Sunday, July 26, 2009

भूमंडलीकरण की नयी चुनौतियों का सामना नये रूपों से करना होगा

भूमंडलीकरण के दौर में देश की विशाल कामगार आबादी के सामने आज खड़े हुए चौतरफा संकटों पर देशभर से मजदूर आंदोलन से जुड़े लोगों के बीच एक काफी विचारोत्तेजक बातचीत हुई। मौका था अरविंद के निधन के एक साल पूरे होने पर आयोजित प्रथम अरविंद स्‍मृति संगोष्‍ठी का, जो 24 जुलाई को गांधी शांति प्रतिष्‍ठान, दिल्‍ली में संपन्‍न हुई। अरविंद के निधन का एक साल पूरा हो गया है। मात्र 44 साल के अपने छोटे लेकिन बेहद सरगर्म जीवन जीने वाले अरविंद इस देश में सामाजिक बदलाव की लड़ाई के अविचल योद्धा थे। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। साथ ही छात्र-युवा और मजदूर आन्दोलन में वे लगभग डेढ़ दशक से सक्रिय थे। इस संगोष्‍ठी में आज के मजदूर आंदोलन की चुनौतियों से जुड़े कुछ अहम बुनियादी सवाल उभर कर सामने आये। इस संगोष्‍ठी की मुख्‍य बातों को संक्षेप में प्रस्‍तुत किया जा रहा है...

