प्यार हमें शक्ति देता है...
Tuesday, September 28, 2010
प्यार हमें शक्ति देता है... -- भगतसिंह
प्यार हमें शक्ति देता है...
Sunday, September 19, 2010
गिर्दा और भीमसेन त्यागी की स्मृति में कविता-पाठ
Saturday, September 18, 2010
मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल व अन्य के कविता-पाठ में आप सब आमंत्रित हैं
(कविता और विचार का मंच)
प्रस्तुत करने जा रहा है
घर-घर कविता
प्रयास के तहत
इस बार सामूहिक कविता पाठ
(श्रीमति प्रोमिला देवी माथुर की स्मृति को समर्पित)
आमंत्रित कवि
मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, मिथिलेष श्रीवास्तव, रंजीत वर्मा, आर.चेतनक्रांति और विनीत तिवारी
कार्यक्रम
पहला हिस्सा
स्मृति स्मरण - भीमसेन त्यागी व गिरीश चंद्र तिवाडी ‘गिर्दा’
( लेखक भीमसेन त्यागी की स्मृति में मोहन गुप्त का संस्मरण-पाठ व गिर्दा की स्मृति में सुश्री जया मेहता व अनुराग द्वारा उनकी कविताओं का पाठ )
दूसरा हिस्सा
आमंत्रित कवियों द्वारा कविता पाठ
दिनांक समय स्थान
19. 9.2010, रविवार शाम 5बजे डी-106, सैक्टर-9,न्यू विजय नगर,गाज़ियाबाद,उत्तर प्रदेश-201009
संचालनः मिथिलेश श्रीवास्तव
मेज़बानः इस बार घर-घर कविता की मेज़बानी कर रहे हैं पत्रकार संजीव माथुर (9911646458),
संजीवहिन्दुस्तान, दिल्ली में कार्यरत हैं।
आप सभी सादर आमंत्रित हैं!
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कार्यालय संपर्कः एन-153, सैक्टर-8, आर.के.पुरम, नई दिल्ली-110022, फोन न.: 011-26176590, 9868628602
Monday, May 10, 2010
रामकुमार कृषक, आम जनजीवन के संघर्षों के कवि
ककहरा
‘ क ‘ से काम कर ,
‘ ख ‘ से खा मत ,
‘ ग ‘ से गीत सुना ,
‘ घ ‘ से घर की बात न करना , ङ खाली ।
सोचो हम तक कैसे पहुँचे खुशहाली !
‘ च ‘ को सौंप चटाई ,
‘ छ ‘ ने छल छाया ,
‘ ज ‘ जंगल ने , ‘ झ ‘ का झण्डा फहराया ,
झगड़े ने ञ बीचोबीच दबा डाली ,
सोचो हम तक कैसे पहुँचे खुशहाली !
‘ ट ‘ टूटे , ‘ ठ ‘ ठिटके ,
यूँ ‘ ड ‘ डरा गया ,
‘ ढ ‘ की ढपली हम ,
जो आया , बजा गया ।
आगे कभी न आई ‘ ण ‘ पीछे वाली,
सोचो हम तक कैसे पहुँचे खुशहाली !
फिर समूचा एक दिन बीता
फिर समूचा एक दिन बीता
रह गया आधा-अधूरा आदमी रीता
रोटियाँ-रुजगार
भागमभाग
झिड़कियाँ-झौं-झौं कई खटराग
हर समय हर पल लहू पीता
बंद कमरों में
खुला आकाश
वाह ! क्या जीदारियत, शाबाश
बहस का मैदान तो जीता
कारखाने-खेत औ'
फुटपाथ
हाथ सबके साथ कितने हाथ
कह रही कुछ और भी गीता !
(रचनाकाल : 28.01.1979)
अगर हम
न छल होता न प्रपंच
न स्वार्थ होता न मंच
न चादर होती न दाग़
न फूस होता न आग
न प्राण होते न प्रण
न देह होती न व्रण
न दुष्ट होते न नेक
न अलग होते न एक
न शहर होते न गाँव
न धूप होती न छाँव
अगर हम जानवर होते
सोच
सोच रहा हूँ
सोचना बंद कर दूँ
और सुखी रहूँ !
