पिछले दिनों वरिष्ठ ब्लॉगर और पत्रकार श्री अनिल पुसदकरजी ने एक भावनाप्रधान पोस्ट लिखी। इसमें उन्होंने किसी ब्लॉगर द्वारा विनायक सेन के मामले में छत्तीसगढ़ के मीडिया को बिकाऊ कहे जाने पर गहरा रोष प्रकट किया था। वाकई बात चोट पहुंचाने वाली थी। लेकिन आदरणीय अनिलजी, आपने नाहक बात दिल पर ले ली। मीडिया के बिकाऊ होने की बात को दिल से नहीं दिमाग से समझना पड़ेगा। पहली बात तो यह कि जब यह बात कही जाती है तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि छत्तीसगढ़ में काम करने वाला हर पत्रकार बिकाऊ है। बिकता वो है जिसके पास बेचने के लिए कुछ हो। खबरों को बेचने वाला अखबार का मालिक होता है न कि उसका रिपोर्टर...
दूसरे इस सच्चाई को अब साफ-साफ स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि मीडिया बिकाऊ बन गया है। मीडिया पर बाजार और पूंजी का शिकंजा अब खुले तौर पर नजर आने लगा है। अब मीडिया खरीद-फरोख्त का सामान बन गया है। मीडिया के बिकाऊपन को इन चुनावों ने खुला खेल फरुर्खाबादी बना दिया है। यह बात पिछले दिनों मीडिया जगत में लगातार कही जा रही है। पुण्यप्रसून वाजपेयी जी ने अपनी पोस्ट में लिखा
''चुनाव चाहे लोकतंत्र की पहचान हो लेकिन चुनाव का मतलब लोकतांत्रिक तरीके से पूंजी और मुनाफा वसूली की सौदेबाजी का तंत्र भी है, जो सभी को फलने फूलने का मौका देता है । लेकिन यह तंत्र इतना मजबूत है कि इसके घेरे में समूचा मीडिया घुसने को बेताब रहता है। यानी यहां टीवी या अखबार की लकीर मिट जाती है। लोकतंत्र में चुनाव का मतलब महज यही नहीं है, मायावती टिकटो को बेचती हैं या फिर बीजेपी और कांग्रेस में पहली बार टिकट बेचे गये। असल में चुनाव में खबरों को बेचने का सिलसिला भी शुरु हुआ। इसका मतलब है अखबारों में जो छप रहा है, न्यूज चैनलो में जो दिख रहा है, वह खबरें बिकी हुई हैं। इसके लिये भी रिपोर्टर को टारगेट दिया जाता है। और संस्थान संभ्रात है तो हर सीट पर सीधे चुनाव लड़ने वाले प्रमुख या तीन उम्मीदवार से वसूली कर एडिटोरियल पॉलिसी बना देता है कि खबरो का मिजाज क्या होगा। यह सौदेबाजी प्रति उम्मीदवार अखबार के प्रचार प्रसार और उसकी विश्वसनीयता के आधार पर तय होती है, जो एक लाख से लेकर एक करोड़ तक होती है। मसलन उत्तर प्रदेश के बहुतेरे अखबार इस तैयारी में है कि लोकसभा चुनाव में कम से कम पचास से सौ करोड़ तो बनाये ही जा सकते हैं। बेहद रईस क्षेत्र या वीवीआईपी सीट की सौदेबाजी का आकलन करना बेवकूफी होती है क्यकि उस सौदेबाजी के इतने हाथ और चेहरे होते हैं कि उसे नंबरो से जोड़कर नहीं आंका जा सकता है। इन परिस्थितियो में खबरों को लिखना सबसे ज्यादा हुनर का काम होता है, क्योंकि खबरों को इस तरह पाठको के सामने परोसना होता है, जिससे वह विज्ञापन भी न लगे और अखबार की विश्वसनीयता भी बरकार रहे।''