प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी सम्‍पन्‍न

'भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप' विषय पर यहां आयोजित संगोष्ठी में विभिन्न क्षेत्रों से आए वक्ताओं ने परंपरागत ट्रेड यूनियन नेतृत्व को मजदूर आंदोलन के बिखराव और कमजोरी के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए नई क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें बनाने तथा बहुसंख्यक असंगठित मजदूर आबादी को संगठित करने की जरूरत पर जोर दिया।
'दायित्वबोध' पत्रिका के संपादक अरविन्द सिंह की पहली पुण्यतिथि के मौके पर आयोजित प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में ट्रेड यूनियन संगठनकर्ताओं, बुध्दिजीवियों तथा राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि एक और नव-उदारवादी नीतियों के प्रभाव से मजदूर वर्ग के आर्थिक-राजनीतिक तथा जनवादी अधिकारों में लगातार कटौती हो रही है दूसरी ओर मजदूर वर्ग अपने तात्कालिक एवं आंशिक हितों की लड़ाई को, आर्थिक माँगों एवं सीमित जनवादी अधिकारों की लड़ाई को भी प्रभावी ढंग से संगठित नहीं कर पा रहा है।
'आह्वान' पत्रिका के संपादक और मज़दूर संगठनकर्ता अभिनव सिन्हा ने अपने आधार वक्तव्य में कहा कि इक्कीसवीं सदी में पूँजी की कार्यप्रणाली में कई बुनियादी ढाँचागत बदलाव भी आये हैं। ऐसे में मजदूर आंदोलन को भी प्रतिरोध के तौर-तरीकों और रणनीति में कुछ बुनियादी बदलाव लाने होंगे। स्वचालन और अन्य नयी तकनीकों के सहारे पूँजी ने अतिलाभ निचोड़ने के नये तौर-तरीके विकसित कर लिये हैं। बड़े-बड़े कारख़ानों में मज़दूरों की भारी आबादी के स्थान पर कई छोटे-छोटे कारख़ानों में मज़दूरों की छोटी-छोटी आबादियों को बिखरा देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे कारख़ानों में अधिकांश मज़दूर ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल होते हैं या पीसरेट पर काम करते हैं। कम मज़दूरी देकर स्त्रियों और बच्चों से काम कराया जाता है। उन्होंने कहा कि देश की कुल मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक क्षेत्र के हैं जो किसी भी ट्रेड यूनियन में संगठित नहीं हैं। इस आबादी को संगठित करना आज के क्रान्तिकारी आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। इस आबादी को संगठित करने के लिए कारखानों में ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में जाकर भी काम करना होगा। वेतन और भत्तों को बढ़ाने के अतिरिक्त राजनीतिक माँगों के लिए भी इन मज़दूरों के आंदोलन संगठित करने होंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय के डा. प्रभु महापात्र ने मज़दूर वर्ग के बिखराव की चर्चा करते हुए कहा कि आज उन्हें संगठित करने के नये तरीके तलाशने होंगे। उन्होंने श्रम कानून बनाए जाने के इतिहास की चर्चा करते हुए कहा कि इन कानूनों में राज्य अपने आपको मज़दूर और पूँजीपति के बीच में स्वयं को एक निष्पक्ष मध्यस्थ दिखलाता है लेकिन वास्तव में उसकी पक्षधरता पूँजी के साथ होती है। डा. महापात्र ने कहा कि असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को संगठित करने के साथ-साथ संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बीच भी काम करना होगा।
सीपीआई-एमएल (न्यू प्रोलेतारियन) के प्रो. शिवमंगल सिध्दान्तकर ने कहा कि मज़दूर वर्ग आज पस्तहिम्मत है। लेकिन वह फिर से लड़ने की शुरुआत कर रहा है। ज़रूरत इस बात की है कि देश के पैमाने पर बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताकतें एक मंच पर आएं और मज़दूरों की लड़ाई को नेतृत्व दें जिससे कि मज़दूर आबादी में फैली हार की मानसिकता को दूर किया जा सके।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता शेख अंसार ने कहा कि यह बात बिल्कुल सही है कि आज मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में काम करना और उनके पेशागत संगठन और ट्रेड यूनियन बनाने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने यही काम आज से दो दशक पहले शुरू कर दिया था और आज वहाँ तीन ऐसी बस्तियाँ हैं जो स्वयं मज़दूरों ने बसाई हैं, उनके अपने अस्पताल और अपनी एंबुलेंस और स्कूल तक हैं। इस प्रकार से अपनी संस्थाएँ और समानान्तर शक्ति तैयार करके ही आज मज़दूर वर्ग लड़ सकता है। उन्होंने कहा कि शहीद शंकर गुहा नियोगी ने अपने अंतिम संदेश में कहा था कि किसी देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी के बिना मजदूरों का संघर्ष एक मंज़िल से आगे नहीं बढ़ सकता है।
राहुल फाउण्डेशन के सत्यम ने कहा कि भूमण्‍डलीकरण के दौर में पूँजी की आवाजाही के लिए राष्ट्र राज्यों की सीमाएँ ज्यादा से ज्यादा खुल गयी हैं जबकि श्रम की आवाजाही की बन्दिशें और शर्तें बढ़ गयी हैं। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सबकुछ को उत्पाद का दर्जा देकर बाज़ार के हवाले कर दिया गया है, लेकिन श्रम को नियन्त्रित करने के मामले में सरकार, नौकरशाही और न्यायपालिका ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने लगी हैं। विश्वव्यापी मन्दी के वर्तमान दौर ने पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत संकट को उजागर दिया है।
लुधियाना से आए पंजाबी पत्रिका 'प्रतिबध्द' के संपादक सुखविंदर ने कहा कि आज कई तरीकों से मज़दूरों की संगठित शक्ति और चेतना को विखण्डित करने के साथ ही कई स्तरों पर उन्हें आपस में ही बाँट दिया गया है और एक-दूसरे के ख़िलाफ खड़ा कर दिया गया है। संगठित बड़ी ट्रेड यूनियनें ज्यादातर बेहतर वेतन और जीवनस्थितियों वाले नियमित मज़दूरों और कुलीन मज़दूरों की अत्यन्त छोटी सी आबादी के आर्थिक हितों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। आज श्रम कानूनों और श्रम न्यायालयों का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। लम्बे संघर्षों के बाद रोज़गार-सुरक्षा, काम के घण्टों, न्यूनतम मज़दूरी, ओवरटाइम, आवास आदि से जुड़े जो अधिकार मज़दूर वर्ग ने हासिल किये थे वे उसके हाथ से छिन चुके हैं और इन मुद्दों पर आन्दोलन संगठित करने की परिस्थितियाँ पहले से कठिन हो गई हैं।
'हमारी सोच' पत्रिका के संपादक सुभाष शर्मा ने कहा कि मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों के बारे में क्रान्तिकारी नेतृत्व पहले से नहीं सोच सकता। ये नये रूप आन्दोलन के दौरान स्वयं उभरेंगे। उन्होंने कहा कि बड़े कारखानों में काम करने वाले संगठित मजदूरों के बीच भी परिवर्तनकारी शक्तियों को काम करना चाहिए क्योंकि असंगठित क्षेत्र का मज़दूर लड़ाई की मुख्य ताक़त बन सकता है उसे नेतृत्व नहीं दे सकता।
इंकलाबी मजदूर केंद्र फरीदाबाद के नागेंद्र, पटना से आये नरेंद्र कुमार, 'शहीद भगतसिंह विचार मंच' सिरसा के कश्मीर सिंह, 'हरियाणा जन संघर्ष मंच' के सोमदत्त गौतम, जनचेतना मंच गोहाना के संयोजक डा. सी.डी. शर्मा और क्रांतिकारी युवा संगठन के आलोक ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी में जापान से आई 'सेंटर फॉर डेवेलपमेण्ट इकोनॉमिक्स' की अध्येता सुश्री मायूमी मुरोयामा ने भी शिरकत की। दो सत्रों में चली चर्चा का संचालन राहुल फाउण्डेशन के सचिव सत्यम ने किया।
संगोष्ठी की शुरुआत में दिवंगत साथी अरविन्द की तस्वीर पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रध्दांजलि अर्पित की गई। 'विहान' सांस्कृतिक टोली के छात्रों ने शहीदों की याद में एक गीत'कारवां चलता रहेगा' प्रस्तुत किया। राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष और प्रसिध्द कवयित्री कात्यायनी ने कहा कि गत वर्ष इसी दिन अरविंद का असामयिक निधन हो गया था। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। अरविन्द को समर्पित एक क्रान्तिकारी गीत के साथ कार्यक्रम का समापन किया गया।

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