(आज हिन्दू में जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर, सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश की ओर से प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह को दिनांक 17 अप्रैल, 2009 को लिखे गये पत्र का मुख्य अंश प्रकाशित हुआ है। डा. सेन को जमानत न मिलना भारतीय न्यायपालिका के सबसे अजीबोगरीब फैसलों में शुमार हो चुका है। हाल में वरुण को जमानत दे देने और डा. सेन की जमानत अर्जी खारिज करने पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। उधर डा. विनायक की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। सरकारी डॉक्टर ने उनका जल्द से जल्द इलाज कराने की अनुशंसा की है जिस पर फिलहाल कोई कार्रवाई नहीं हुई है। क्या डा. सेन को एक धीमी मौत की ओर ले जाया जा रहा है? निश्चित रूप से आने वाले दिनों में न्यायालय से इस मामले में सार्थक पहल की उम्मीद की जानी चाहिए। जस्टिस कृष्णा अय्यर के पत्र का हिन्दी अनुवाद करके यहां प्रस्तुत कर रहा हूं...)
मैं आपका ध्यान एक बेहद अन्यायपूर्ण मामले की ओर दिलाना चाहता हूं जोकि भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक है : यह मामला है सुविख्यात बालरोग विशेषज्ञ और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले डा. विनायक सेन का।
इस कुशल डॉक्टर को लगभग दो वर्षों से रायपुर जेल में और फिलहाल छत्तीसगढ़ राज्य जनसुरक्षा अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत कारावास में बन्दी बनाकर रखा गया है। डा. सेन जोकि ग्रामीण गरीब आबादी के बीच अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य के कामों की बदौलत पूरी दुनिया के पैमाने पर जानेमाने ख्यातिप्राप्त डॉक्टर हैं, के खिलाफ ''राजद्रोह और राज्य के विरुद्ध युद्ध छेड़ने'' के आरोप लगाये गये हैं।
छत्तीसगढ़ के लोक अभियोजक ने दावा किया है कि विनायक ने, एक अपुष्ट षड्यंत्र के हिस्से के तौर पर, एक वरिष्ठ माओवादी नेता नारायण सान्याल, जोकि रायपुर जेल में हैं, की ओर से कई पत्र एक स्थानीय व्यवसायी को दिये, जिसके कथित रूप से वामपंथी-दुस्साहसवादियों से संबंध थे। ऐसा कहा गया है कि विनायक द्वारा यह काम जेल में सान्याल से एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और कई बीमारियों के लिए उनका इलाज कर रहे एक डॉक्टर, दोनों के तौर पर मिलने के दौरान किया गया।
हालांकि डा. सेन के मुकदमे, जोकि रायपुर सेशन कोर्ट में अप्रैल 2008 के अंत में शुरू हुआ था, में उनके खिलाफ लगाये गये इन आरोपों को सही साबित करने वाले साक्ष्यों का छोटे से छोटा हिस्सा भी प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। मूल आरोपपत्र के हिस्से के तौर पर गवाही देने के लिए 83 गवाहों की सूची मार्च 2009 में अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत की गयी थी, जिसमें से 16 का नाम स्वयं सरकार ने वापस ले लिया, और छह लोगों को 'प्रतिकूल' घोषित कर दिया गया, जबकि 61 लोगों से डा. सेन के खिलाफ किसी भी आरोप की पुष्टि करवाये बगैर गवाही दिलवा दी गयी। डा. सेन के खिलाफ मामले के गुण-दोषों की चर्चा न भी की जाये, तो भी अभी तक चलाये गये मुकदमे की कार्रवाई के तरीके के कई पहलू बेहद विक्षोभजनक हैं।
इतना सब पर्याप्त न मानते हुए, डा. सेन की जमानत पर रिहाई की अपील विलासपुर उच्च न्यायालय द्वारा बार-बार (सितंबर 2007 में और दिसंबर 2008 में) अस्वीकार कर दी गयी। और उच्चतम न्यायालय ने उनकी रिहाई की प्रार्थना के लिए स्पेशल लीव पेटिशन पर सुनवाई करते हुए उसे ठुकरा दिया।
अभी तक डा. सेन के मुकदमे में साक्ष्यों की कमी को ध्यान में रखते हुए रायपुर न्यायालय को पूर्ण निष्पक्षता के साथ तत्काल उनके खिलाफ पूरे मुकदमे को रद्द कर देना चाहिए। निश्चित रूप से अभियोजन पक्ष की स्थिति की कमजोरी उन्हें कम से कम जमानत पर रिहा होने का हकदार बना देती है। डा. सेन अपने पूरे शानदार कैरियर के दौरान त्रुटिहीन व्यवहार के रिकार्ड के साथ, अन्तरराष्ट्रीय स्तर के और सम्मानित व्यक्ति हैं। मई 2008 में एक अभूतपूर्व कार्रवाई के तहत 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने उन्हें 'पेशेवर सहकर्मी' बताते हुए और उनकी रिहाई की मांग करते हुए एक सार्वजनिक वक्तव्य पर हस्ताक्षर भी किये थे।
सामान्य तौर पर जमानत देना उन्हीं मामलों में अस्वीकार किया जाता है जहां न्यायालय को लगता है कि आरोपी साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है, गवाहों को पूर्वाग्रहित कर सकता है या भाग सकता है। डा. सेन के मामले में इनमें से कोई भी वजह लागू नहीं होती है, जैसा कि इस सामान्य तथ्य से पता चलता है कि उनकी गिरफ्तारी के समय उन्होंने अपनी संभावित कैद के बारे में जानते हुए भी छत्तीसगढ़ पुलिस के पास स्वेच्छा से आने का रास्ता चुना और भागने की कोई कोशिश नहीं की।
