Thursday, September 25, 2008

सीईओ की मौत पर पाश की कविता याद आती है...

ज़िन्दगी-ज़िन्दगी में फर्क होता है, मौत-मौत में फर्क होता है, इंसान-इंसान में फर्क होता है। एक सीईओ के मारे जाने पर "स्वतंत्रता", "समानता" और "भ्रातृत्व" जैसे शब्दों की असलियत सामने आ रही है। जिस तरह एक सीईओ के अनंत को ढूँढने के लिए शाशन-प्रशाशन दौड़ने लगता है और बराबर में निठारी में कई बच्चों के गायब होने की परवाह नहीं होती और नॉएडा में ही गार्ड द्वारा मजदूर को पीट-पीटकर मारने पर पत्ता नही हिलता लेकिन आज देश-विदेश के धनपति, मंत्री-सरकार और "पूँछ हिलाऊ"(सारा नहीं) मीडिया सब परेशान हैं। बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की यह कविता ज्यादा बयान करेगी...
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढें
इसके शब्दों में मौत की ठंडक है
और एक-एक पृष्ट
ज़िन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु...
और जब मैं जगा
तो मेरे इंसान बनने तक
यह पुस्तक मर चुकी थी
अब यदि इस पुस्तक को पढोगे
तो पशु बन जायोगे
सोये हुए पशु।

Wednesday, September 24, 2008

घोर अन्याय हैं सीईओ को मारना!

भगतसिंह ने अपनी नोटबुक में मार्क ट्वेन का यह उद्धरण नोट किया है — "लोगों के सर कलम कर दिए जाने को तो हम भयंकर मानते हैं, पर हमें जीवन-पर्यंत बरकरार रहने वाली मृत्यु की उस भयंकरता को देखना नहीं सिखाया गया है जो गरीबी और अत्याचार द्वारा व्यापक आबादी पर थोप दी गयी हैं।" इटालियन कंपनी के सीईओ की ह्त्या को दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक बताया जा रहा है। बेशक मजदूरों की एकदम गलती हैं। उन्हें न्याय-फ्याय की लड़ाई लड़नी ही नहीं चाहिए थी। नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा से रोजाना मजदूर निकाले जाते हैं। पर वो तो चुपचाप खून के आंसू पीकर बैठ जाते हैं। उस कंपनी के मजदूरों को क्या ज़रूरत थी हक की इतनी लम्बी लडाई लड़ने की। क्या समझते हैं की श्रम विभाग, अदालत, पुलिस, राजनीतिक पार्टियाँ, ट्रेड यूनियन उनके लिए हैं। बड़ी ग़लतफहमी में थे बेचारे। किस्मत के मारे इन अच्छे-अच्छे शब्दों के फेर में पड़ गए। और जब इनका असली रूप सामने आया तो बिफर उठे। अगर चुप्पा मार लेते तो क्या बिगड़ जाता? ज्यादा से ज्यादा दो-चार मजदूर पैसे की तंगी से आत्महत्या कर लेते, या १००-५० घरों में कुछ दिन फाका करना पड़ता या नौकरी छोटने का दंश सारी जिंदगी उन्हें और उनके परिवारों को झेलना पड़ता या नए सिरे से मजदूरी तलाशनी पड़ती और पहले से कम पैसो में काम करना पड़ता। अब देखिये यह तो झेलना ही पड़ेगा वरना देश आगे कैसे बढेगा। वैसे अब पुलिस सजग हो गयी हैं। अबकी ऐसा हुआ तो देश की तरक्की के लिए सख्त से सख्त कदम उठाया जाएगा। आप लोगों ने बहुत बड़ी गलती की। लेकिन आपको मिली सज़ा दूसरे मज्दूरों के लिए एक सबक हो यह सुनिश्चित किया जायेगा।

