Wednesday, October 1, 2008

रामलला का लाला से रिश्ता

भव्य रामलीलाओं का मौसम है। लेकिन एक सवाल बार-बार उठता है कि एक-एक पैसा दांत से पकड़ने वाला लाला रामलीला के लिए लाखों रुपये क्यों दे देता है? यह सवाल एक दिलचस्प सामाजिक-राजनीतिक पहलू को खोलता है...


पिछले कुछ सालों में रामलीलाओं का स्वरुप काफी बदल गया है। अब यह बड़ी पूँजी का खेल बन गया है। बाज़ार यहाँ भी पहुँच गया है। लेकिन आज भी व्यापारिक तबका ही इसके आयोजन से लेकर पैसा लगाने में आगे रहता है। ऐसा क्यों है आइये जानते हैं। रामलीला का आधार रामायण है। पहले यह ग्रन्थ केवल महलों और गुरुकुलों तक ही सीमित था। तुलसीदास द्वारा इसका सरल भाष्य लिखने पर यह आम जनता में लोकप्रिय होना शुरू हुआ। सनातन धर्म और उसके राजाओ के लिए यह बड़े काम की चीज थी। इसकी मदद से जनता को धर्मभीरु और राजा का स्वामिभक्त बनने की घुट्टी बड़ी आसानी से पिलाई जा सकती थी। जाहिरा तौर पर राजाओं ने इसे शासकीय प्रश्रय प्रदान किया। राजाओं द्वारा संरक्षित ऐसी रामलीला बनारस के रामनगर और हिमाचल के कुल्लू में आज भी देखी जा सकती है। गीत-संगीत का समावेश होने के बावजूद अभी भी रामकथा का श्रव्य रूप ही ज्यादा लोकप्रिय रहा। स्थानीय स्तर पर रामकथा कहने वालों को ज़मींदारों का सहारा मिला। रामलीला को वर्तमान स्वरुप में लोकप्रिय बनने का कम २०वी सदी की शुरुआत में 'राधेश्याम कथावाचक' ने किया। उन्होंने संक्षिप्त, चुस्त और प्रवाहमय पटकथा के साथ इसमे पारसी रंगमंच की नाटकीयता जोड़ दी। यह वही समय था जब हमारे देश का व्यापारिक तबका राष्ट्रिय आन्दोलन के नेतृत्व को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश कर रहा था। इस उदीयमान तबके को भी राजाओं और ज़मींदारों की तरह रामलीला की उपयोगिता समझ में आ गयी थी। लिहाज़ा तभी से वह इसके पीछे मुस्तैदी से खड़ा हो गया और आज भी खड़ा है।

रामायण जनता को मर्यादा (यानि अपनी औकात) में रहने की सीख देती है। उसे घर पर माँ-बाप, बड़े भाई तो समाज में अपने से बड़े हर किसी की हर सही-ग़लत बात मानने की शिक्षा दी जाती है। उसे सिखाया जाता है की हनुमान की तरह अपने प्राणों की बाज़ी लगा कर आजीवन अपने मालिक के चरणों का दास बना रहना चाहिए। उसे तार्किक, प्रश्न पूछने वाला कतई नहीं होना चाहिए। उसे हर आज्ञा का सर झुका कर पालन करना चाहिए। कुल मिलाकर यह जनता को अतार्किक, आज्ञा पालन करने वाली, स्वामिभक्त और धरमभीरू बनाती है।

यही मूल्य लालाओं को इसे समाज में प्रचारित करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये मूल्य उस तबके के लिए बेहद मुफीद हैं जो २ रुपये की चीज १० रुपये में बेचता हो। जो मेहनत के नाम पर घर से गल्ले पर आना-जाना ही करता हो। जो गद्दी पर बैठे-बैठे धन-संपदा इकट्ठा करता जा रहा हो। जिसे इमानदार और मेहनती काम करने वालों की ज़रूरत पड़ती हो। जिसके लिए अपने नौकरों को संयम का पाठ देना अति आवश्यक हो। उसके लिए हनुमान पैदा कर सकने वाली शिक्षा उसकी कई समस्याओं का हल है। सो ये सारे काम रामलीला बखूबी निभाती है। हालाँकि कोई लाला यह सोच कर रामलीला में दान नहीं देता होगा लेकिन उसकी सामाजिक चेतना उसे इसके लिए प्रेरित ज़रूर करती है।

1 comment:

जय पुष्‍प said...

कपिल यह एक अच्‍छा पयास है। कोई कह सकता है कि धर्म आस्‍था का मामला होता है लेकिन यह सिर्फ आस्‍था का मामला नहीं होता... बल्कि सही कहें तो आम जनता के लिए आस्‍था का मामला होता है लेकिन शासक वर्ग के लिए यह बस शासन का एक उपकरण होता है। इसके कई सामाजिक-आर्थिक पहलू होते हैं और और किसी भी रूप में यह जनता के लिए लाभदायक नहीं होता।