आज डा. सेन जो मधुमेह के रोगी हैं और अति रक्त दाब (हाइपरटेंसिव) के रोगी भी हैं, को अपने हृदय की बिगड़ती जा रही स्थिति के चिकित्सकीय इलाज की अत्यावश्यक आवश्यकता है। हाल के सप्ताहों में उनका स्वास्थ्य बहुत गिर गया है और उनकी जांच के लिए न्यायालय द्वारा नियुक्त डॉक्टर ने अनुशंसा की है कि उन्हें कोई भी देरी किये बिना एंजियोग्राफी, और यदि आवश्यक लगे तो संभवत: एंजियोप्लास्टी करवाने के लिए वैल्लोर स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए।
उनके सामाजिक योगदान को मान्यता देने की बजाय भारतीय राज्य ने, डा. सेन और उनकी तरह मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले कई लोगों पर गलत ढंग से 'आतंकवादी' होने का ठप्पा लगाकर न केवल लोकतांत्रिक नियमों और निष्पक्ष शासन को बल्कि अपनी संपूर्ण आतंकवाद विरोधी रणनीति और कार्य को भी पूर्ण रूप से विद्रुपता का विषय बना दिया है।
जमानत का बार-बार अस्वीकार किया जाना, जिसका नतीजा 'मुकदमे द्वारा दंड' होता है, भारतीय समाज के लिए एक ज्यादा बड़ा खतरा है। इस मामले में हो रहा सरासर अन्याय साधारण नागरिकों में भारतीय लोकतंत्र की साख और प्रभाविता के बारे में खुद-ब-खुद केवल उदासीनता पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं करेगा।
31 comments:
मानवाधिकार के नाम पर विदेशी पैसे से भारत के विरुद्ध षड़यंत्र चलता रहता है इसलिये अब भारत का आम नागरिक इन मानवाधिकार के हो हल्ले पर विश्वास नहीं करता
आपका खुद का कहना है कि "61 आदमियों की गवाही मुलजिम विनायक सेन के विरुद्द दिलवा दी गई" क्या ये गवाही देने वाले 61 आदमी गलत थे और अकेले मुलजिम विनायक सेन सही थे?
वामपंथी आतंकवादियों का दंश सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं सारा का सारा देश भुगत रहा है, अब छत्त्तीसगढ़ की जनता द्वारा सलवा जुडूम के कारण वामपंथी आतंकवादी पीछे कदम उठाने पर मज़बूर हुये हैं
विदेशी सम्मानों ट्राफियों से कोई भी मुलजिम बेकसूर साबित नहीं हो जाता
यदि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने मुलजिम विनायक सेन को जमानत देने से इंकार किया है तो क्या ये सारे के सारे न्यायालय गलत हैं?
मनमोहन सिंह को अर्जी देने का क्या तुक हो सकता है क्या प्रधानमंत्री कोर्ट के मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है?
मानवाधिकार के लिये आवाज उठाने वाली तीस्ता सीतलवाड ने जिस तरह झूठे बयान तैयार कराये है इसके बाद मेरा तो भरोसा इन मानवाधिकारवादियों से उठ गया है
अगर विनायक सेन मुसलमान होते और इसने लिए इस्लामिक संगठन आवाज उठाते तो कांग्रेस जरूर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अलग उठाकर रख सकती थी मुझे नहीं लगता कि विनायक सेन के लिये मनमोहन और कांग्रेस उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला बदलेंगे
सबूत तो प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित के खिलाफ एक भी नहीं है उन्हें मकोका में बन्द किया गया है जबकि कसाब तक पर मकोका नहीं लगाया गया
आपका प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित के बारे में क्या कहना है?
भइये, अपनी खुद की बातों के सही होने पर यकीन है, तो गुमनाम या बेनाम क्यों बने रहते हो
यह भी तो बताओ कि किस के विदेशी पैसे से डा. सेन भारत के विरुद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं, और कौन सा षड्यंत्र चला रहे हैं...
वामपंथी आतंकवाद को कत्तई सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन सलवा जुडूम की सच्चाई तो आप शायद जानते ही होंगे, लगातार उसके बारे में अखबारों में छपता रहा है, और यदि इतनी सी बात नहीं जानते हैं, तो विदेशी धन, षड्यंत्र आदि की बात कैसे जानते हैं बेनाम साहब...
और जहां तक न्यायालय की बात है, तो जजों द्वारा रिश्वत आदि के मामलों की जानकारी तो होगी ही और यह भी पता होगा कि एक आरटीआई के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने जजों की संपत्ति का ब्यौरा देने से इंकार कर दिया था
खैर, सुप्रीम कोर्ट इस मामले में न्याय करेगा यही इच्छा है और एक इच्छा यह भी है कि आप जैसे बेनाम लोग सामने आकर बात करने की हिम्मत भी जुटाएंगे
और बेनाम महोदय,
आप लोग 1925 से हिंदू-मुसलमान का रोना रो रहे हैं, बात हो रही है विनायक सेन की तो हिंदू मुसलमान बीच में ले आए, यार बस भी करो गुजरात दंगों से मन नहीं भरा क्या
और खोखली धर्मनिरपेक्षता का जाप करते रहने वाली कांग्रेस ने सुप्रील कोर्ट के किन किन फैसलों को ताक पर (यह शायद आप लिखना भूल गए) उठाकर रख दिया है, हमें भी इस बारे में कुछ ज्ञान दीजिए बेनाम महाराज...