Tuesday, September 23, 2008

"बाज़ार" समाजवाद यही दे सकता है

चीनी सरकार बता रही हैं ५४००० बच्चे मिलावटी दूध से बीमार पाये गए हैं। संख्या अभी और बड़ सकती हैं। धीरे-धीरे भयावह तथ्य सामने आ रहे हैं कि इसकी जानकारी तो लगभग दो महीने पहले लग चुकी थी लेकिन शायद ओलिम्पिक की वजह से दबा दी गयी। २००४ में भी १३ बच्चे मारे गए थे और मामले को दबा दिया गया था। इस बार भी उम्मीद हैं कि बड़ी मछलियों को बचा लिया जायेगा। यह हैं "बाज़ार" समाजवाद जिसकी तारीफ़ के कसीदे गाने वाले हमारे देश में भी कम नहीं हैं। अपने को "वामपंथी" होने का दावा करने वाले हमारे देश के "लाल तोते" भी इसी "बाज़ार" समाजवाद का रट्टा आजकल लगाते हैं। असल में यह लाल खाल ओढे हुए पूँजीवाद का ही शैतान हैं। जिसके लिए अपनी साख ५४००० बच्चों की जान से ज्यादा कीमती हैं। इतने बड़े पैमाने पर मिलावटी दूध का बिकना चीन के उभर चुके पूंजीपति और सरकार के गहरे रिश्ते को बताता हैं। ऐसे कूडमगजों की भी कमी नहीं हैं जो इसी को समाजवाद समझ कर कोसने लगते हैं। हमारे देश के बुद्धिजीवी तबके को भी इस बात का ज्ञान नहीं हैं कि चीन में समाजवाद का अंत १९७६ में हो चुका हैं। अब वहाँ समाजवाद के नाम पर पूँजीवाद कायम हैं। और पूँजीवाद के लिए सबसे बड़ी चीज रुपया होती हैं चाहे इसके लिए मिलावटी दूध बेचकर हजारों बच्चों की जान खतरे में क्यों ना डालनी पड़े। यह हजारों बच्चे जीवन भर इस बात को शायद सोचे कि उन्हें किस बात की सज़ा मिली हैं। क्या समाज चलाने वाले उन्हें भेड़-बकरियां तो नहीं समझते?

Saturday, September 20, 2008

गरीबों से लूटे जाते हैं ८८३ करोड़ हर साल

पिछले साल अर्जुनसेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट में खुलासा हुआ की देश के ७७ फीसदी लोगों की रोजाना की आमदनी २० रुपया रोज़ हैं। ट्रांस्पेरंसी इंटरनेशनल की ताज़ा रिपोर्ट में पता चला है की इस तबके के लोगो से सरकारी तंत्र में घूस के रूप में सिर्फ़ एक साल ८८३ करोड़ लूटे जातें हैं। यह घूस पुलिस, राशन, अस्पताल, स्कूल, ग्रामीण रोज़गार योजना आदी में ली गयी।

Friday, September 19, 2008

बजरंग दल आतंकवादी संगठन है!

