धर्म सदियों से इंसानी जीवन के साथ रहा है। हर चीज़ की तरह इसके भी दो पक्ष रहे हैं। आमतौर पर हमारे देश में धरम पर अवैज्ञानिक नजरिया हावी रहा है। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय भारतीय दर्शन के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान थे। भारतीय दर्शन के वैज्ञानिक पक्ष पर उनकी किताब 'लोकायत: प्राचीन भारतीय भौतिकवाद पर अध्ययन', (१९५९) एक महत्वपूर्ण किताब है। उनके धर्म पर एक लेख के संपादित अंश दे रहा हूँ:-
इंग्लैंड के राजा चार्ल्स प्रथम को प्राणदंड दिए जाने के बीस साल बाद फ्रांसीसी बिशप बोस्सुये ने कहा, "जब आप धर्म के साथ छेड़छाड़ करते हैं तब आप उसे कमज़ोर करते हैं और उसे उस गुरुता से वंचित कर देते हैं जिसके बल पर वेह जनता को नियंत्रण में रखता है। " आप उक्त कथन से सहमत हो या न हो लेकिन आप उसकी उर्क्रिष्ट स्पष्टता से इंकार नहीं कर सकते। बोस्सुये द्वारा किया गया धर्म का समर्थन वस्तुत: बिल्कुल साफ़ शब्दों में धर्म के राजनीतिक कार्य का समर्थन था। इसे जनता को नियंत्रण में रखने का एक कारगर हथियार माना गया है
किसी व्यक्ति के वैयक्तिक विश्वासों में समाजशास्त्री की कोई दिलचस्पी नहीं है।...
आइसोक्रितिज़ इसा पूर्व चौथी शताब्दी का एक सुविग्य यूनानी था। उसने धर्म की उपयोगिता के बारे में लिखा। प्रथम, "क्योंकि उसकी राय में यह उचित था की जनता अपने से बड़ों द्वारा दिए गए प्रत्येक आदेश का पालन करने की अभ्यस्त हो जाए और दूसरे, "उसने देखा की जो लोग अपनी पवित्रता का प्रदर्शन करते थे वे अन्य सभी दृष्टियों से भी कानून का पालन करने वाले होते थे। " वस्तुत: संगठित धर्म जिस प्रकार की आचरण की अपेक्षा करता है, वह ऐसी है जो जनता को अनुपालन का अभ्यस्त कर देती है। जुड़े ही हाथ, झुका हुआ सर, टिके हुए घुटने- दूसरे शब्दों में, सहमति और समर्पण की मुद्रा और मन:स्थिथि। यह वही आचरण है जिसकी एक स्वामी अपने कृत दास से, ज़मींदार अपनी रियाया से, राजा अपनी प्रजा से अपेक्षा करता है।
2 comments:
सही।
सृष्टि में मौजूद हर चीज के लिए आवश्यक है कि वह अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करें वर्ना उसे नष्ट हो जाना होता है। उसी तरह किसी भी सत्ता या शासन प्रणाली के लिए भी जरूरी है कि वह साबित करें कि वही सबसे योग्य, उपयुक्त और वैध प्रणाली है। चूंकि धर्म के मामलों में लोग तर्क का कम प्रयोग करते हैं इसलिए हर युग की राज्यसत्ता ने धर्म का प्रयोग यह सिद्ध करने के लिए किया कि उसे भगवान का समर्थन हासिल है या यह कि धरती पर वही भगवान का नुमाइंदा है और एक सत्ता के रूप में वह जो करता है वह वास्तव में उसकी मर्जी नहीं बल्कि भगवान द्वारा उसे सौंपी गई जिम्मेदारी है। इसलिए हम देखते हैं कि एक समय राजा को भगवान का प्रतिनिधि माना जाता था लेकिन ऐसा भी समय आया जब तर्क और विज्ञान ने आस्था पर विजय पायी और पूरी धरती से राजशाही का नामोनिशान मिट गया। यह बात पूंजीवादी राज्यसत्ता के लिए भी उसी प्रकार लागू होती है बस फर्क यह है कि यह अलग रूप में दिखायी पड़ती है। और निश्चित ही इसका भी उसी प्रकार अन्त होना है जैसे कि राजशाही का हुआ। ऐसे मुद्दों को उठाने का आपका प्रयास सराहनीय है।
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