छत्तीसगढ़ राज्य जनसुरक्षा अधिनियम, 2005 अपने आप में गैर जनतांत्रिक और अन्याय पूर्ण तानाशाही सृजित करने वाला औजार है। न्यायालय के हाथ तो इस अधिनियम ने बांध रखे हैं। वैसे इस मामले में छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार और पुलिस वास्तविक अपराधियों के विरुद्ध कुछ नहीं कर पा रही हैं उसे बाद में बहुत पछताना होगा।
भाई, 16 अप्रेल को छत्तीसगढ़्र राजनांदगांव में माओवादी हत्यारों के जीप को उड़ा दिया जिसमें पांच बेकसूर नागरिक मारे गये और दो घायल हो गये
छत्तीसगढ़ के ही दंतेवाड़ा और नारायणपुर में मतदान केन्द्रों को आग के हवाले कर दिया जिसमें सीआरएफपी के दो जवान मारे गये और पांच अन्य घायल हो गये
आपके जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर क्या इन कत्ल कर दिये गये नागरिकों का दर्द समझकर इनके वारे में भी कुछ लिखने की जहमत उठायेंगे?
या सिर्फ माओवादी आतंकवादियों और सहयोगियों के पक्ष में ही बोलेंगे?
माओवादियों का सही स्थान हिन्दमहासागर के तल में है
जिस मानवद्रोही व्यवस्था की कोख से ''माओवादियों'' का जन्म होता है, उसे हिंदमहासागर में फेंक दो मित्र, फिर जिन्हें तुम माओवादी कहते हो, वे भी नहीं रहेंगे,
आप लक्षणों के बजाय रोग की वजह को दूर कीजिए बेनाम साहब....
असल में जब सच को सच साबित करने के लिए सघर्ष करना पड़ता हो तो न्याय की उम्मीद बहुत कम रह जाती है।
shame for democracy
shukria kapil bhai
is zaroori post ke liye
सही कह रहे है,डा सेन के लिये तो बड़े-बडे नामी-गिरामी लोग पैरवी कर रह है।मगर उन पुलिस वालो और निर्दोष आदिवासियों का क्या जो बिना वजह नक्सलियो के हाथो मर रहे हैं?
अपना नाम छुपाकर टिप्पणी करने वालों ने दिखा दिया है कि वे तालिबान से किसी प्रकार कम नहीं हैं। अनिल जी निर्दोष लोगों की जान लेने को किसी प्रकार जायज नहीं ठहराया जा सकता लेकिन निर्दोष लोगों की जान सिर्फ नक्सली ही नहीं लेते हैं। आपकी सरकार भी निदोर्ष लोगों की जान लेती है। सबसे पहले तो आपको अपने दिमाग पर जोर देकर यह सोचना चाहिए कि अगर सरकार आदिवासियों की जमीन को कौडि़यों के मोल पूंजीपतियों को न बेचती और उनकी शिक्षा दीक्षा और रोजगार के लिए प्रयास करती जैसा कि आजादी के बाद करने का वादा किया था तो नक्सली समस्या पैदा ही नहीं होती। आपको छत्तीसगढ़ में बेकसूर लोगों के मरने का दुख है मगर आपकी सेना जब उत्तर पूर्व में महिलाओं का बलात्कार करती है तब उन बेकसूर लोगों के बारे में आपको कुछ नहीं कहना होता। जिन्हें नक्सली मारें वो बेकसूर और जिन्हें आपकी सरकार मारे वो सब कसूरवार बस यही आपके न्याय का सार है। वैसे आपके ज्ञान के लिए इतना भी बता दें कि हमारे देश में हर दिन औसतन 4 बेकसूर लोग पुलिस हिरासत में मार दिए जाते हैं तो जरा बताइये कि नक्सली ज्यादा खतरनाक हैं या हमारी पुलिस। समझदारी तो यही होगी कि हम दोनों प्रकार की हिंसा के खिलाफ हमें लड़ें। एक के खिलाफ दूसरे को जस्टिफाई करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा।
वैसे इतना भी समझ लें तो बेहतर होगा कि जब तक समाज में शोषण उत्पीड़न अन्याय होगा तब तक समाज में हिंसा पनपती रहेगी। और यह भी समझ में लिजिए अनिल साहब कि हिंसा की शुरूआत करना शोषित व्यक्ति की इच्छा नहीं होती बल्कि वह मजबूरी में यह कदम उठाता है, हिंसा की शुरूआत हमेशा ताकतवर तबका करता है। इसलिए हमें गैरबराबरी पर टिकी यह व्यवस्था बदलनी होगी।
संदीप शुक्रिया, बेनामियों को अच्छा जवाब दिया है आपने। वैसे इन बेनाम टिप्पणियों पर मेरा सोचना थोड़ा अलग है। मुझे लगता है कि छुप कर टिप्पणियां करने वाले इन हिटलर, गोएबल्स की नाजायज औलादों का मकसद ही झूठ को बार-बार उछालना होता है। इन लोगों को जवाब देना उस लक्ष्य का अपमान है जिसके लिए विनायक सेन जैसे लोग लड़ रहे हैं। विनायक सेन का मामला भारतीय लोकतंत्र और उसकी न्यायपालिका का अभूतपुर्व मामला बन गया है। उनका समर्थन करने वाले लोग माओवादियों के रास्ते से भले सहमत न हों, पर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए जरूर चिंतित हैं। इस मामले में या तो विनायक सेन हारेंगे या फिर समाज के लोकतांत्रिक मूल्य।