Tuesday, March 30, 2010
खाप-पंचायतों के खिलाफ ऐतिहासिक फैसला, पांच को मौत की सजा
खाप-पंचायतों के खिलाफ आज एक शानदार और ऐतिहासिक फैसला आया है। करनाल की अदालत ने मनोज और बबली के हत्यारों को मौत की सजा सुनाई है। बेशक इस फैसले के देर से आने और दोषी पुलिसकर्मियों को छोड़ देने समेत कई सवाल मौजूद हैं लेकिन कुछ फैसलों का असर उनके द्वारा दिए जाने वाले संदेश में होता है। यकीनन यह फैसला जाटलैंड और देश के दूसरे जाटलैंडों (मेरठ से मुजफ्फरनगर समेत) में एक संदेश तो देगा ही।
मनोज और बबली उन कई बदनसीब लोगों में से थे, जिन्हें प्यार करने के संगीन जुर्म में बिना किसी सुनवाई के टुकड़े-टुकड़े करके गाड़ दिया जाता है या नहर में बहा दिया जाता है या फिर जिन्दा ही बिटोड़े में उपलों से जला दिया जाता है। अकेले हरियाणा के करनाल, जींद, सोनीपत और रोहतक जिलों में हर साल लगभग 100 लड़के-लड़कियों को बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया जाता है, पूरे देश के आंकड़ों का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। एकदम सीधी बात यह भी है कि इन हत्याओं को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। खाप पंचायत के सदस्यों, हत्या करने वाले परिवार के लोगों, खाप पंचायतों के दम पर चुनाव जीतने वाले नेता और पार्टियां, स्थानीय पुलिसकर्मी और प्रशासन, यानी पूरा सामाजिक आधार इन हत्याओं के दोषी हैं। वेदपाल की हत्या एक नमूना थी जबकि पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश पर पुलिस सुरक्षा दिए जाने के बावजूद, पुलिस के घेरे में से निकाल कर उसे खुलेआम मार दिया गया था। इन हत्याओं से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल इसी सामाजिक दुष्चक्र को तोड़ने का है। इन हत्याओं के खिलाफ एक व्यापक सामाजिक माहौल ही इसे तोड़ सकता है। इसे तोड़ने की उम्मीद किसी सरकार से करना हथेली पर सरसों उगाने जैसा है।
गौर करने वाली बात यह भी है कि खुद को ज्यादा आधुनिक व प्रगतिशील दिखाने वाली कांग्रेस का इन क्षेत्रों में आधार रहा है। और दशकों से होने वाली इन हत्याओं पर उसने चुप्पी साध रखी थी।
इस फैसले में हत्यारों को सजा मिलेगी या वे बच जाएंगे, ये सवाल हमारी पूरी न्यायिक और उससे भी ज्यादा मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। बहरहाल इस फैसले से उन खाप नेताओं और हत्यारे अभिभावकों को जरूर कुछ सबक मिलेगा।
गोत्र और जाति, उन सड़े हुए अंडों की तरह हैं जिन्हें हमारे समाज ने सहेज रखा है, जो खुलते हैं तो दूर-दूर तक माहौल में ऐसी हवा घोल देते हैं कि सांस लेना तक मुश्किल हो जाए। एक मामले में एक फैसला तो आ गया पर सबसे बड़ा फैसला तो हमें यानी इस देश के उस पढ़े-लिखे तबके को करना है, जो खुद को आधुनिक कहलाना पसंद करता है। या कम से कम आधुनिक बनने की होड़ में शामिल हो गया है। उसे इन सवालों का सामना करना होगा कि इन बर्बर हत्याओं को क्या मंजूर किया जाए, कि गोत्र और खाप जैसी सड़ी-गली चीजों को कूड़ेदान में फेंक दिया जाए और कि क्या हम ऐसे समाज को सभ्य और आधुनिक और खुद को उसका हिस्सा कह सकते हैं जहां प्रेम करने पर नौजवानों के टुकड़े करके फेंक दिए जाते हों? जब तक इन सवालों पर हम लोग अपना सही स्टैंड नहीं लेंगे और अपने दायरों में मुखर नहीं होंगे, तब तक शायद मनोज और बबली यूं ही मारे जाते रहेंगे...
