Tuesday, May 19, 2009

नशा खत्‍म नहीं होगा, तो लिट्टे फिर पैदा होगा

प्रभाकरन की मौत के साथ ही लिट्टे की लड़ाई लगभग खत्‍म हो गई है। क्‍या यह राहत की बात है। मेरे ख्‍याल से यह गंभीर रूप से सोचने की बात है। इस मौके पर यह सोचे जाने की ज्‍यादा जरूरत है कि आखिर लिट्टे जैसी ताकतें पैदा ही क्‍यों होती हैं। जिस तमिल अस्मिता और अस्तित्‍व की लड़ाई लिट्टे लड़ रहा था उसकी जमीन श्रीलंका की सिंहली वर्चस्‍व वाली राजनीति ने तैयार की थी। संख्‍याबल के आधार पर बहुसंख्‍यक धर्म, जातीयता या समुदाय को हासिल ताकत का इस्‍तेमाल जब अल्‍पसंख्‍यक लोगों के अधिकारों पर हमला करने के लिए किया जाने लगता है तो इसके खिलाफ अल्‍पसंख्‍यकों की राजनीति भी गोलबन्‍द होने लगती है। यह खेल वोटों की राजनीति से परे तब चला जाता है जब सत्ता के मद में यह बहुसंख्‍यक तबका अल्‍पसंख्‍यक तबको को आखिरी सिरे तक धकेल देता है। सीधी सी बात है जब कमजोर लड़ते-लड़ते दीवार तक पहुंच जाएगा तो उसके पास पलट कर वार करने के सिवा कोई चारा नहीं होता। और उसका वार उसके अस्तित्‍व से जुड़ा होता है इसलिए ज्‍यादा खतरनाक होता है। श्रीलंका में यही हुआ। कमजोर का पलटवार कई दशकों तक चला।
यह बात सिर्फ लिट्टे के साथ ही नहीं धर्म, जाति, नस्‍ल, रंग, क्षेत्र के नाम पर होने वाले उत्‍पीड़न के खिलाफ लड़ने वाली हर ताकत पर लागू होती है। इनका पलटवार आज पूरी दुनिया में चिंता का विषय बना हुआ है। लेकिन क्‍या यह सोचने की जहमत उठाई गई कि इस विरोध की जमीन को खत्‍म करने की जरूरत पहले है यानी इस तरह के किसी भी अन्‍याय को खत्‍म करने की। मौजूदा सामाजिक व्‍यवस्‍था यह जहमत अपनी बेसिक इंस्टिक्‍ट की वजह से उठा ही नहीं सकती। उसकी खुद की जमीन कमजोर को दबाने पर टिकी है चाहे वह दूसरे धर्म, समुदाय, नस्‍ल का हो या फिर अपने धर्म, समुदाय, नस्‍ल का गरीब और पिछड़ा तबका।
ताकत का नशा होता है। अच्‍छी संख्‍या बल का भी नशा होता है। लोकतंत्र यानी वोटों की राजनीति में यह नशा सिर चढ़ कर बोलता है। इस नशे को दूर नहीं किया गया तो लिट्टे श्रीलंका में फिर पैदा होगा, तय जानिए।

2 comments:

ghughutibasuti said...

यह सच है कि अन्याय ही प्राय: ऐसी स्थिति को जन्म देता है। परन्तु यह भी सोचने की बात है कि अन्याय की दुहाई देने वाले भी जैसे ही बाहुबली बन जाते हैं स्वयं अन्याय करने लगते हैं। जब संसार का नियम ही यही है तो फिर किसी को हम कैसे दोष दे सकते हैं?
सभी ऐसे दल शक्ति के विरोध में बनते हैं और अन्त में जिसका विरोध करते हैं वैसे ही बन जाते हैं।
घुघूती बासूती

उम्मतें said...

लड़ाईयां ख़त्म नहीं हुआ करतीं ! इनका कभी अंत नहीं होता ! ये एक बार शुरू हुईं तो समझो कि केवल अल्पकालिक युद्ध विराम ही होते हैं स्थायी नहीं !
बेहतर हो कि इन्सान युद्ध शुरू ही ना करे ! इंसानों के दरमियान खुले संवाद और युद्ध विरोधी हालातों के लिए दुआगो !
आपका अली !