अनिल पुसदकरजी, चलिए मान लेते हैं कि माओवादियों का रास्ता गलत है। लेकिन आपको जवाब देना होगा कि आप ऐसी सामाजिक व्यवस्था के पक्ष में हैं या उसके खिलाफ जहां रोजाना पुलिस हिरासत में 4 लोगों को मार डाला जाता है, जहां हर साल 4,00,000 कामगार फैक्ट्रियों खदानों में काम करते हुए मारे जाते हों, जिस देश में रोजाना 6,000 बच्चे भूख और कुपोषण से अकाल मौत मारे जाते हैं। आपको बताना चाहिए कि इस देश में आप किसके साथ खड़े हैं - 75 फीसदी आम जनता के साथ या 25 फीसदी ऊपर के लोगों के साथ। ये 75 फीसदी लोग इस सामाजिक व्यवस्था से हताश हैं और एक न एक दिन इससे बेहतर व्यवस्था का रास्ता तलाश ही लेंगे। तय आपको करना है। वैसे हो सकता हो कि ये बातें कोई असर न करें। क्योंकि कई बार आदमी दिल से अच्छा सोचते हुए भी अपने आसपास के परिवेश, पद, ओहदे, मान-सम्मान की चिंता में सही बात को स्वीकारने से कतरा जाता है। बात स्पष्ट करनी थी इसलिए तीखी बात की है, उम्मीद है बात का मर्म समझेंगे, अन्यथा न लेंगे।
आश्चर्य है
स्टालिन, और माओ की नाजायद औलादें दूसरे के ऊपर आरोप लगा रहीं है, भारत के लोकतंत्र को गरियाने वाले कपिल बतायेंगे कि उनके नाजायत पिता माओ के चीन में कितने लोग हिरासत में मरे? थ्यानमन चौक में कितने निरपराध छात्रों का खून बहा दिया गया?
भारत के कामगारों की बुरी हालत बता कर ये माओवादियों के आतंकवाद को सही ठहरा रहे हैं, कुपोषण और अकाल के आंकड़े देकर ये माओवादी आतंकवादियों द्वारा निरपराध जनता के मारे जाने को सही ठहरा रहे हैं
छत्तीसगढ़ की जनता ने पिछले चुनावों में इनकी वास्तविक औकात बता दी है,
जिन आतंकवादियों को देश के लोकतंत्र में कोई आस्था नहीं है वह देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के जीतने की बात किस पाखंड से कर रहे हैं!
देश के लोकतांत्रिक मूल्य जीतेंगे और हथियारों की भाषा बोलने वाले माओवादी आतंकवादी, इनके विनायक सेन जैसे पैरोकार हमेशा हारेंगे
देश के लोग और व्यवस्था हथियारों का जबाब हथियारों से ही देगी, अपने छुद्र स्वार्थों के लिये हथियारों की भाषा बोलने वाले और जब उन हथियारों का जबाब हथियारों से मिला तो लोकतंत्र के लिये रोने वाले लोगों का दोमुहापन हम सबने देख लिया है
देवेंद्र जी के लिए देश की जनता की मतलब देश की आबादी का 20 प्रतिशत ऊपर का तबका है। देवेंद्र जी भी इसी तबके से आते होंगे इसलिए उन्हें इस तबके के हितों के खिलाफ पड़ने वाली हर जायज बात नाजायज लगती है। पर देवेंद्र जी इतिहास ने हमेशा ही यह सिद्ध किया है कि सदियों से दबाए गए लोग उठे हैं और उन्होंने बड़े बड़े साम्राज्यों को इतिहास की कचरा पेटी के हवाले कर दिया है। और ऐसा सिर्फ हथियार की ताकत से नहीं किया गया है। अंग्रेजों को सिर्फ हथियार की ताकत से नहीं भगाया गया और न जार की सत्ता को सिर्फ हथियार की ताकत से उखाड़ा गया। हथियार तो उनके पास ही अधिक थे। हमारे देश में भी जो लोग सोचते हैं कि हथियार के दम पर जीत जायेंगे उनके खिलाफ प्रचार करना जरूरी है। आज चीन और रूस में जो हो रहा है उसके खिलाफ वहां की जनता संघर्ष कर रही है और एक बार संघर्ष शुरू हो जाता है तो किसी न किसी अंजाम पर पहुंच कर ही ठहरता है। शोषण करने वाले शासक वर्ग के खिलाफ जनता के हर संघर्ष को हमें समर्थन देना चाहिए। यह नहीं करना चाहिए कि दूसरे देशों के शासक वर्ग के खिलाफ लोगों के संघर्ष को वाह वाह किया जाये और अपने देश की जनता की छाती पर मूंग दलने वाले शासक वर्ग के खिलाफ लोगों के संघर्ष को गरियाया जाये, जैसा कि आप कर रहे हैं। आप की बात का कुल मतलब सिर्फ यह है कि हम जो करें वह ठीक और वही काम दूसरा करे तो खराब।
देवेंद्र जी आपको शायद अंदाजा नहीं है कि आप देश की 80 प्रतिशत आबादी के खिलाफ 20 प्रतिशत लोगों के लूट के राज की मुस्तैदी से वकालत कर रहे हैं। और आप चाहे धर्म की आतंकवाद की नक्सलवाद की जिसकी भी दुहाई दें वास्तव में आप कर यही रहे हैं (यानी लूट के राज की वकालत)।
mere blog mein is baare mein padhein to shaayad kuch vichaar badle. http://indian-sanskriti.blogspot.com
main koi kattar dharmawlambi nahi hoon lekin mujhe apne dharm aur apni dharti par garv hai. nepal kee halat dekhakar bhi agr hamari aankh nahi khulati to kaun jimmedar hai.
