Sunday, April 19, 2009

क्‍या शन्‍नो की मौत का इंसाफ मिलेगा??????

कितना भोला है शन्‍नो का बाप अयूब खान। नहीं जानता कि उस जैसे लोगों को इस समाज में इंसाफ नहीं मिला करता।
दिल्‍ली की मेयर के पचार हजार रुपये, राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की बयानबाजियां। अयूब खान ये सब नहीं जानता। वो बस इतना जानता है कि उसकी प्‍यारी बेटी शन्‍नो को एक जालिम टीचर ने मौत के घाट उतार दिया है। उसे कुछ नहीं चाहिए सिवाए इंसाफ के।
अगर अयूब खान जैसे लोगों को इंसाफ मिल ही रहा होता तो शायद मंजू राठी जैसी टीचर शन्‍नो को इतनी बुरी तरह सजा देने की कभी हिम्‍मत न कर पाती। अगर इंसाफ ही मिलना होता तो आज बवाना पुनर्वास बस्‍ती के सैकड़ों लोगों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर लाठियों से न पीटा होता। अगर इंसाफ ही मिलता होता तो तरह-तरह के सरकारी बजूके क्‍यों खड़े किये जाते। क्‍या ये सारी चीजें इसलिए ही नहीं हैं कि शन्‍नो मारी जाती रहें और उसका बाप और उसकी मौत से उबलने वाले हर शख्‍स को हर किस्‍म का तरीका इस्‍तेमाल करके चुप करा दिया जाए। किसी को जांच का वायदा करके, किसी को सख्‍त कार्रवाई का झूठा भरोसा दिलाकर और किसी को उसकी बेटी की लाश के बदले चंद रुपये थमाकर।
शन्‍नो को सजा देने वाली टीचर मंजू के ससुर का कहना है कि शन्‍नो का बाप पैसा खाकर राजनीति का मोहरा बन रहा है। मंजू राठी सोनीपत की है, जाट है, और अच्‍छे-खासे खाते-पीते परिवार से है। जाटों की सामन्‍ती मानसिकता हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रेमविवाह करने वाले अपने बच्‍चों, दलितों और दूसरे गरीब-पिछड़े लोगों को गंडासे से काटती रहती है। यह गौर करने वाली बात है कि ऐसी निरंकुश और बर्बर जमीन से आने वाली मंजू राठी की सोच गरीब और गंदे लोगों (मुसलमानों) के बच्‍चों के बारे में क्‍या हो सकती है। क्‍या ऐसा नहीं हो सकता कि इ‍तनी कड़ी सजा देने के पीछे कोई सामाजिक पूर्वाग्रह काम कर रहा हो। ये लोग पैसे वाले हैं, दिमाग वाले हैं, रसूख वाले हैं लिहाजा कुछ भी बोल सकते हैं और जब चाहेंगे तब कानून को अपने हिसाब से मोड़ भी लेंगे।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस सारे खेल और इन बिजूकाओं की असलियत लोगों को समझ नहीं आ रही है। लोग समझने लगे हैं कि आज अगर एक गरीब की बेटी की मौत मीडिया में उछल गई है तो भले ही दिल्‍ली नगर निगम से लेकर मानवाधिकार आयोग और भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री राहत देने, उचित कार्रवाई करने और जांच करवाने की बातें कर रहे हों लेकिन दरअसल होगा कुछ भी नहीं। क्‍योंकि इस समाज में हर चीज के दो चेहरे हो गये हैं.... इंसाफ के भी। अयूब खान के लिए इंसाफ का मतलब ज्‍यादा से ज्‍यादा चंदेक हजार रुपयों की खैरात हो सकता है जबकि किसी अमीर की बेटी की जान की कीमत पूरे सिस्‍टम का ऊपर से नीचे तक हिलना और भूचाल आना हो सकता था।
फिलहाल बवाना पुनर्वास बस्‍ती के लोग गुस्‍से में हैं। उन्‍हें इस बार जांच के वायदे, मंत्रियों के बयान और सरकार की राहत राशि के पैसे नहीं चाहिए। उन्‍हें इंसाफ चाहिए...।
मुझे लगता है कि अपने बच्‍चों की मौत का इंसाफ मांगते इन लोगों का इस समाज पर और उसे चलाने के तरीके पर भरोसा जितना जल्‍दी टूटेगा, उन्‍हें असलियत में इंसाफ मिलने का रास्‍ता उतना ही करीब आ जाएगा।
सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना की कविता की ये लाइनें साफ-साफ बताती हैं:

इंसान की जान से
बड़ा कुछ नहीं होता
न ज्ञान
न ईश्‍वर
न संविधान
न चुनाव

1 comment:

जय पुष्‍प said...

यह समझने के लिए बहुत अक्‍ल की जरूरत नहीं है कि इस सुस्‍त और खर्चीली न्‍याय व्‍यवस्‍था से प्रभावी न्‍याया की उम्‍मीद करना किसी गरीब के लिए मृगतृष्‍णा से कम नहीं है। अपवादस्‍वरूप न्‍याय मिल भी गया तो इतनी देर से और इतना खर्चीला होता है कि न्‍याय पाने के बाद भी गरीब ठगा से महसूस करता है। लेकिन सबसे अहम बात तो यह है कि अपवाद किसी नियम को झुठला नहीं सकते।