कल चंडीगढ़ में बीएसपी की रैली में उसके उम्मीदवार हरमोहन धवन ने मंच से कहा कि अखबार उनकी कवरेज के लिए 10 लाख रुपये मांग रहे हैं। मीडिया सिर्फ बिक ही नहीं रहा है बल्कि नैतिक रूप से भी पतन की गहराईयां भी नाप रहा है। विस्फोट.कॉम पर अखिलेख 'अखिल' जी लिखते हैं
''लोकतंत्र के तीन स्तंभों -विधायिका, न्यायपालिका, और कार्यपालिका के समाज व जन विरोधी क्रियाकलापों, उनके भ्रष्टाचार की बात तो हम अक्सर करते हैं, लेकिन मीडिया के भीतर के भ्रष्टाचार, यौन पिपासाओं, और मीडिया के नाम पर दलाली करने वाले कथित पत्रकारों या मीडियाकर्मियों की चर्चा शायद ही कभी होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि मीडिया के क्षेत्र में काम करने वाले लोग पाक साफ हैं। वास्तविकता तो यह है कि अगर देश के एक सौ नेताओं ने भ्रष्टाचार के दमपर करोडों-अरबों की नाजायज संपत्ति बनायी है तो देश के एक सौ से ज्यादा पत्रकारों ने भी अपनी औकात से ज्यादा की नाजायज संपत्ति जमा की है।''
मीडिया के बारे में जो सन्तई या आदर्शवादी विचार एक नकाब की तरह बचे हुए हैं उनको अब मीडिया के साफगो लोग हटाने लगे हैं। पिछले दिनों आईबीएन7 के आशुतोष ने कहा कि मीडिया में आ रही गिरावट पर ही इतना हल्ला क्यों, गिरावट तो हर जगह आ रही है। यानी जब हर जगह उल्टी गंगा बह रही है तो फिर मीडिया में गंगा की धार सीधी कैसे हो सकती है। विस्फोट.कॉम पर ही संदीप भट्ट ने भी काफी खुल कर लिखा
''हमारे देश में पत्रकारिता के लोगों ने ही प्रेस को मीडिया की चमक दमक से छिपा दिया है। कई लोग पत्रकारिता में ऐसे भी हैं जो महज दशक भर पहले टूटी चप्पलों में फिरा करते थे और आज संस्थानों में मालिक की हैसियत रखते हैं। प्रेस की इसी तकदीर बदलने वाली ताकत का हमारे यहां गलत फादया उठाया गया है। यहां मीडिया हाउसों ने सरासर दगाबाजी की है। प्रेस के विश्वास की बदौलत कमाई गई अकूत संपत्तियों को मीडिया के धंधों में लगाया गया। असल में मीडिया का काम समाचार कभी रहा ही नहीं।''
भावनाओं से या आदर्शवादी बाने से सच्चाई को झुठलाना ठीक नहीं है। इसलिए तमाम अच्छी बातों की तरह इसे भी भुला देना ही श्रेयस्कर होगा कि मुख्य तौर पर (पूरे तौर पर अभी भी नहीं मानता हूं) मीडिया में समाज के प्रति अब कोई सरोकार, आम लोगों के लिए लिखने का माद्दा या कहें स्कोप बचा हुआ है। आज यह कारपोरेट कंपनियों और उनकी नुमाइंगी करने वाली राजनीतिक पार्टियों के हाथ का खिलौना भर रह गया है। सवाल अब सिर्फ यह रह गया है कि कौन खरीदेगा। यह सच्चाई अगर देश भर के मीडिया पर लागू होती है तो छत्तीसगढ़ के अपवाद होने की कोई वजह, तर्क या आधार समझ नहीं आता। क्या यह माना जाए कि छत्तीसगढ़ में दिलचस्पी या कारोबार करने वाली कंपनियां और उनके इशारों पर चलने वाली राजनीतिक पार्टियां मीडिया से कोई वास्ता नहीं रखते हैं? क्या यह माना जाए कि छत्तीसगढ़ में सारे अखबारों के मालिक अचानक आदिवासियों और उनके हितों के बारे में सोचने लगे हैं। क्या अपने फायदे के लिए छत्तीसगढ़ में ''मीडिया मैनेज'' नहीं किया जाता है। अगर ऐसा नहीं है तो माना जाना चाहिए कि पूरे देश की तरह छत्तीसगढ़ का मीडिया भी बिकाऊ है। जब मैं यह बात कह रहा हूं तो मैं अपवादों को नजरंदाज नहीं कर रहा हूं। बेशक कुछेक अखबार, कुछेक पत्रकार इसके बावजूद लोगों के प्रति पक्षधरता का कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते होंगे लेकिन यह बात समझनी ज्यादा जरूरी है कि ये व्यक्तिगत प्रयास डोमिनेटिंग ट्रेंड नहीं है। मीडिया का डोमिनेटिंग ट्रेंड उसका कारपोरेटाइजेशन या कहें बाजारीकरण है।
Wednesday, April 29, 2009
Saturday, April 25, 2009
अब एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी की विनायक सेन की रिहाई की मांग
विनायक सेन की गिरफ्तारी पर अब प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय एजेंसिंया भी सवाल उठाने लगी हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी विनायक सेन की रिहाई का समर्थन किया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के ताजा वक्तव्य में कहा गया है कि विनायक सेन पर लगाए गए आरोप ''आधारहीन हैं और राजनीति से प्रेरित हैं'' साथ ही उन्हें कैद में रखना अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है। वक्तव्य में आगे कहा गया है कि ''यह एक जीता-जागता उदाहरण है कि किस तरह भारतीय शासन तंत्र एक्टिविस्टों को निशाना बनाने के लिए सुरक्षा से जुड़े कानूनों का दुरुपयोग कर रहा है। ये कानून सवालों के घेरे में हैं क्योंकि इनकी ''गैरकानूनी गतिविधियों'' की अस्पष्ट और अतिरंजित परिभाषाएं गढ़ी गई हैं। किसी भी परिस्थिति में ऐसे कामों को 'गैरकानूनी गतिविधि' नहीं माना जाना चाहिए जो शांतिपूर्ण ढंग से मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं।'' एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस मसले पर अपना रोष प्रकट करते हुए कहा, ''उनके ऊपर लगाए गए आरोप जिन कानूनों के आधार पर लगाए गए हैं, वे अंतर्राष्ट्रीय मानकों का उल्लंघन करते हैं। उनके मुकदमे में बार-बार देर होने से इसकी निष्पक्षता पर भी संदेह पैदा हो गया है।''
एमनेस्टी इंटरनेशनल का वक्तव्य उस पूरी प्रक्रिया के लिए एक आईना है जो सबूतों, कानून और इंसाफ पर टिके होने का दावा करती है। यह बात गौर करने वाली है कि विनायक सेन पर तमाम कोशिशों के बावजूद माओवादियों से संबंध होने का कोई पुख्ता सबूत छत्तीसगढ़ सरकार पेश नहीं कर पाई है। हर सुनवाई पर छत्तीसगढ़ सरकार का पक्ष लगातार कमजोर होता जा रहा है। वैसे भी विनायक सेन का मुद्दा अब एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। दुनिया भर में नागरिक, जनवादी और मानवाधिकारों के लिए काम कर रही संस्थाएं और लोग इस मसले पर अपनी चिंताएं प्रकट कर रहे हैं।
विनायक सेन की पत्नी इलीना सेन ने फिर से यह बात दोहराई है कि विनायक सेन को तत्काल इलाज की जरूरत है और छत्तीसगढ़ में उनकी जान को खतरा होने की पूरी संभावना है।
विनायक सेन हमारे समय की एक कसौटी बनते जा रहे हैं जिससे समाज के एक दिशा में जाने के संकेत साफ मिल रहे हैं....