Vinayakji Vellore hi kyon jaana chahte hain?
Mujhe kshama karein is tippani ke liye, naam se to wo hindu lagte hain dharm shayad koi aur hai?
सिन्हा जी अपनी धरती पर मुझे आपसे कम गर्व नहीं है लेकिन मुझे और भी ज्यादा गर्व होगा जब हमारी धरती पर कोई शोषक और शोषित तबका नहीं रह जाएगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं दूसरे देशों की धरती और वहां के लोगों को अपने से कमतर मानता हूं। नेपाल के बाद भी आपकी आंख नहीं खुली तो इसके लिए आप ही जिम्मेदार हैं। आज नेपाल में उससे कहीं अधिक जनवाद है जितना हिन्दू राजाओं के अधीन हुआ करता था। आज वहां की आम आबादी की शासन में हिस्सेदारी है और यही बात शायद आपको खटकती है। क्योंकि आपको हिन्दू राजा चाहिए भले ही वह अपने भाई का कातिल हो। वैसे आपको यह भी जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे संस्कृति पर भी गर्व है लेकिन वह संकीर्ण अर्थों वाली संस्कृति नहीं जिसका हमारे धार्मिक लोग प्रचार करते हैं। ईश्वर की सत्ता पर सवाल उठाने वाली गार्गी पर मुझे गर्व है जिसे मृत्यु का भय दिखाकर चुप करा दिया गया। हमारे यहां लोकायत और भौतिकवाद की भी परंपरा रही है और मुझे उसपर गर्व है। मुझे भी अपनी धरती और संस्कृति पर गर्व है लेकिन फर्क् इतना है कि हमारी संस्कृति के जिन पक्षों पर मुझे गर्व है उनपर आपको गर्व नहीं होगा।
वैसे समाज कोई ऐसा ढांचा नहीं होता जिसमें परस्पर विरोधी विचार न हों। ईरान और अफगानिस्तान में भी सही विचारों वाले लोग हैं भले ही वे कम हों और उनकी ताकत कम हो।
देश और संस्कृति पर गर्व होने का मतलब यह नहीं होता कि हर चीज को आंख मूंद कर स्वीकार कर लिया जाए। गलत की आलोचना न की जाए उसपर बात न की जाए।
शायद आपने एक प्रसिद्ध कवि की ये पंक्तियां पढ़ी होंगी :
लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण को मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ों बंधन रोको न चिंतन
गति जीवन का सत्य चिरंतन........।
देशप्रेम का ठेका सिर्फ हिंदूओं को ही नहीं मिला हुआ है।
आपके चिंतन की सीमा यहीं तक जाती है कि आप विनायक सेन के नाम से उनका धर्म पता करने चल दिये। और उनके वेल्लोर जाने को भी धर्म से जोडने लगे। मतलब आपका कुल मिलाकर यही है कि अगर विनायक सेन वेल्लोर जाते हैं तो उनका जेल में बंद होना सही है। तो सिन्हा साहब मेरी या किसी और की सोच बदलने से पहले आप जरा अपनी सोच का ख्याल कीजिये।
मैं किसी की सोच नहीं बदलना चाहता . अगर आपकी सोच यही है की समस्याओं का हल बन्दूक से ही हो सकता है तो ये आपको मुबारक हो. इस देश के पास इतना कुछ है कि इसे विदेशों से माओ, लेनिन और मार्क्स की आयाश्क्यता नहीं है .जहां इन्होने जन्मा लिया आज वहीँ इन्हें नकार दिया गया . साम्यवाद का दुनिया में लगभग सफाया हो गया तो अब ये इस देश में पीछे के रस्ते से घुसने की कोशिश कर रहा है.
श्रीलंका जैसे देश से हमें सबक लेना चाहिए जिसने अपनी सुरक्षा का जिम्मा खुद उठाया . किसी भी देश में जहां जनता वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनती है वहाँ २०% की नहीं बल्कि जो वोट देते हैं उनकी चलती है.
गरीब बेसहारा आदिवासियों का खून बहाकर कौन सी क्रांति हो जायेगी, उनके साथ हो रहे अत्याचार और अनाचार के लिया कौन जिम्मेदार है ? इसके लिए धन और हथियार कहाँ से आ रहे हैं ? क्या इसे एक आन्दोलन कहकर आँख मूँद ली जाये जबकि वास्तविकता कुछ और है. जो हाल पाकिस्तान का अपनी खुद की नीति के कारण हुआ है क्या वही हमें भी स्वीकार कर लेना चाहिए . तालिबान को पैदा करो और फिर उसे अपने सर पर बैठा लो .
४ सालों तक सरकार से बाहर रहकर मलाई खाते दलों ने किनारा कर लिया ये कहकर के वे अब कभी कांग्रेस का साथ नहीं देंगे . अभी तो पूरा चुनाव नहीं हुआ और मिलन की सुगबुगाहट चालू हो गयी है ?
मैं एक आशावादी हूँ और पूरी उम्मीद है के सभी के लिए अच्छे दिन आयेंगे , पहले उसकी आहुति देनी पड़ेगी लेकिन पीछे के रास्ते से बन्दूक और गोली से नहीं . ऐन चुनाव से पहले सरकार से बात करने की इच्छा जाहिर कर कितने ट्रक असला छत्तीसगढ़ में लाने की तयारी थी भगवान् ही जाने?
