मजे की बात है कि इन दो कमेंट को लिखने के लिये एक फ़र्जी ब्लाग (दहाड़) बनाया जाता है:
१.काश कि कोइ दिवेदी जी का सगा मुम्बई हमले मे मरा होता और वे उसे यही उपदेश देते तो सब समझ जाते।
२.शायद आने वाले समय मे लोग जयचंद को भूलकर .दिवेदी जी को याद करें।
बहस होना बहुत अच्छी बात है। बल्कि मैं भी अपने विचारों की पक्षधरता के साथ विरोधियों से तीखी बहस करने के ही पक्ष में हूं। लेकिन क्या बहस करने वालों का फर्जी ब्लॉग बनाकर बहस नहीं गाली-गलौज करने के तरीके को जायज कहा जा सकता है? यह सिर्फ एक ही उदाहरण नहीं है। ऐसे ढेरों उदाहरण यहां दिये जा सकते हैं जब एक खास विचारधारा के लोगों ने अपने विरुद्ध जाने वाली बातों के खिलाफ लोगों को गालियां दीं।
आपको क्या लगता है इन लोगों के अपनी बात रखने के इस ''खास'' तरीके के पीछे क्या वजहें हो सकती हैं।
1. जिसके पास कहने के लिए कोई बात नहीं होती, वो गाली ही दे सकता है।
2. जब तर्क कमजोर पड़ने लगते हैं वो छुपकर फर्जी ब्लॉगों के जरिए अपनी भड़ास निकालना चाहता है।
3. अपनी विरोधी बात सुनने की क्षमता नहीं होती इसलिए ऐसा करता है।
4. अपने विरोधियों को चुप कराने का उन्हें यही आसान तरीका लगता है।
5. इस विचारधारा में केवल थोथी और मानवद्रोही संकीर्ण दायरे वाली भावनाएं होती हैं, विचारशून्यता इसका मुख्य लक्षण है। विचारों की कमजोरी ऐसी अभिव्यक्तियां पैदा करती हैं।
इस मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष दोनों का स्वागत है। मुझे लगता है कि इस तरह की टिप्पणियों पर हमें अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें तय करना होगा कि ब्लॉग को सार्थक बहस का मंच बने रहने देना है या नहीं...
13 comments:
सुमन चाहिए आपको गुजरें काँटों बीच।
जीवन के पथ में मिले कई बार कुछ नीच।
बहस हो सार्थक ब्लाग में प्रायः यही विचार।
गलत टिप्पणियाँ छोड़कर बढ़ना कदम हजार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
mere vichaar :
http://indian-sanskriti.blogspot.com/2009/05/blog-post.html
सही लिखा है आपने मैने भी अनूप जी जैसा महान ब्लोगर दुसरा कोई नही देखा . ये ना किसी विवाद मे पडते है नाही किसी को भडकाते है . ना चैट से ना टेलीफ़ोन पर . मैने आज तक इन्हे किसी को भडकाते फ़ूस डाल कर आग लगाते नही देखा . वैसे कुछ लोग कर रहे थे कि द्विवेदी जी को यही भडका कर इस तरह के फ़साद खडे करा रहे है , लेकिन आपका लेख पढकर मुझे यकीन हो गया कि वो लोग गलत है. समीर भाइ के लिये भी इन्होने कभी कोई बखेडा खदा करने की कभी नही सोची . नाही इनका कोई हाथ नारद के पंगो मे रहा . सही कहा जी आपने . ये तो इअत्ते भोले है कि चंडूखाना नाम के ब्लोग पर अपने मामाजी श्री कैन्हयालाल नंन्दन जी की बेईज्जती को देख कर भी हर्षित होकर कह गये बहुत बढिया और लिखो . मौज लेने के लिये भी कबी इन्होने दहाड का इस्तेमाल नही किया :)
ब्लॉगर मित्रों कुछ सार्थक काम करो देश के लिए, समाज के लिए और फिर पूरी दुनिया के लिए। फालतू की बहसबाजी और झगड़े में कोई सार्थकता सामने आनी नहीं है।
कपिल जी, चूंकि मेरे ब्लॉग का नाम लिया गया है इसलिये मेरा स्पष्टीकरण देना आवश्यक है -
1) ये "खास विचारधारा" क्या होता है? क्या आप खास विचारधारा से प्रेरित नहीं हैं?
