Wednesday, September 17, 2008

आतंकवाद-कौन हैं जिम्मेदार?—2

आतंकवाद--कौन हैं जिम्मेदार?—2
आतंकवाद के बारे में आमतौर पर दो तरह के विचार पाये जाते हैं। पहला विचार इस समस्या को बिना सोच-विचारे बन्दूक के दम पर ख़तम कर देने का होता हैं। इसका ज़ोर ज़्यादा खून-खराबा मचा कर या हर विरोधी आवाज़ को दबा देने का होता हैं। अमेरिका और हमारे देश में संघपरिवार या भाजपा का यही स्टैंड हैं। लेकिन हम देख सकते हैं। ताक़त के दम पर इसे ख़तम करना नामुमकिन हैं। चाहे इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान हो या अपने देश में कश्मीर, पूर्वोत्तर। शासकों के एक हिस्से की यह ज़ल्दबाजी उनकी अपनी विफलताओं को छुपाने की कोशिश होती हैं जो नाकामयाब रहती हैं। जितना ही दबाने की कोशिश की जाती हैं, यह उतना ही उभर कर सामने विकराल रूप ले लेती हैं। दूसरे तरह की सोच में इसे एक सामाजिक समस्या मानने का दिखावा तो किया जाता हैं, पर असल में ज़ोर बन्दूक के ज़रिये समस्या सुलझाने पर ही रहता हैं। शासक वर्ग का यह हिस्सा ज्यादा चालाक होता हैं। हमारे देश में कांग्रेस इस सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं।इन दोनों ही विचारों में इस समस्या से निपटने की कवायद मात्र की जाती हैं।जैसा की मैंने पहले इशारा किया की इस समस्या की सामाजिक-राजनीतिक ज़मीन और जडों की तलाश किए बिना इसे ख़तम करने की सोचना सिर्फ़ गत्ते की तलवार भांजना होगा। सवाल यह हैं की आतंकवाद पैदा ही क्यों होता हैं? अगर गौर से देखें तो सारी दुनिया के आतंकवाद के रूपों में एक कॉमन फैक्टर दिखायी पड़ेगा, वो हैं--असंतोष! आतंकवाद ना जुनून की ज़मीन से पैदा होता हैं ना बदले की। जहाँ पर जनता के किसी हिस्से में असंतोष होता हैं वहां इसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद होने लगती हैं। यह असंतोष ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों के लिए होता हैं। बेहतर ज़िन्दगी में यकीनन रोज़गार, दवा-इलाज़, शिक्षा तो होते ही हैं पर साथ में जीवन के हर हिस्से में (अपने मूल्यों-आस्थाओं के साथ जीने देने की आज़ादी समेत) समान भागीदारी भी इसका बड़ा फैक्टर होता हैं। जब समान अवसरों के अधिकार पर किसी ख़ास इलाके, नस्ल, धर्म, जाती और क्लास के लोगों को लगातार भेदभाव झेलना पड़ता हैं और उनकी आवाज़ सत्ता तक पहुच कर भी अनसुनी रह जाती हैं तो लोगों को निराशा में या ग़लत ताक़तों के बहकावे में आकर बन्दूक उठानी पड़ती हैं। हालांकी बन्दूक कोई समाधान नहीं हैं पर लोगों के पास विकल्प नहीं होता। आपको क्या लगता हैं कश्मीर के लोग आज़ादी क्यों चाहते हैं। वहां के नौजवानों ने बन्दूक क्यों उठाई हैं? इस वजह से क्यों की दिल्ली उनको बेहतर जीवन ना तो मुहैय्या करवा पाई न भरोसा कायम रख पाई। कश्मीर पर राजनीती तो बहुत हुई पर बताईये कितने स्कूल-कालेज, अस्पताल, बिजलीघर, उद्योग-धंधे लगाए गए। मेरा मानना हैं की जितना पैसा आज फौज पर खर्च किया जा रहा हैं उसका एक-चौथाई भी विकास पर खर्च होता तो वहां समस्या खड़ी नहीं होती। यही बात पूर्वोत्तर से लेकर नक्सल-प्रभावित इलाकों में लागू होती हैं। अच्छी ज़िन्दगी सबसे बड़ी ज़रूरत होती हैं। अगर यह ज़रूरत पूरी नहीं होगी तो ग़लत ताक़तें लोगों को गुमराह करने में कामयाब हो जाती हैं। लोगों की ज़िन्दगी के ख़राब हालत उन्हें दिस्त्रिक्टिव पॉलिटिक्स का हिस्सा बना देता हैं। यह भेदभाव व्यवस्था की प्रकृति में मोजूद होता हैं। कैसे अगली पोस्ट में चर्चा करूंगा।

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