आज गणेशशंकर विद्यार्थी जी की 117वीं जन्मतिथि है। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम एक ध्रुव तारे के समान सबसे उपर दिखायी देता है। हालांकि विद्यार्थी जी का सम्यक मूल्यांकन किये जाने और उनका उचित सम्मानित स्थान देने का काम शायद अभी पूरा नहीं हुआ है। हिन्दी पत्रकारिता में विद्यार्थीजी ने उस शानदार राष्ट्रीय परम्परा को आगे विस्तार दिया जिसे बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसी विभूतियों ने स्थापित किया था। माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा'नवीन', सत्यभक्त, राधामोहन गोकुलजी, रामरिख सहगल, प्रेमचन्द आदि लेखकों की लम्बी कतार थी जो राष्ट्रीय आजादी के प्रश्न को व्यापक सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक नजरिये से जोड़ कर देख रहे थे। 'प्रताप' का प्रकाशन 1913 से शुरू हुआ। 'प्रताप' ने राष्ट्रीय आन्दोलन के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने में असाधारण भूमिका निभायी। भगतसिंह समेत कई वैचारिक योद्धाओं की पाठशाला यह अखबार बना। भीषण आर्थिक कष्ट जुर्माने और जेलयात्राओं के बावजूद 'प्रताप' विद्यार्थी जी के दृढ़ संकल्प की बदौलत ही निकलता रह पाया।
विद्यार्थी जी ने जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने की आड़ में लेखकीय 'तटस्थता' की दुहाई कभी नहीं दी। उनकी वैचारिक राजनीतिक पक्षधरता एकदम स्पष्ट थी। वह अध्ययन कक्षों के निवासी जीव न थे। जमींदारों के विरुद्ध किसानों के संघर्ष उनके लिए जीवन की अध्ययनशाला थे और उनकी अध्ययनशाला भीषण वैचारिक संघर्ष का रणक्षेत्र। आन्दोलनों मे सक्रिय भागीदारी के चलते भी उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। यह उनकी निर्भीक प्रतिबद्धता ही थी जिसके चलते वह दिनरात घूमकर कानपुर में भड़के साम्प्रदायिक दंगे की आग बुझाने की कोशिश करते रहे और 25 मार्च 1931 को एक उन्मादी भीड़ के हाथों मारे गये।यूरोप के बाल्जॉक, रूसो और दिदेरों के समान वह एक योद्धा मनीषी थे। पुनर्जागरण के लेखकों के समान वह अपनी मान्यताओं को केवल लिखकर ही संतुष्ट नहीं थे बल्कि उन्हें अपने जीवन में उतारते भी थे और उनकी कीमत हंस कर चुकाते थे। आज देश में साम्पद्रायिक माहौल खराब है। विद्यार्थीजी ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ डटकर मओरछा लिया था और इसीसे लड़ते हुए उन्होंने अपनी आखरी साँस ली।विद्यार्थी जी ने ' धर्म की आड़' नामक लेख में लिखा था--
''यहां धर्म के नाम पर कुछ इनेगिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए करोड़ों आदमियों की शक्ति का दु:पयोग करते हैं। यहां होता है बुद्धि पर परदा डालकर पहले ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए लेना और फिर धर्म के नाम पर अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए लोगों को लड़ाना भिड़ाना।''
विद्यार्थीजी का जीवन और उनके विचार आज भी जनता के बुद्धिजीवियों के लिए प्रेरणा का अजस्र स्रोत हैं।
9 comments:
ऐसे व्यक्तित्व को श्रधासुमन अर्पित करता हूँ . आज उनके जैसे एक आध पत्रकार और हो जाए तो पत्रकारिता पर लगने वाले कलंक कुछ तो धुलें
विद्यार्थी जी सच्चे देशभक्त और सच्चे सेक्युलर थे. आजके अधिकाँश पत्रकार बिके हुए हैं, पाकिस्तान-परस्त या चीन-समर्थक हैं. वे घोर छद्म-सेक्युलर हैं.
विद्यार्थी जी को भावभीनी श्रद्धांजलि !
विध्यारथी को आपने याद करवाया धन्यवाद....शत् शत् नमन ऐसे महापुरुष को
विद्यार्थी कर्म के सेनानी थे। उन्हें नमन।
विद्यार्थी जी को नमन!
कैसी विडंबना है कि हम लोगों ने एसे शहीदों को भी शर्मिंदा करने में कोई कसर उठा नहीं रखी है। संतई और राष्ट्रवाद के चोले में सांप्रदायिकता पाल रहे हैंष
दिपावली की शूभकामनाऎं!!
शूभ दिपावली!!
- कुन्नू सिंह
@Ek ziddi dhun
साम्प्रदायिकता और साम्प्रदयिक हमेशा हिंदू ही होता है....... हिन्दुओं से ही दुनिया को खतरा है, हिंदू नाम की हर चीज़ दुनिया से हट जाए तो दुनिया एक बेहतर जगह होगी........ शायद यही साबित और साकार करना आपकी एक ज़िद्दी धुन है
बेहतरीन तहरीर है...अच्छी जानकारी मिली...
दीपावली की हार्दिक मंगलकामनाएं...
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