आतंकवाद फिर चर्चा के केन्द्र में हैं। यह सही मौका हैं कि बजरंग दल के काले कारनामों का कच्चा-चिटठा खोला जाए और उसके हत्यारे चेहरे को देश के सामने उजागर किया जाए। हम लोगों को जानना चाहिए कि धरम के रक्षा के नाम पर यह संगठन खून बहाने में किसी सिमी या लाश्कारेतैय्ब्बा से कम नहीं हैं। पिछले महीने की २४ तारीख को कानपूर में एक प्राईवेट हॉस्टल के कमरे में विस्फोटक पदार्थ तैयार करते हुए दो लोगों के चीथड़े उड़ गए थे और दो छात्र घायल हो गए थे। पुलिस को कमरे से भारी मात्र में विस्फोटक, हैण्ड ग्रेनेड, बने-अधबने बम, टाइम डिवाइस और डेटोनेटर समेत बम बनने का काफी समान मिला था। मारे गए लोगों में से एक कानपूर शहर में बजरंग दल का पूर्व नगर संयोजक था। आईजी सं सिंह ने साफ़ कहा कि टाइम डिवाइस मिलना इस बात का पुक्ता सबूत हैं कि विस्फोट करके सूबे में तबाही मचने कि बड़ी योजना थी। (२५ अगस्त, २००८-अमर उजाला)
इस घटना ने सनसनी मचा दी हालाँकि बजरंग दल के इतिहास और विचारधरा को करीब से जानने वालों के लिए इसमे कोई आश्चर्य कि बात नहीं थी। इस घटना कि सीबीआई जाँच कि मांग मुख्यमंत्री मायावती ने खारिज कर दी। इस घटना कि उच्चस्तरीय जाँच अगर इमानदारी से करवाई जाए तो और कई राज भी खुल सकते हैं। कानपूर से पहले महारास्थ्र के नांदेड में भी बजरंग दल के एक कार्यकर्ता के घर बम बनाते हुए दो कार्यकर्ता मारे गए थे और तीन ज़ख्मी हुए थे। नांदेड के आईजी के अनुसार मोके से ज़िंदा पाइप बम हुए थे और चिंता की बात यह थी कि ज़िंदा बम आईईडी किस्म के थे जिसे रेमोते कंट्रोल से संचालित किया जा सकता हैं। सभी मृतक और आरोपी बजरंग दल के सक्रीय कार्यकर्ता थे। (९ अप्रैल २००६, मिडडे और १० अप्रैल, २००६, दी टेलीग्राफ) । यह घटनाये पुख्ता सबूत हैं कि यह संगठन हिंसक और आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न हैं। १९९९ में ऑस्ट्रलियाई पादरी ग्राहम स्टांस और उनके दो छोटे बच्चों को जिंदा ज़लाने से लेकर गुजरात में व्यापक रूप से नरसंहार को अंजाम देने का कारनामे इसी संघठन के नाम हैं। इस संगठन की घटिया और गैर इंसानी मानसिकता का पता तहलका के स्टिंग ओपरेशन से सामने आ चुका हैं जिसमे बाबु बजरंगी नामक दंगों के मुख्य आरोपी ने बेशर्मी के साथ की गयी हत्याओं का वीभत्स वर्णन किया हैं। कभी पत्रकारों-कलाकारों को पीटना तो कभी पार्क में लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर मारना भी इसके "कर्तव्यों" में शामिल हैं। पता नहीं केन्द्र सरकार को इस संगठन को प्रतिबंधीत करने के लिय और कितने सबूतों के ज़रूरत hein ?

Thursday, September 18, 2008

प्रखर पत्रकार भी थे भगतसिंह

भगतसिंह सिर्फ़ बम-पिस्तौल ही अच्छी तरह नहीं चलते थे बल्कि कलम का भी खूब जमकर प्रयोग करते थे। अपने मकसद के पूरा होने में विचारो की अहमिअत को तरजीह देते हुए उन्होंने उस दौर के सभी प्रमुख जनपक्षधर पत्र-पत्रिकाओं में लिखा। गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रताप, 'मतवाला', 'चाँद', 'कीरती', 'महारथी', 'अभुऊदय' और 'द पीपुल' में उनके ढेरो लेख छपे थे। इनमे उन्होंने सभी महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों को गहराई के साथ उठाया था। भाषा, जाती-समस्या, छूआछूत, धर्म, राजनीति, भारत के क्रांतिकारी इतिहास आदि कई विषयों पर उनका लेखन उनकी असाधारण पैनी दृष्टी का परिचय देता हैं। उनकी पहली गिरफ्तारी भी काकोरी के शहीदों के सस्मरण लिखने पर ही हुई थी। आखिरी समय में भी मुक़दमे के दौरान उनके लेख चोरी-छुपे अख़बारों में छपते थे। जाहिर हैं भगतसिंह कलम को एक हथियार से कम नहीं समझाते थे। वे वास्तव में एक प्रखर पत्रकार थे।

