Wednesday, April 29, 2009

मीडिया का बिकाऊपन और आदर्शों का बाना

पिछले दिनों वरिष्‍ठ ब्‍लॉगर और पत्रकार श्री अनिल पुसदकरजी ने एक भावनाप्रधान पोस्‍ट लिखी। इसमें उन्‍होंने किसी ब्‍लॉगर द्वारा विनायक सेन के मामले में छत्तीसगढ़ के मीडिया को बिकाऊ कहे जाने पर गहरा रोष प्रकट किया था। वाकई बात चोट पहुंचाने वाली थी। लेकिन आदरणीय अनिलजी, आपने नाहक बात दिल पर ले ली। मीडिया के बिकाऊ होने की बात को दिल से नहीं दिमाग से समझना पड़ेगा। पहली बात तो यह कि जब यह बात कही जाती है तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि छत्तीसगढ़ में काम करने वाला हर पत्रकार बिकाऊ है। बिकता वो है जिसके पास बेचने के लिए कुछ हो। खबरों को बेचने वाला अखबार का मालिक होता है न कि उसका रिपोर्टर...
दूसरे इस सच्‍चाई को अब साफ-साफ स्‍वीकार कर ही लेना चाहिए कि मीडिया बिकाऊ बन गया है। मीडिया पर बाजार और पूंजी का शिकंजा अब खुले तौर पर नजर आने लगा है। अब मीडिया खरीद-फरोख्‍त का सामान बन गया है। मीडिया के बिकाऊपन को इन चुनावों ने खुला खेल फरुर्खाबादी बना दिया है। यह बात पिछले दिनों मीडिया जगत में लगातार कही जा रही है। पुण्‍यप्रसून वाजपेयी जी ने अपनी पोस्‍ट में लिखा
''चुनाव चाहे लोकतंत्र की पहचान हो लेकिन चुनाव का मतलब लोकतांत्रिक तरीके से पूंजी और मुनाफा वसूली की सौदेबाजी का तंत्र भी है, जो सभी को फलने फूलने का मौका देता है । लेकिन यह तंत्र इतना मजबूत है कि इसके घेरे में समूचा मीडिया घुसने को बेताब रहता है। यानी यहां टीवी या अखबार की लकीर मिट जाती है। लोकतंत्र में चुनाव का मतलब महज यही नहीं है, मायावती टिकटो को बेचती हैं या फिर बीजेपी और कांग्रेस में पहली बार टिकट बेचे गये। असल में चुनाव में खबरों को बेचने का सिलसिला भी शुरु हुआ। इसका मतलब है अखबारों में जो छप रहा है, न्यूज चैनलो में जो दिख रहा है, वह खबरें बिकी हुई हैं। इसके लिये भी रिपोर्टर को टारगेट दिया जाता है। और संस्थान संभ्रात है तो हर सीट पर सीधे चुनाव लड़ने वाले प्रमुख या तीन उम्मीदवार से वसूली कर एडिटोरियल पॉलिसी बना देता है कि खबरो का मिजाज क्या होगा। यह सौदेबाजी प्रति उम्मीदवार अखबार के प्रचार प्रसार और उसकी विश्वसनीयता के आधार पर तय होती है, जो एक लाख से लेकर एक करोड़ तक होती है। मसलन उत्तर प्रदेश के बहुतेरे अखबार इस तैयारी में है कि लोकसभा चुनाव में कम से कम पचास से सौ करोड़ तो बनाये ही जा सकते हैं। बेहद रईस क्षेत्र या वीवीआईपी सीट की सौदेबाजी का आकलन करना बेवकूफी होती है क्यकि उस सौदेबाजी के इतने हाथ और चेहरे होते हैं कि उसे नंबरो से जोड़कर नहीं आंका जा सकता है। इन परिस्थितियो में खबरों को लिखना सबसे ज्यादा हुनर का काम होता है, क्योंकि खबरों को इस तरह पाठको के सामने परोसना होता है, जिससे वह विज्ञापन भी न लगे और अखबार की विश्वसनीयता भी बरकार रहे।''

