खौफ और दर्द का मंज़र। आतंकवाद शब्द ज़हन में आते ही यह भाव उभर आता हैं। इसके साथ ही उन लोगों के लिए नफरत भी जो इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। निर्दोष जानें जाने पर गुस्सा पैदा होता हैं। जो बेहद लाजिमी हैं। लेकिन आतंकवाद के बारे में अक्सर बेहद जल्दबाजी में निष्कर्ष पर पहुँच जाया जाता हैं। आतंकवाद का रास्ता निश्चित तौर पर ग़लत मानते हुए भी यह जल्दबाजी इस समस्या की जड़ कभी पकड़ने नहीं देगी। यह कोई ऐसी समस्या नहीं हैं जो दिन-दो दिन में पैदा हो गयी हो। इसके निश्चित सामाजीक-ऐतीहासीक कारन होते हैं। इन कारणों की तलाश किए बिना इसे ख़तम करने का मंसूबा पालना सिर्फ़ गत्ते की तलवार भांजने जैसा होगा।
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