जा रहा है। अरविंद के जीवन के मकसद से जुड़े विषय भूमण्‍डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप पर यह संगोष्‍ठी हो रही है। सभी इच्‍छुक लोग सादर आमंत्रित हैं। विस्‍तृत आमंत्रण नीचे दे रहा हूं।)
प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्टी
(24 जुलाई, 2009)
विषय: भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और
मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप
यह संगोष्ठी हम अपने प्रिय दिवंगत साथी अरविन्द सिंह की स्मृति में आयोजित कर रहे हैं। 24 जुलाई, 2009 साथी अरविन्द की पहली पुण्यतिथि है। गत वर्ष इसी दिन, उनका असामयिक निध्न हो गया था। तब उनकी आयु मात्र 44 वर्ष थी। वाम प्रगतिशील धारा के अधिकांश बुद्धिजीवी, क्रान्तिकारी वामधारा के राजनीतिक कार्यकर्ता और मज़दूर संगठनकर्ता साथी अरविन्द से परिचित हैं। वे मज़दूर अख़बार `बिगुल´ और वाम बौद्धिक पत्रिका `दायित्वबोध´ से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। `भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप´ जैसे ज्वलन्त और जीवन्त विषय पर संगोष्ठी का आयोजन ऐसे साथी को याद करने का शायद सबसे सही-सटीक तरीका होगा। हम सभी मज़दूर कार्यकर्ताओं, मज़दूर आन्दोलन से जुड़ाव एवं हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवियों और नागरिकों को इस संगोष्ठी में भाग लेने के लिए गर्मजोशी एवं हार्दिक आग्रह के साथ आमंत्रित करते हैं। हमें विश्वास है कि आन्दोलन की मौजूदा चुनौतियों पर हम जीवन्त और उपयोगी चर्चा करेंगे।

स्‍थान: गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान सभागार

नई दिल्ली

सुबह 11 बजे से शाम 7.30 बजे तक

आयोजक

राहुल फ़ाउण्‍डेशन