Thursday, September 25, 2008

सीईओ की मौत पर पाश की कविता याद आती है...

ज़िन्दगी-ज़िन्दगी में फर्क होता है, मौत-मौत में फर्क होता है, इंसान-इंसान में फर्क होता है। एक सीईओ के मारे जाने पर "स्वतंत्रता", "समानता" और "भ्रातृत्व" जैसे शब्दों की असलियत सामने आ रही है। जिस तरह एक सीईओ के अनंत को ढूँढने के लिए शाशन-प्रशाशन दौड़ने लगता है और बराबर में निठारी में कई बच्चों के गायब होने की परवाह नहीं होती और नॉएडा में ही गार्ड द्वारा मजदूर को पीट-पीटकर मारने पर पत्ता नही हिलता लेकिन आज देश-विदेश के धनपति, मंत्री-सरकार और "पूँछ हिलाऊ"(सारा नहीं) मीडिया सब परेशान हैं। बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की यह कविता ज्यादा बयान करेगी...
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे न पढें
इसके शब्दों में मौत की ठंडक है
और एक-एक पृष्ट
ज़िन्दगी के आखिरी पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु...
और जब मैं जगा
तो मेरे इंसान बनने तक
यह पुस्तक मर चुकी थी
अब यदि इस पुस्तक को पढोगे
तो पशु बन जायोगे
सोये हुए पशु।

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