एमनेस्टी इंटरनेशनल का वक्तव्य उस पूरी प्रक्रिया के लिए एक आईना है जो सबूतों, कानून और इंसाफ पर टिके होने का दावा करती है। यह बात गौर करने वाली है कि विनायक सेन पर तमाम कोशिशों के बावजूद माओवादियों से संबंध होने का कोई पुख्ता सबूत छत्तीसगढ़ सरकार पेश नहीं कर पाई है। हर सुनवाई पर छत्तीसगढ़ सरकार का पक्ष लगातार कमजोर होता जा रहा है। वैसे भी विनायक सेन का मुद्दा अब एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। दुनिया भर में नागरिक, जनवादी और मानवाधिकारों के लिए काम कर रही संस्थाएं और लोग इस मसले पर अपनी चिंताएं प्रकट कर रहे हैं।
विनायक सेन की पत्नी इलीना सेन ने फिर से यह बात दोहराई है कि विनायक सेन को तत्काल इलाज की जरूरत है और छत्तीसगढ़ में उनकी जान को खतरा होने की पूरी संभावना है।
विनायक सेन हमारे समय की एक कसौटी बनते जा रहे हैं जिससे समाज के एक दिशा में जाने के संकेत साफ मिल रहे हैं....
Sunday, April 19, 2009
डा.विनायक सेन की ओर से जस्टिस कृष्णा अय्यर की प्रधानमंत्री के नाम अपील

मैं आपका ध्यान एक बेहद अन्यायपूर्ण मामले की ओर दिलाना चाहता हूं जोकि भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक है : यह मामला है सुविख्यात बालरोग विशेषज्ञ और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले डा. विनायक सेन का।
इस कुशल डॉक्टर को लगभग दो वर्षों से रायपुर जेल में और फिलहाल छत्तीसगढ़ राज्य जनसुरक्षा अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत कारावास में बन्दी बनाकर रखा गया है। डा. सेन जोकि ग्रामीण गरीब आबादी के बीच अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य के कामों की बदौलत पूरी दुनिया के पैमाने पर जानेमाने ख्यातिप्राप्त डॉक्टर हैं, के खिलाफ ''राजद्रोह और राज्य के विरुद्ध युद्ध छेड़ने'' के आरोप लगाये गये हैं।
छत्तीसगढ़ के लोक अभियोजक ने दावा किया है कि विनायक ने, एक अपुष्ट षड्यंत्र के हिस्से के तौर पर, एक वरिष्ठ माओवादी नेता नारायण सान्याल, जोकि रायपुर जेल में हैं, की ओर से कई पत्र एक स्थानीय व्यवसायी को दिये, जिसके कथित रूप से वामपंथी-दुस्साहसवादियों से संबंध थे। ऐसा कहा गया है कि विनायक द्वारा यह काम जेल में सान्याल से एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और कई बीमारियों के लिए उनका इलाज कर रहे एक डॉक्टर, दोनों के तौर पर मिलने के दौरान किया गया।
हालांकि डा. सेन के मुकदमे, जोकि रायपुर सेशन कोर्ट में अप्रैल 2008 के अंत में शुरू हुआ था, में उनके खिलाफ लगाये गये इन आरोपों को सही साबित करने वाले साक्ष्यों का छोटे से छोटा हिस्सा भी प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। मूल आरोपपत्र के हिस्से के तौर पर गवाही देने के लिए 83 गवाहों की सूची मार्च 2009 में अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत की गयी थी, जिसमें से 16 का नाम स्वयं सरकार ने वापस ले लिया, और छह लोगों को 'प्रतिकूल' घोषित कर दिया गया, जबकि 61 लोगों से डा. सेन के खिलाफ किसी भी आरोप की पुष्टि करवाये बगैर गवाही दिलवा दी गयी। डा. सेन के खिलाफ मामले के गुण-दोषों की चर्चा न भी की जाये, तो भी अभी तक चलाये गये मुकदमे की कार्रवाई के तरीके के कई पहलू बेहद विक्षोभजनक हैं।