जहां तक मैंने नाम और धर्म के सम्बन्ध की बात उठाई है तो पहले से ही मैंने छमा याचना कर ली थी , किन्तु ये कोई छोटा मुद्दा नहीं है . नाम एक व्यक्ति की पहचान होती है , मुस्लिम भी अपना एक नाम रखते हैं लेकिन अगर कोई गैर हिन्दू , हिन्दू नाम रखता है तो कुछ तो इसका अन्य कारण होगा
मेरा बिनायक सेन से कोई पर्सनल विरोध नहीं है . लेकिन जिस तरह का घटनाक्रम हुआ है वह संदेह को जन्म देता है . क्या जस्टिस कृष्ण अय्यर का अपनी ही सर्वोच्च संस्था से विश्वास उठ गया है कि उन्हें प्रधानमंत्री से अपील करनी पद रही है . क्या वे भी व्यवस्था भूल गए ? अगर अपील ही करनी थी तो राष्ट्रपति से करते
krupya ise dekh lein!
http://sanjeettripathi.blogspot.com/2009/04/blog-post_08.html
एकबार फिर सिन्हा जी आपकी इतिहास की समझदारी पर मुझे तरस आता है। पहली बात तो यह कि साम्यवाद को पूरी दुनिया के क्या दुनिया के किसी कोने में नकारा नहीं गया है और यह अब भी एक मजबूत आन्दोलन है और आने वाले दिनों में इसके और मजबूत होने की उम्मीद है जैसा कि पिछले दिनों यूरोप में होने वाली घटनाएं दिखा रही हैं कि हर जगह मजदूर आंदोलन फिर से सक्रिय हो रहे हैं।
दूसरी बात जिन देशों में साम्यवादी प्रयोगों को पीछे हटे हैं उनके बारे में आपको पता होना चाहिए कि वहां पराजय मार्क्सवाद की नहीं बल्कि मार्क्सवाद में संशोधन करने वाली ताकतों की हुई और इससे फिर एक बार सिद्ध हुआ कि सर्वहारा अधिनायकत्व ही समाजवादी क्रान्ति का रास्ता हो सकता है। रूस और चीन ने मार्क्सवाद को और भी पुख्ता प्रमाणों के साथ पुष्ट कर दिया है कि स्तालिन और माओ का ही रास्ता सही था और ख्रुश्चोव और देंग चियाओ पिंग का रास्ता गलत था। वैसे आपको यह तो पता ही होना चाहिए कि कोई प्रयोग पहली ही बार में सफल नहीं हो जाता। पूंजीवादी वर्ग को सामंतवाद से संघर्ष में कई सौ सालों तक पराजय खाने के बाद ही कहीं जाकर जीत हासिल हुई थी।
तीसरी बात मैंने पहले ही बंदूक से बदलाव करने वाले लोगों की सोच को गलत कहा है और उसके खिलाफ प्रचार करने की बात कही है इसलिए मुझे बंदूक का समर्थन करने का आप का आरोप गलत है कृपया टिप्पणी करने से पहले दूसरे की बात को ध्यानपूर्वक पढ़ने का कष्ट करें।
चौथी बात अगर आप सीपीआई सीपीएम को कम्युनिस्ट पार्टियां समझते हैं जैसा कि अन्य बहुत सारे लोग समझते हैं तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मार्क्सवाद का ककहरा पढ़ा कोई व्यक्ति भी बता सकता है कि सीपीआई सीपीआई (एम) का कम्युनिज्म से दूर दूर तक का कोई वास्ता नहीं है सिवाय इसके कि कम्युनिज्म को बदनाम करने का ठेका इन्होंने ले लिया है। मार्क्स और लेनिन की कोई बात ये पार्टियां अमल में नहीं लाती हैं लेकिन किसी को अपने नाम में कम्युनिस्ट जोड़ने से रोका तो नहीं जा सकता है।
पांचवीं बात आपने इतना तो सही कहा कि नाम व्यक्ति की पहचान होती है लेकिन व्यक्ति की पहचान में धर्म को जबरदस्ती आप क्यों घुसेड़ रहे हैं। मेरे नाम से आपको लग सकता है कि मैं हिन्दू हूं लेकिन हिन्दू धर्म से मेरा दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है और न ही किसी अन्य धर्म से क्योंकि मैं किसी धर्म में या भगवान में विश्वास नहीं करता। हिन्दू परिवार में सिर्फ पैदा हो जाने के कारण उस परिवार का धर्म मेरे ऊपर क्यों थोप रहे हैं। मेरा नाम मेरी मातृभाषा में रखा गया है और भाषा को धर्म से नत्थी करने की आप नाहक कोशिश कर रहे हैं। तान्या नाम दुनियाभर की भाषाओं और धर्मों में पाया जाता है फिर आप तान्या नाम की महिला का नाम सुनकर उसे किस धर्म से जोड़ेंगे। अच्छा जरा बताइये कि चार्वाक को आप किस धर्म से जोड़ेंगे। वे तो महाशय कट्टर नास्तिक और भौतिकवादी थे। आप क्या उन्हें भी हिन्दू कहेंगे क्योंकि उनका नाम चार्वाक था और जोसेफ या इस्माइल नहीं था।
छठवीं बात ये कि वोट देने का अधिकार मिल जाने से यह साबित नहीं हो जाता कि राज किसका है। भारत में वोट का अधिकार मिल जाने के बाद भी यहां का शासन बहुमत जनता पर अल्पमत शोषकों का ही शासन है। ऐसे तमाम सारे तरीके हैं जिनसे वोट देने का अधिकार देकर भी जनता को निर्णय में भागीदारी करने से वंचित किया जा सकता है।