Sunday, March 21, 2010
आज विश्व-कविता दिवस है
सबसे खूबसूरत है वह समुद्र
जिसे अब तक देखा नहीं हमने
सबसे खूबसूरत बच्चा
अब तक बड़ा नहीं हुआ
सबसे खूबसूरत हैं वे दिन
जिन्हें अब तक जिया नहीं
हमने
सबसे खूबसूरत हैं वे बातें
जो अभी कही जानी हैं
- नाज़िम हिकमत
भूल-ग़लती
भूल-ग़लती
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।
सामने
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के
वह क़ैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त-
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमे वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!
इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!
लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
-मुक्तिबोध
Saturday, February 13, 2010
तुम मेरे पास रहो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की 99वीं वर्षगांठ है। पोस्टमैनों, तांगेवालों और क्लर्कों के नाम शायरी लिखने वाले इस शायर के दिल में जहां दुनिया की खूबसूरत चीजों के लिए बेपनाह मुहब्बत थी, वहीं तमाम नाइंसाफियों के लिए आग के शोले भी थे। इस इंकलाबी शायर को सलाम... (उनकी तीन रचनाएं और इंतसाब)
तुम मेरे पास रहो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी कर सियह रात चले
मर्हम-ए-मुश्क लिये नश्तर-ए-अल्मास चले
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबते हुये दिल
आस्तीनोंमें निहाँ हाथों की रह तकने निकले
आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुल-क़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासुदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुन-सान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही
गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
इंतसाब यानी तांगेवालों, पोस्टमैनों, कारखाने के भोले जियालों के नाम...
Wednesday, January 20, 2010
दिल्ली विश्वविद्यालय में फासिस्टों का कायराना हमला, एबीवीपी को भगतसिंह बर्दाश्त नहीं
कल इस घटना के विरोध में दिशा छात्र संगठन की अगुवाई में आईसा, एसएफआई व तमाम संगठन विरोध प्रदर्शन करेंगे। जनचेतना के घायल कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऐसी कायराना हरकतों से उनके हौसले कम नहीं होंगे। वे बार-बार और ज्यादा तेजी से इस साहित्य को दिल्ली विश्वविद्यालय समेत पूरे देश में पहुंचाते रहेंगे।
यह कोई पहला मौका नहीं है जब भगतसिंह के लिखे साहित्य और अन्य तमाम प्रगतिशील साहित्य को सारे देश में कोने-कोने में पहुंचा रही यह वैन संघ परिवार के निशाने पर आई हो। मेरठ, मथुरा, आगरा, कोटा लगभग सभी जगह संघियों ने इस वैन पर हमले किए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी एबीवीपी वाले भी पिछले कुछ सालों से इस प्रदर्शनी पर आकर बार-बार धमकी देते रहे हैं।
इसकी वजह भी साफ है। छात्रों-युवाओं के बीच जितनी तेजी से पिछले कुछ वर्षों में भगतसिंह और अन्य क्रांतिकारी साहित्य की चाहत बढ़ी है वह निश्चित ही एबीवीपी की राजनीति के लिए खतरे की घंटी है। इसके अलावा गांव-कस्बों से लेकर शहरों के कॉलेजों तक इस तरह की प्रदर्शनियां जितनी दूर तक क्रांतिकारी साहित्य पहुंचा रही है, उससे संघ परिवार की राजनीति की परेशानियां बढ़ना लाजिमी है। यह घटना उनकी इसी झुंझलाहट का नतीजा है।