इतना सब पर्याप्त न मानते हुए, डा. सेन की जमानत पर रिहाई की अपील विलासपुर उच्च न्यायालय द्वारा बार-बार (सितंबर 2007 में और दिसंबर 2008 में) अस्वीकार कर दी गयी। और उच्चतम न्यायालय ने उनकी रिहाई की प्रार्थना के लिए स्पेशल लीव पेटिशन पर सुनवाई करते हुए उसे ठुकरा दिया।
अभी तक डा. सेन के मुकदमे में साक्ष्यों की कमी को ध्यान में रखते हुए रायपुर न्यायालय को पूर्ण निष्पक्षता के साथ तत्काल उनके खिलाफ पूरे मुकदमे को रद्द कर देना चाहिए। निश्चित रूप से अभियोजन पक्ष की स्थिति की कमजोरी उन्हें कम से कम जमानत पर रिहा होने का हकदार बना देती है। डा. सेन अपने पूरे शानदार कैरियर के दौरान त्रुटिहीन व्यवहार के रिकार्ड के साथ, अन्तरराष्ट्रीय स्तर के और सम्मानित व्यक्ति हैं। मई 2008 में एक अभूतपूर्व कार्रवाई के तहत 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने उन्हें 'पेशेवर सहकर्मी' बताते हुए और उनकी रिहाई की मांग करते हुए एक सार्वजनिक वक्तव्य पर हस्ताक्षर भी किये थे।
सामान्य तौर पर जमानत देना उन्हीं मामलों में अस्वीकार किया जाता है जहां न्यायालय को लगता है कि आरोपी साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है, गवाहों को पूर्वाग्रहित कर सकता है या भाग सकता है। डा. सेन के मामले में इनमें से कोई भी वजह लागू नहीं होती है, जैसा कि इस सामान्य तथ्य से पता चलता है कि उनकी गिरफ्तारी के समय उन्होंने अपनी संभावित कैद के बारे में जानते हुए भी छत्तीसगढ़ पुलिस के पास स्वेच्छा से आने का रास्ता चुना और भागने की कोई कोशिश नहीं की।
आज डा. सेन जो मधुमेह के रोगी हैं और अति रक्त दाब (हाइपरटेंसिव) के रोगी भी हैं, को अपने हृदय की बिगड़ती जा रही स्थिति के चिकित्सकीय इलाज की अत्यावश्यक आवश्यकता है। हाल के सप्ताहों में उनका स्वास्थ्य बहुत गिर गया है और उनकी जांच के लिए न्यायालय द्वारा नियुक्त डॉक्टर ने अनुशंसा की है कि उन्हें कोई भी देरी किये बिना एंजियोग्राफी, और यदि आवश्यक लगे तो संभवत: एंजियोप्लास्टी करवाने के लिए वैल्लोर स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए।
उनके सामाजिक योगदान को मान्यता देने की बजाय भारतीय राज्य ने, डा. सेन और उनकी तरह मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले कई लोगों पर गलत ढंग से 'आतंकवादी' होने का ठप्पा लगाकर न केवल लोकतांत्रिक नियमों और निष्पक्ष शासन को बल्कि अपनी संपूर्ण आतंकवाद विरोधी रणनीति और कार्य को भी पूर्ण रूप से विद्रुपता का विषय बना दिया है।
जमानत का बार-बार अस्वीकार किया जाना, जिसका नतीजा 'मुकदमे द्वारा दंड' होता है, भारतीय समाज के लिए एक ज्यादा बड़ा खतरा है। इस मामले में हो रहा सरासर अन्याय साधारण नागरिकों में भारतीय लोकतंत्र की साख और प्रभाविता के बारे में खुद-ब-खुद केवल उदासीनता पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं करेगा।
क्या शन्नो की मौत का इंसाफ मिलेगा??????