कल चंडीगढ़ में बीएसपी की रैली में उसके उम्‍मीदवार हरमोहन धवन ने मंच से कहा कि अखबार उनकी कवरेज के लिए 10 लाख रुपये मांग रहे हैं। मीडिया सिर्फ बिक ही नहीं रहा है बल्कि नैतिक रूप से भी पतन की गहराईयां भी नाप रहा है। विस्‍फोट.कॉम पर अखिलेख 'अखिल' जी लिखते हैं
''लोकतंत्र के तीन स्तंभों -विधायिका, न्यायपालिका, और कार्यपालिका के समाज व जन विरोधी क्रियाकलापों, उनके भ्रष्टाचार की बात तो हम अक्सर करते हैं, लेकिन मीडिया के भीतर के भ्रष्टाचार, यौन पिपासाओं, और मीडिया के नाम पर दलाली करने वाले कथित पत्रकारों या मीडियाकर्मियों की चर्चा शायद ही कभी होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि मीडिया के क्षेत्र में काम करने वाले लोग पाक साफ हैं। वास्तविकता तो यह है कि अगर देश के एक सौ नेताओं ने भ्रष्टाचार के दमपर करोडों-अरबों की नाजायज संपत्ति बनायी है तो देश के एक सौ से ज्यादा पत्रकारों ने भी अपनी औकात से ज्यादा की नाजायज संपत्ति जमा की है।''

मीडिया के बारे में जो सन्‍तई या आदर्शवादी विचार एक नकाब की तरह बचे हुए हैं उनको अब मीडिया के साफगो लोग हटाने लगे हैं। पिछले दिनों आईबीएन7 के आशुतोष ने कहा कि मीडिया में आ रही गिरावट पर ही इतना हल्‍ला क्‍यों, गिरावट तो हर जगह आ रही है। यानी जब हर जगह उल्‍टी गंगा बह रही है तो फिर मीडिया में गंगा की धार सीधी कैसे हो सकती है। विस्‍फोट.कॉम पर ही संदीप भट्ट ने भी काफी खुल कर लिखा
''हमारे देश में पत्रकारिता के लोगों ने ही प्रेस को मीडिया की चमक दमक से छिपा दिया है। कई लोग पत्रकारिता में ऐसे भी हैं जो महज दशक भर पहले टूटी चप्‍पलों में फिरा करते थे और आज संस्‍थानों में मालिक की हैसियत रखते हैं। प्रेस की इसी तकदीर बदलने वाली ताकत का हमारे यहां गलत फादया उठाया गया है। यहां मीडिया हाउसों ने सरासर दगाबाजी की है। प्रेस के विश्‍वास की बदौलत कमाई गई अकूत संपत्‍तियों को मीडिया के धंधों में लगाया गया। असल में मीडिया का काम समाचार कभी रहा ही नहीं।''

भावनाओं से या आदर्शवादी बाने से सच्‍चाई को झुठलाना ठीक नहीं है। इसलिए तमाम अच्‍छी बातों की तरह इसे भी भुला देना ही श्रेयस्‍कर होगा कि मुख्‍य तौर पर (पूरे तौर पर अभी भी नहीं मानता हूं) मीडिया में समाज के प्रति अब कोई सरोकार, आम लोगों के लिए लिखने का माद्दा या कहें स्‍कोप बचा हुआ है। आज यह कारपोरेट कंपनियों और उनकी नुमाइंगी करने वाली राजनीतिक पार्टियों के हाथ का खिलौना भर रह गया है। सवाल अब सिर्फ यह रह गया है कि कौन खरीदेगा। यह सच्‍चाई अगर देश भर के मीडिया पर लागू होती है तो छत्तीसगढ़ के अपवाद होने की कोई वजह, तर्क या आधार समझ नहीं आता। क्‍या यह माना जाए कि छत्तीसगढ़ में दिलचस्‍पी या कारोबार करने वाली कंपनियां और उनके इशारों पर चलने वाली राजनीतिक पार्टियां मीडिया से कोई वास्‍ता नहीं रखते हैं? क्‍या यह माना जाए कि छत्तीसगढ़ में सारे अखबारों के मालिक अचानक आदिवासियों और उनके हितों के बारे में सोचने लगे हैं। क्‍या अपने फायदे के लिए छत्तीसगढ़ में ''मीडिया मैनेज'' नहीं किया जाता है। अगर ऐसा नहीं है तो माना जाना चाहिए कि पूरे देश की तरह छत्तीसगढ़ का मीडिया भी बिकाऊ है। जब मैं यह बात कह रहा हूं तो मैं अपवादों को नजरंदाज नहीं कर रहा हूं। बेशक कुछेक अखबार, कुछेक पत्रकार इसके बावजूद लोगों के प्रति पक्षधरता का कोई न कोई रास्‍ता निकाल ही लेते होंगे लेकिन यह बात समझनी ज्‍यादा जरूरी है कि ये व्‍यक्तिगत प्रयास डोमिनेटिंग ट्रेंड नहीं है। मीडिया का डोमिनेटिंग ट्रेंड उसका कारपोरेटाइजेशन या कहें बाजारीकरण है।

8 comments:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

दारू और पैसा बस, वोटरों को ही क्यों ?.... मिडिया को भी बहती गंगा में हाथ धोने का हक है.