जस्टिस अय्यर के बारे में बारे में आपकी टिप्पणी भी आपकी अधकचरी समझ से पैदा हुई है। उन्होंने एक कानून के तहत फंसे एक निर्दोष व्यक्ति की समस्या पर ध्यान आकृष्ट किया है कानून पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया है। वैसे आपकी समझदारी पर तरस भी आता है कि कानून कोई आसमान से उतरी पवित्र चीज नहीं है उसे यहीं के लोगों ने बनाया है और यहीं के लोग उसका तरह तरह से इंटरप्रिटेशन भी करते हैं। इसमें सही गलत की पूरी गुंजाइश रहती है तभी तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय तक बदले जाने के प्रावधान बनाए गए हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी कमी की तरफ ध्यान आकृष्ट करे तो इसका मतलब यह नहीं कि उसका विश्वास उठ गया है। अगर विश्वास उठ जाता तो फिर जस्टिस अय्यर पत्र क्यों लिखते फिर तो कोई और रास्ता अख्तियार करते।
विनायक सेन से भले आपका निजी विरोध न हो लेकिन अपने अपने आदर्शों के कारण आप दोनों विरोधी पाले में जरूर खड़े नजर आते हैं और यह विरोध इतना तीखा तो है ही कि दो साल से जेल में डालने के बाद भी पुलिस कोई प्रमाण नहीं पेश कर सकी और फिर भी आप सरकार का पक्ष ले रहे हैं तो यह किसी निजी विरोध से कम भी नहीं है।
हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमे इतनी शक्ति है, जो इसमें पैदा होने वालों को ये छूट देता है कि वे इसके विरोध में भी बोल सकें .कुछ लोग इसे अगर इसकी कमजोरी समजते हैं तो उनकी गलती है वैसे वास्तविकता तो येही है कि हर व्यक्ति पैदा हिन्दू ही होता है उसे बाद में किसी अन्य धर्म में लिया जाता है . नाम और मातृभाषा व्यक्ति की पहचान होती है , इसमें भी आपका कोई विरोध है तो ये आपकी सोच है
सुप्रीम कोर्ट ने अगर जमानत नहीं दी तो कोई तो ठोस कारण होगा ? सरकार और न्याय पालिका को अगर आप एक करके देख रहे हैं तो ये आपका सर्वोच्च संस्था पर अविश्वास है . अगर पुलिस कोई सबूत नहीं पेश कर सकी तो क्या सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के कहने पर जमानत नहीं दी , याने मिलीभगत है या सुप्रीम कोर्ट ने कोई सपना देखा है .
चीन, पूर्वे जर्मनी और रूस में जितना मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ और चीन में अभी भी जो हो रहा है , उतना विश्व में कहीं नहीं .
देशी कम्युनिस्ट बंगाल में कुछ कहते हैं और छत्तीसगढ़ में कुछ और . बंगाल में सिंगुर में कारखाना लगाने के लिया टाटा को बुलाते हैं और छत्तीसगढ़ में बस्तर में उन्ही का विरोध करते हैं..ये सब राजनीतिक गंदगी है " गन्दा है पर धंदा है "
धर्म के विषय में एक बार फिर आप गलती पर हैं। हर धर्म में उसके खिलाफ बोलने वाले लोग पहले भी हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। हिंदू, मिस्लिम, ईसाई, यहूदी हर धर्म में ऐसे लोग हैं जो उस धर्म का विरोध करते हैं। आप नाहक इसे सिर्फ हिंदू धर्म की विशिष्टता बता रहे हैं। वैसे यह कहकर कि हर व्यकित पैदा हिंदू ही होता है आपने अपनी असहिष्णुता का परिचय दे दिया है। मेरा मानना है कि पैदा होते समय बच्चे का कोई धर्म नहीं होता है और कायदे से होना तो यह चाहिए कि वयस्क होने पर किसी व्यक्ति को अपना धर्म चुनने या कोई धर्म न चुनने की आजादी होनी चाहिए। तब वास्तव में पता चल जायेगा कि कौन धर्म कितना सहिष्णु है। वैसे दलित जातियों पर किये गये अत्याचारों की अंतहीन फेहरिस्त (जो आजतक निरंतर लंबी होती जा रही है) के बावजूद आप हिंदू धर्म को सहिष्णु बताना चाहते हैं तो आपको कौन समझा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत न दिये जाने का एकमात्र ठोस कारण एक क्रूर कानून है इसके अलावा और कोई कारण नहीं है। सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के बाद जमानत न दे तो बात समझ में आती है लेकिन इस कानून ने तो न्यायालय के ही हाथ बांध दिए हैं। वैसे सिन्हा जी आप इतने नासमझ तो नहीं हैं कि यह न जानते हों कि सुप्रीम कोर्ट अपने आप में न्याय की गारंटी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट आदेश देती रहती है और असलियत में वो लागू नहीं होता है। और गरीब आदमी के पास इतनी पहुंच नहीं होती कि वह सुप्रीम कोर्ट के अपने हक में दिए गए आदेश भी लागू करवा सके। वैसे अगर आपको न पता हो तो यह आम समझदारी भी आपको बताता चलूं कि हमारी कानूनी व्यवस्था भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है और स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अनेक बार आपत्ति की है। अगर पुलिस दो साल में कोई ठोस सबूत नहीं जुटा सकी है तो इसकी सजा विनायक सेन को क्यों मिले।