2) अभी मेरे इतने बुरे दिन नहीं आये कि मुझे फ़र्जी ब्लॉग बनाने की जरूरत पड़े।
3) मैं शुरु से ही "टिप्पणी मॉडरेशन" और "बेनामीवाद" के खिलाफ़ रहा हूं, इसलिये मेरे ब्लॉग पर आने वाली प्रत्येक टिप्पणी सीधे बिना रोक-टोक के जाती है (जब तक कि उसमें गाली गलौज न हो, तथा "जयचन्द" गाली नहीं है, एक उपमा है, एक प्रवृत्ति है)। मैं हर टिप्पणी करने वाले के प्रोफ़ाइल पर जाकर झाँकने का आदी नहीं हूं, जो मुझे पता चले कि कौन फ़र्जी है, कौन नहीं। और मान लें कि यदि फ़र्जी है भी तो क्या हुआ, क्या आज से पहले किसी ने फ़र्जी ब्लॉग नहीं बनाये, शायद आपको पता नहीं होगा, लेकिन पहले भी कई वरिष्ठ ब्लॉगर फ़र्जी नामों और फ़र्जी ब्लॉगों के जरिये अपनी कुंठायें निकालते रहे हैं… (बात बढ़ेगी तो कईयों की पोल खुल जायेगी, इसलिये अपनी जानकारी अपडेट करें)
4) यदि आपको मेरे ब्लॉग पर उस बहस में कोई सार्थकता नहीं नज़र आई तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, न ही टिप्पणीकारों का।
5) मैंने कभी व्यक्तिगत रूप से गाली-गलौज का प्रयोग किया हो तो उदाहरण दीजिये।
6) किस "खास विचारधारा" में "थोथापन, संकीर्णता, और विचारशून्यता" होती है, ये काफ़ी लोग पहले से ही जानते हैं और जो नहीं जानते उन्हें बताने का प्रयास हम कर रहे हैं… :)
चलते-चलते एक बात अनूप शुक्ल जी के लिये भी - मेरे ब्लॉग पर आई प्रत्येक टिप्पणी से मेरा सहमत होना आवश्यक नहीं है, यदि मैंने कोई टिप्पणी डिलीट नहीं की, इसका मतलब ये नहीं होता कि मैं उसका समर्थक हो गया, आप तो इतने वरिष्ठ ब्लॉगर हैं, इतनी छोटी सी बात क्या समझाऊं। मेरा स्पष्ट मानना है कि टिप्पणी मॉडरेशन, टिप्पणी डिलीट करना या बेनामी टिप्पणी करना, या तो "डरपोक" या "तानाशाह" मानसिकता का परिचायक है, और मैं दोनों ही नहीं हूं…
ये कसाब अभी भी हलकान कर रहा है लोगों को -अन्दर की बात बाहर और बाहर की बात अन्दर करा रहा है !
मैं तो यही कहूंगा की बलि के पहले खिला पिला कर मोटा ताजा करने की इस्लामी परम्परा के अनुरूप ही कसाब की आवाभगत हो रही है और दुनिया देखेगी की उसे कैसे जल्लादों के हाथ फांसी दी जाती है -हम यहाँ क्यों बदमजगी फैला रहे हैं !
आतंकवादियों और आतंकवादियों के पैरोकारों का हश्र अरविन्द मिश्रा के सुझाये अनुसार ही हो!
आमीन
प्रिय कपिल स्वामी जी,
मेरे ब्लॉग "हमसफ़र यादों का......." पर पधारने तथा मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, चलिए इसी बहाने आपके ब्लॉग से परिचय हो गया। अभी ब्लॉग जगत में नया हूँ, आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की सदैव कोशिश करूंगा। साथ ही मित्र मंडली में आपका हार्दिक स्वागत है। पधारते रहिएगा। पुनःश्च धन्यवाद!!!
ब्लागर कोई मंच नही है जहाँ ढ़ग का कोई काम हो, सही बात बोलने पर जूता मिलेगा और गलत बात को बोलने पर बैयजंतीमाल
ब्लाग एक स्वतंत्र मंच है जहाँ कोई भी अपनी कैसी भी टिप्पणी छोड़ सकता है, उस में फूल भी हो सकते हैं और काँटे भी, खुशबू भी हो सकती है और सड़ाँध भी। यदि कोई ब्लाग लिखता है या उस पर टिप्पणी करता है तो उसे इन में से किसी के लिए तैयार रहना चाहिए। यहाँ आचार संहिता नहीं बनाई जा सकती।
लेकिन एक ही विचारधारा के लोग आपस में एक दूसरे की हाँ में हाँ मिलाते रहें और दूसरे को गालियाँ देते रहें तो विमर्श तो होने से रहा। इस लिए जरूरी है कि विरोधी विचार के लोग तर्कसंगत तरीके से विमर्श में साथ रहें।
लेकिन विमर्श के लिए आवश्यक है कि उस में भाग लेने वाले लोग अंदर से ईमानदार हों और इस दुनिया को एक सुंदर और मनुष्य के जीने लायक बनाने का लक्ष्य रखते हों। यदि यह लक्ष्य साथ हो तो सड़ान्ध भरी गालियाँ भी खुशबूधार फूल लगने लगती हैं। इस रास्ते पर केवल औरों को ही बदलना नहीं पड़ता अपितु खुद भी बदलने के लिए तैयार रहना पड़ता है।
यह सब हो तो ब्लाग विमर्श के लिए सुंदर स्थान रहता है। नहीं तो वह कुछ लोगों के बीच सिमट कर अपनी गति को प्राप्त कर लेता है।
द्विवेदीजी की बात से सहमत हूं। सार्थक बहस होनी चाहिए और उसमें तीखी टीका-टिप्पणी होती ही है मेरा अभिप्राय केवल इसके मूल लक्ष्य के प्रति ईमानदारी का था। उम्मीद है कि हम सब लोग इस लक्ष्य की मूल भावना को खत्म नहीं होने देंगे।
संदीप जी के 'बर्बरता के विरुद्ध' से उद्धृत पॉल रोबसन, 24 जुलाई, 1937 (स्पेन में फासिस्ट ताकतों के विरुद्ध जारी संघर्ष के दौरान आह्वान) के इन शब्दों की मूल भावना के साथ हम भी आप से सहमत हैं, '' प्रत्येक कलाकार, प्रत्येक वैज्ञानिक, प्रत्येक लेखक को अब यह तय करना होगा कि वह कहां खड़ा है। संघर्ष से ऊपर, ओलंपियन ऊंचाईयों पर खड़ा होने की कोई जगह नहीं होती। कोई तटस्थ प्रेक्षक नहीं होता...युद्ध का मोर्चा हर जगह है। सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्ठभाग नहीं है...कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष या फिर गुलामी- उसे किसी एक को चुनना ही होगा। मैंने अपना चुनाव कर लिया है। मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है।''
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