डॉ महेश सिन्हा said...

अनिल ने कीचड उछालने वाले के तौर तरीके पर जो खुद को मीडिया का बताते हैं पर टिप्पणी की है . एक मछली सारे तालाब को गन्दा करती है लेकिन हम्माम में सभी तो नंगे नहीं हैं . किस तरह की बात कही गयी है उसपर भी नजर डालें. अनिल ने एक संस्था के प्रमुख होने के नाते अपने विचार रखे हैं . आप किसके पक्षधर हैं अनिल के या ?

Sanjeet Tripathi said...

कभी छत्तीसगढ़ में रहना हुआ है आपका?
अगर नहीं तो पहले छत्तीसगढ़ में कुछ समय आकर रह लें फिर छत्तीसगढ़ के संदर्भ में अपनी बात रखें।

Anil Pusadkar said...

आदरणीय कपील जी!मुझे इस बात से इंकार नही है कि बाज़ार आज सब पर भारी है लेकिन इसका मतलब ये तो नही है कि सारी दुनिया बिकाऊ है।क्या आप बिकाऊ है?नही ना!बस वही मेरा कहना है। और फ़िर किसी को बिकाऊ कहने का हक़ उसे है जो खुद बिकाऊ न हो।उन श्रीमान को आप भी जान्ते है ऐसा मै समझता हूं।उन्होने उदाहरण देकर ये साबित करने की कोशिश की है कि छत्तीसगढ मे ग्रामीण क्षेत्र के संवाददाताओं को वेतन नही मिलता,तो ये कौन सी नई बात है। ऐसा हर जगह होता है।वे जिस पत्र समूह से जुडे थे क्या उस अखबार ने खबरे कभी नही बेची?क्या उनके खिलाफ़ कभी लिखा उन्होने?क्या उनकी छत्तीसगढ मे किसानो की आत्महत्या खबर उनके खुद के बिक जाने की कहानी नही कहती?क्या आप उनकी उस खबर को सच मानते है?और भी बहुत सारी बाते है कहने को?मै इस बात से इंकार नही करता कि बहुत से लोग बिकने पर मज़बूर हो रहे है लेकिन इसका मतलाब ये नही है कि सारे के सारे लोग बिकाऊ हैं!अगर मै कहूं कि दिल्ली के सारे लोग दल्ले है तो ये तो अन्याय ही होगा ना? और फ़िर मुझे ऐसा कहने का हक़ दिया किसने?मै ये ज़रूर कह सकता हूं कि ये खबर दिल्ली वालो ने प्रमुखता से नही छापी मगर मै ये तो नही कह सकता कि दिल्ल्ली वालो को खबर नही लिखने के पैसे मिलते है?बेहतर होगा कि आप अपने उस साथी कि लिखी खबर को भी पढ ले जिस पर मैने अपना पक्ष रखा। आशा है कि आप मेरी बातो को अन्यथा नही लेंगे और बिकने-बिकाने के इस दौर मे नही बिकने के मामले मे मेरा हौसला बढायेंगे ना कि ये साबित करने कि कोशिश करेंगे कि सब बिकता है!जिसे बिकना है वो बिके हम तो नही बिकेंगे!

संदीप said...

महेश जी, हम लोगों का पक्ष तो तय ही है आप अपने पक्ष की चिंता कीजिए। हां, आप चाहें तो आदतन जो मर्जी इल्‍जाम लगाते रहिए।

और त्रिपाठी जी, यह कब से और किसने तय कर दिया कि जो छत्तीसगढ़ में रहेगा वही उसकी बात कर सकता है, क्‍या आप कभी दिल्‍ली, अमेरिका, पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश, अल कायदा, रूस, चीन की बात नहीं करते, यदि करते हैं तो आप वहां रहे हैं क्‍या और यदि नहीं करते तो छोटी सी दुनिया से बाहर निकलिए, दुनिया केवल छत्तीसगढ़ नहीं है। नहीं तो हेगेल जैसे दार्शनिक भी कूपमंडूकता के कीचड़ से सन गए थे, क्‍योंकि वह अपने इलाके से कहीं बाहर ही नहीं जाते थे। खैर, फिर कभी...