सीपीआई, सीपीएम और नक्सली इन तीनों प्रकार के तथाकथित कम्युनिस्टों का विरोध मैं करता हूं और आगे भी करता रहूंगा (इसमें कम्चुनिज्म की गलत समझदारी के कारण दुनिया के अन्य स्थानों पर होने वाले अत्याचार भी शामिल हैं) पर क्या आप धार्मिक फासीवादियों का विरोध करने की हिम्मत जुटाएंगे या उनकी ज्यादतियों का समर्थन करते रहेंगे।
लगता है चोट सही निशाने पर लगी। मैंने बेनाम टिप्पणी करने वालों के लिए कुछ कहा तो फनफनाते हुए देवेन्द्र जी कूद पड़े। ऐसा लगता है जैसे उन्हें किसी ने जलते हुए तवे पर बिठा दिया हो, छन्न-छन्न की आवाज अब तक सुनाई पड़ रही है। भईया आपको क्यों बुरा लगा मैंने तो बेनाम टिप्पणी करने वालों के लिए हिटलर और गोएबल्स की नाजायज औलादें होने का प्रयोग किया था। कहीं आपने ही तो ये टिप्पणियां नहीं की थीं। खैर, फिर भी अगर देवेद्र जी को बुरा लगा तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं। अपने पूर्वजों के अपमान पर किसी का भी खून खौलना स्वाभाविक ही है।
जहां तक बात है दोमुहेंपन की तो आपका दोमुहांपन तो खुद ऊपर उजागर हो चुका है। हां मैं विनायक सेन की रिहाई का समर्थन करता हूं और इसके साथ ही मैं माओवादियों के रास्ते और तरीके का कायल नहीं हूं। यहां यह भी साफ कर देने की जरूरत है कि माओवाद के नाम पर हमारे देश में चल रहा सशस्त्र आंदोलन फिलहाल माओ की मूल विचारधारा को ही खारिज कर रहा है। वैसे यह एक अलग चर्चा का विषय है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की आलोचना करना गलत नहीं हॅ। देवेंद्र जिस सवाल से बार-बार कन्नी काट रहे हैं उसे फिर से सामने रख रहा हूं। और साथ ही चुनौती भी देता हूं कि अगर अपने विचारों पर रत्ती भर भी विश्वास है तो खुलकर बहस करें (छुपकर पीछे से वार करना तो महान ''हिन्दू'' सभ्यता में भी गलत बताया गया है।)
क्या आप ऐसी सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर हैं
1. जहां 22 करोड़ों बेरोजगारों के भविष्य का कोई रास्ता इसके पास नहीं है
2. जहां हम अपने 70 फीसदी बच्चों को ढंग का खाना तक नहीं दे पा रहे हों।
3. जहां 80 करोड़ लोग 20 रुपया रोजाना पर गुजारा करने पर मजबूर हों।
वैसे आपके लिए ये सिर्फ आंकड़ें हो सकते हैं क्योंकि हो सकता है कि आपके अंदर हिटलर की जलती हुई लाश की गंध भर गई हो और आपकी नाक इसकी आदी ही नहीं हो गई हो बल्कि इसका आनंद भी लेने लग गई हो। यह भी समझ लें कि ये सवाल आपसे ज्यादा इस बहस में कई लोगों की बढ़ती जा रही रूचि के कारण किये जा रहे हैं।
कुछ लोगों द्वारा किये गए कार्य के लिए किसी धर्म को उसका जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता . जहाँ तक सहिष्णुता की बात है तो ये देश सहिष्णुता के कारण ही चल रहा है वर्ना पाकिस्तान या अफगानिस्तान बन गया होता . हर व्यक्ति को इस देश में ये आजादी है कि वो अपना धर्म चुन सके या बदल सके , आप किसका इन्तेजार कर रहे हैं ? अविश्वासी और अधार्मिक लोगों को भी अपनी एक अलग पहचान बना लेनी चाहिए, इन्टरनेट ने तो इसका काफी उपयोग किया है छद्म नामो से .
इस आजादी का कितना दुरूपयोग इस देश में बाहरी ताकतों ने किया ये बताने कि आवश्यकता नहीं है . आपका प्रोफाइल देखा काफी पढ़े लिखे हैं , अपने आप को छुपा क्यों रखा है ? अपना एक चित्र भी लगाइए , ये मत कहियेगा चित्र से क्या होता है :).
बिनायक सेन के बारे में आपकी जानकारी किन सूत्रों से है मुझे नहीं मालूम अगर आप की जानकारी के लिए बता दूं अगर आप राष्ट्रीय मीडिया से प्रभावित हैं तो क्षमा चाहूँगा उसे भी प्रभावित किया जा रहा है . अगर विश्वास हो तो छत्तीसगढ़ के मीडिया से संपर्क करें . शायद अब तक आपने संजीत भाई का लिंक देख लिया होगा अरुंधती रॉय के सन्दर्भ में .
अरुंधती रॉय के द्वारा दिया गया बयान मीडिया को मेघा जी ने भेजा है , आपने तो पढ़ा ही होगा जान कर आश्चर्य हुआ कि छत्तीसगढ़ में अराजकता फैली हुई है . इसमें ये भी लिखा है कि बिनायक सेन एक और नक्सली नेता (?) के surgical इलाज के लिए जेल उनसे मिलने जाते रहे हैं . जहाँ तक मेरी जानकारी है बिनायक सेन एक शिशु रोग विशेषज्ञ हैं.. रायपुर में जेल के सामने ही मेडिकल कॉलेज है और जेल में भी एक अस्पताल है.
दोस्त मार्मिक अपील है।... आपका ब्लॉग भी शानदार है। मेरे ब्लॉग पर आपके कमेंट्स का आगे भी इंतज़ार रहेगा।
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