Wednesday, September 17, 2008

आतंकवाद-कौन हैं जिम्मेदार?—2

आतंकवाद--कौन हैं जिम्मेदार?—2
आतंकवाद के बारे में आमतौर पर दो तरह के विचार पाये जाते हैं। पहला विचार इस समस्या को बिना सोच-विचारे बन्दूक के दम पर ख़तम कर देने का होता हैं। इसका ज़ोर ज़्यादा खून-खराबा मचा कर या हर विरोधी आवाज़ को दबा देने का होता हैं। अमेरिका और हमारे देश में संघपरिवार या भाजपा का यही स्टैंड हैं। लेकिन हम देख सकते हैं। ताक़त के दम पर इसे ख़तम करना नामुमकिन हैं। चाहे इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान हो या अपने देश में कश्मीर, पूर्वोत्तर। शासकों के एक हिस्से की यह ज़ल्दबाजी उनकी अपनी विफलताओं को छुपाने की कोशिश होती हैं जो नाकामयाब रहती हैं। जितना ही दबाने की कोशिश की जाती हैं, यह उतना ही उभर कर सामने विकराल रूप ले लेती हैं। दूसरे तरह की सोच में इसे एक सामाजिक समस्या मानने का दिखावा तो किया जाता हैं, पर असल में ज़ोर बन्दूक के ज़रिये समस्या सुलझाने पर ही रहता हैं। शासक वर्ग का यह हिस्सा ज्यादा चालाक होता हैं। हमारे देश में कांग्रेस इस सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं।इन दोनों ही विचारों में इस समस्या से निपटने की कवायद मात्र की जाती हैं।जैसा की मैंने पहले इशारा किया की इस समस्या की सामाजिक-राजनीतिक ज़मीन और जडों की तलाश किए बिना इसे ख़तम करने की सोचना सिर्फ़ गत्ते की तलवार भांजना होगा। सवाल यह हैं की आतंकवाद पैदा ही क्यों होता हैं? अगर गौर से देखें तो सारी दुनिया के आतंकवाद के रूपों में एक कॉमन फैक्टर दिखायी पड़ेगा, वो हैं--असंतोष! आतंकवाद ना जुनून की ज़मीन से पैदा होता हैं ना बदले की। जहाँ पर जनता के किसी हिस्से में असंतोष होता हैं वहां इसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद होने लगती हैं। यह असंतोष ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों के लिए होता हैं। बेहतर ज़िन्दगी में यकीनन रोज़गार, दवा-इलाज़, शिक्षा तो होते ही हैं पर साथ में जीवन के हर हिस्से में (अपने मूल्यों-आस्थाओं के साथ जीने देने की आज़ादी समेत) समान भागीदारी भी इसका बड़ा फैक्टर होता हैं। जब समान अवसरों के अधिकार पर किसी ख़ास इलाके, नस्ल, धर्म, जाती और क्लास के लोगों को लगातार भेदभाव झेलना पड़ता हैं और उनकी आवाज़ सत्ता तक पहुच कर भी अनसुनी रह जाती हैं तो लोगों को निराशा में या ग़लत ताक़तों के बहकावे में आकर बन्दूक उठानी पड़ती हैं। हालांकी बन्दूक कोई समाधान नहीं हैं पर लोगों के पास विकल्प नहीं होता। आपको क्या लगता हैं कश्मीर के लोग आज़ादी क्यों चाहते हैं। वहां के नौजवानों ने बन्दूक क्यों उठाई हैं? इस वजह से क्यों की दिल्ली उनको बेहतर जीवन ना तो मुहैय्या करवा पाई न भरोसा कायम रख पाई। कश्मीर पर राजनीती तो बहुत हुई पर बताईये कितने स्कूल-कालेज, अस्पताल, बिजलीघर, उद्योग-धंधे लगाए गए। मेरा मानना हैं की जितना पैसा आज फौज पर खर्च किया जा रहा हैं उसका एक-चौथाई भी विकास पर खर्च होता तो वहां समस्या खड़ी नहीं होती। यही बात पूर्वोत्तर से लेकर नक्सल-प्रभावित इलाकों में लागू होती हैं। अच्छी ज़िन्दगी सबसे बड़ी ज़रूरत होती हैं। अगर यह ज़रूरत पूरी नहीं होगी तो ग़लत ताक़तें लोगों को गुमराह करने में कामयाब हो जाती हैं। लोगों की ज़िन्दगी के ख़राब हालत उन्हें दिस्त्रिक्टिव पॉलिटिक्स का हिस्सा बना देता हैं। यह भेदभाव व्यवस्था की प्रकृति में मोजूद होता हैं। कैसे अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा।