कितना भोला है शन्नो का बाप अयूब खान। नहीं जानता कि उस जैसे लोगों को इस समाज में इंसाफ नहीं मिला करता।
दिल्ली की मेयर के पचार हजार रुपये, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की बयानबाजियां। अयूब खान ये सब नहीं जानता। वो बस इतना जानता है कि उसकी प्यारी बेटी शन्नो को एक जालिम टीचर ने मौत के घाट उतार दिया है। उसे कुछ नहीं चाहिए सिवाए इंसाफ के।
अगर अयूब खान जैसे लोगों को इंसाफ मिल ही रहा होता तो शायद मंजू राठी जैसी टीचर शन्नो को इतनी बुरी तरह सजा देने की कभी हिम्मत न कर पाती। अगर इंसाफ ही मिलना होता तो आज बवाना पुनर्वास बस्ती के सैकड़ों लोगों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर लाठियों से न पीटा होता। अगर इंसाफ ही मिलता होता तो तरह-तरह के सरकारी बजूके क्यों खड़े किये जाते। क्या ये सारी चीजें इसलिए ही नहीं हैं कि शन्नो मारी जाती रहें और उसका बाप और उसकी मौत से उबलने वाले हर शख्स को हर किस्म का तरीका इस्तेमाल करके चुप करा दिया जाए। किसी को जांच का वायदा करके, किसी को सख्त कार्रवाई का झूठा भरोसा दिलाकर और किसी को उसकी बेटी की लाश के बदले चंद रुपये थमाकर।
शन्नो को सजा देने वाली टीचर मंजू के ससुर का कहना है कि शन्नो का बाप पैसा खाकर राजनीति का मोहरा बन रहा है। मंजू राठी सोनीपत की है, जाट है, और अच्छे-खासे खाते-पीते परिवार से है। जाटों की सामन्ती मानसिकता हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रेमविवाह करने वाले अपने बच्चों, दलितों और दूसरे गरीब-पिछड़े लोगों को गंडासे से काटती रहती है। यह गौर करने वाली बात है कि ऐसी निरंकुश और बर्बर जमीन से आने वाली मंजू राठी की सोच गरीब और गंदे लोगों (मुसलमानों) के बच्चों के बारे में क्या हो सकती है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इतनी कड़ी सजा देने के पीछे कोई सामाजिक पूर्वाग्रह काम कर रहा हो। ये लोग पैसे वाले हैं, दिमाग वाले हैं, रसूख वाले हैं लिहाजा कुछ भी बोल सकते हैं और जब चाहेंगे तब कानून को अपने हिसाब से मोड़ भी लेंगे।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस सारे खेल और इन बिजूकाओं की असलियत लोगों को समझ नहीं आ रही है। लोग समझने लगे हैं कि आज अगर एक गरीब की बेटी की मौत मीडिया में उछल गई है तो भले ही दिल्ली नगर निगम से लेकर मानवाधिकार आयोग और भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री राहत देने, उचित कार्रवाई करने और जांच करवाने की बातें कर रहे हों लेकिन दरअसल होगा कुछ भी नहीं। क्योंकि इस समाज में हर चीज के दो चेहरे हो गये हैं.... इंसाफ के भी। अयूब खान के लिए इंसाफ का मतलब ज्यादा से ज्यादा चंदेक हजार रुपयों की खैरात हो सकता है जबकि किसी अमीर की बेटी की जान की कीमत पूरे सिस्टम का ऊपर से नीचे तक हिलना और भूचाल आना हो सकता था।
फिलहाल बवाना पुनर्वास बस्ती के लोग गुस्से में हैं। उन्हें इस बार जांच के वायदे, मंत्रियों के बयान और सरकार की राहत राशि के पैसे नहीं चाहिए। उन्हें इंसाफ चाहिए...।