अनिल जी,

यह तो कपिल भाई ने अपनी पोस्‍ट में ही लिखा है कि मीडिया को बिकाऊ कहने का मतलब यह नहीं कि व्‍यक्तिगत तौर पर हर पत्रकार बिकाऊ होता है, वे ट्रेंड की बात कर रहे हैं, उम्‍मीद है आप इस ट्रेंड को समझेंगे और समझते हैं तो दिल पर मत लीजिए। और कपिल ही क्‍या, हर कोई न बिकने के लिए आपका हौसला ही बढ़ाएगा आपको बिकने के लिए कह कौन रहा है। और सलवा जुडूम के मामले में तो अदालत तक की टिप्‍पणी की आपको जानकारी होगी ही। रही बात दिल्‍ली में या कहीं भी विनायक सेन के समर्थन में बात करने की, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि यह विदेशी पैसे से किया जा रहा है। ऐसे तो आपके लिए भी कहा जा सकता है आप अमेरिका के दलाल हैं और मानवाधिकार कार्यकर्ता के खिलाफ पैसा लेकर लिखते हैं।

और मुझे नहीं लगता कि कोई भी समझदार व्‍यक्ति ''वामपंथी'' आतंकवाद को जायज ठहराएगा इसको तो लेनिन ने ही गलत कह दिया था और भारत में भी मार्क्‍सवाद या माओवाद के नाम पर आतंकवाद का व्‍यवहार रूस के नरोदवाद जैसा ही है। और आपको क्‍यों लगा कि कपिल ने या किसी और ने उसको सही ठहराया है।
उम्‍मीद है आप अन्‍यथा नहीं लेंगे, बात सिर्फ वैचारिक मतभेद की है।

संदीप said...

और हां, अनिल भाई,


विधायकों की खरीद फरोख्‍त में आपका नाम आया था तो आपने राजनैतिक हथियार के रूप में इस्‍तेमाल होने की बात कह कर अपनी सफाई दी, लेकिन कोई जनवादी मूल्‍यों के समर्थन या मीडिया के बिकाऊपन की बात करता है तो आप उस पर विदेशों से पैसा लेने का आरोप लगाते हैं, यह दोहरा व्‍यवहार कहां तक जायज है।

डॉ महेश सिन्हा said...

संदीप जी मैं नहीं जानता आप कौन हैं और आपने मुझपर इल्जाम लगा दिया कि मैं आदतन कुछ भी कहता हूँ . आपके इस निष्कर्ष का कारण जान सकता हूँ ? मैंने तो जो पूछा ब्लॉग लेखक से पूछा था अगर वो जवाब नहीं देना चाहते तो उनकी मर्जी . ये भी जरा विस्तार से बताएं " हम " से आपका इशारा किस ओर है . जहां तक आपने बात अमेरिका की की है तो एमनेस्टी भी शायद एक अमेरिकन संस्था है . दरअसल बात ये है कि बहुत दिनों तक आप लोग अपनी बांसुरी बजा रहे थे , कोई कुछ नहीं कह रहा था तो सब उचित था , जब कुछ लोगों ने अपने विचार अलग दिशा में रखे तो आप लोगों को अच्छा नहीं लगा . आप लोग समर्थ हैं इस लिए बड़े बड़े समर्थन जुटा सकते हैं . ये प्रश्न जरूर अटपटा लगे लेकिन जरा बताएं कि प्राइवेट अस्पताल में हृदय रोग से सम्बंधित इलाज का कितना खर्च आता है ? सुप्रीम कोर्ट के नामी गिरामी वकीलों की फीस कितनी है . वायुयान से भ्रमण करने और सितारा होटलों में कितना खर्च आता है . क्षमा करें , समर्थ लोगों से ये सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए.
एक सज्जन ने तो बिनायक सेन की तुलना भगत सिंग , राजगुरु से कर दी !!
binayaksen.net पर गिनी चुनी समर्थन की ही टिपण्णी आती है ? विरोध स्वीकार नहीं है .
मुझे तो अब ये लगने लगा है कि बेचारे बिनायक सेन को आप लोग बलि का बकरा बना रहे हैं, जिन्दगी भर सेवा का ये सिला ?
अनिल का भावनाप्रधान होना सही नहीं है , ये आप लोग कह रहे हैं जो अपनी भावना के कारण ही तो बिनायक सेन का समर्थन कर रहे हैं . आपकी भावना है तो सही दूसरे की भावना का कोई मूल्य नहीं .
PUCL को श्री जयप्रकाश जी ने बनाया आप लोगों ने तो उसका नाम भी बदल दिया (PUCLDR) .

Sanjeet Tripathi said...

संदीप जी, जिस तरह मैं अमेरिका या पाकिस्तान में रहे बिना वहां के मुद्दों को सही तरीके से नहीं समझ सकता और तब वहां के मुद्दों पर कुछ कहना एक तरह से मेरा गाल बजाना ही कहलाएगा।

यही बात छत्तीसगढ़ के मुद्दों या किसी भी राज्य के मुद्दों पर किसी के द्वारा बिना वहां रहे, समझे कहने पर कहलाएगी।