आतंकवाद-कौन हें जिम्मेदार?—1

खौफ और दर्द का मंज़र। आतंकवाद शब्द ज़हन में आते ही यह भाव उभर आता हैं। इसके साथ ही उन लोगों के लिए नफरत भी जो इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। निर्दोष जानें जाने पर गुस्सा पैदा होता हैं। जो बेहद लाजिमी हैं। लेकिन आतंकवाद के बारे में अक्सर बेहद जल्दबाजी में निष्कर्ष पर पहुँच जाया जाता हैं। आतंकवाद का रास्ता निश्चित तौर पर ग़लत मानते हुए भी यह जल्दबाजी इस समस्या की जड़ कभी पकड़ने नहीं देगी। यह कोई ऐसी समस्या नहीं हैं जो दिन-दो दिन में पैदा हो गयी हो। इसके निश्चित सामाजीक-ऐतीहासीक कारन होते हैं। इन कारणों की तलाश किए बिना इसे ख़तम करने का मंसूबा पालना सिर्फ़ गत्ते की तलवार भांजने जैसा होगा।

Tuesday, September 16, 2008

१४५६ अरब डॉलर जमा हैं स्विस बैंकों में हमारे कर्णधारों के!

स्विस बैंकों में सिर्फ़ भारत के लोगो(जाहिर तौर पर तथाकथित सफेदपोश लोग) का १४५६ अरब डॉलर जमा हैं। यह रकम भारत की जीडीपी से १७ लाख करोड़ ज्यादा और विदेशी मुद्रा भंडार का ५ गुना हैं। स्विस बैंकों की या कहें स्विट्जरलैंड की अर्थवयवस्था में सबसे बड़ी हिस्सेदारी भारत से जमा पैसे की हैं। भारत से इन बैंकों में १९८६ में १३०० करोड़ रुपये, १९९७ में २८ हज़ार करोड़ और २००६ में सीधे १४५६ अरब डॉलर रुपये जमा कराये गए। चिदंबरम जी को खुश होना चाहिए की भारतीय अर्थवयवस्था इतनी ताक़तवर होती जा रही हैं की उसका सिर्फ़ काला धन ही १४५६ अरब डॉलर हो गया हैं। पता नहीं देश का इतना पैसे बाहर जाने पर 'स्वदेशी' वालों की क्या प्रतिक्रिया होगी? खैर यह आइना हैं हमारे देश में फलते-फूलते भ्रष्ट्राचार के धंधे का जो अक्सर राजनीती की सीधी चढ़ कर आता हैं। भ्रष्ट्राचार को आज संस्थगत रूप प्राप्त हो चुका हैं। इसकी जड़ें वयवस्था से खाद-पानी लेती हैं। और हमारा तंत्र उसमे अपना बड़ा हिस्सा लेकर इसे छुपाने का काम करता हैं। स्विस बैंकों में जमा यह विशाल रकम हमारी वयवस्था के सड़ते हुए केवल कुछ अंगों का सामने आना हैं।

Monday, September 15, 2008

दिल्ली के धमाकों का संकेत

दिल्ली में हुए धमाके आतंकवाद रुपी उसी समस्या की अगली कड़ी हैं जिसकी जड़े काफी गहरी हैं। आमतौर पर ऐसी घटनायों के बाद चारों तरफ़ से ऐसी चीजों के ख़िलाफ़ माहौल बनने लगता हैं। ठीक भी हैं आतंकवाद किसी समस्या का समाधान नहीं हैं। लेकिन हमें इसकी भर्त्सना करते हुए यह भी सोचना चाहिए की यह समस्या पैदा ही क्यों होती हैं