मुझे लगता है कि अपने बच्चों की मौत का इंसाफ मांगते इन लोगों का इस समाज पर और उसे चलाने के तरीके पर भरोसा जितना जल्दी टूटेगा, उन्हें असलियत में इंसाफ मिलने का रास्ता उतना ही करीब आ जाएगा।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता की ये लाइनें साफ-साफ बताती हैं:
दिल्ली की मेयर के पचार हजार रुपये, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की बयानबाजियां। अयूब खान ये सब नहीं जानता। वो बस इतना जानता है कि उसकी प्यारी बेटी शन्नो को एक जालिम टीचर ने मौत के घाट उतार दिया है। उसे कुछ नहीं चाहिए सिवाए इंसाफ के।
अगर अयूब खान जैसे लोगों को इंसाफ मिल ही रहा होता तो शायद मंजू राठी जैसी टीचर शन्नो को इतनी बुरी तरह सजा देने की कभी हिम्मत न कर पाती। अगर इंसाफ ही मिलना होता तो आज बवाना पुनर्वास बस्ती के सैकड़ों लोगों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर लाठियों से न पीटा होता। अगर इंसाफ ही मिलता होता तो तरह-तरह के सरकारी बजूके क्यों खड़े किये जाते। क्या ये सारी चीजें इसलिए ही नहीं हैं कि शन्नो मारी जाती रहें और उसका बाप और उसकी मौत से उबलने वाले हर शख्स को हर किस्म का तरीका इस्तेमाल करके चुप करा दिया जाए। किसी को जांच का वायदा करके, किसी को सख्त कार्रवाई का झूठा भरोसा दिलाकर और किसी को उसकी बेटी की लाश के बदले चंद रुपये थमाकर।
शन्नो को सजा देने वाली टीचर मंजू के ससुर का कहना है कि शन्नो का बाप पैसा खाकर राजनीति का मोहरा बन रहा है। मंजू राठी सोनीपत की है, जाट है, और अच्छे-खासे खाते-पीते परिवार से है। जाटों की सामन्ती मानसिकता हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रेमविवाह करने वाले अपने बच्चों, दलितों और दूसरे गरीब-पिछड़े लोगों को गंडासे से काटती रहती है। यह गौर करने वाली बात है कि ऐसी निरंकुश और बर्बर जमीन से आने वाली मंजू राठी की सोच गरीब और गंदे लोगों (मुसलमानों) के बच्चों के बारे में क्या हो सकती है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इतनी कड़ी सजा देने के पीछे कोई सामाजिक पूर्वाग्रह काम कर रहा हो। ये लोग पैसे वाले हैं, दिमाग वाले हैं, रसूख वाले हैं लिहाजा कुछ भी बोल सकते हैं और जब चाहेंगे तब कानून को अपने हिसाब से मोड़ भी लेंगे।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस सारे खेल और इन बिजूकाओं की असलियत लोगों को समझ नहीं आ रही है। लोग समझने लगे हैं कि आज अगर एक गरीब की बेटी की मौत मीडिया में उछल गई है तो भले ही दिल्ली नगर निगम से लेकर मानवाधिकार आयोग और भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री राहत देने, उचित कार्रवाई करने और जांच करवाने की बातें कर रहे हों लेकिन दरअसल होगा कुछ भी नहीं। क्योंकि इस समाज में हर चीज के दो चेहरे हो गये हैं.... इंसाफ के भी। अयूब खान के लिए इंसाफ का मतलब ज्यादा से ज्यादा चंदेक हजार रुपयों की खैरात हो सकता है जबकि किसी अमीर की बेटी की जान की कीमत पूरे सिस्टम का ऊपर से नीचे तक हिलना और भूचाल आना हो सकता था।
फिलहाल बवाना पुनर्वास बस्ती के लोग गुस्से में हैं। उन्हें इस बार जांच के वायदे, मंत्रियों के बयान और सरकार की राहत राशि के पैसे नहीं चाहिए। उन्हें इंसाफ चाहिए...।
मुझे लगता है कि अपने बच्चों की मौत का इंसाफ मांगते इन लोगों का इस समाज पर और उसे चलाने के तरीके पर भरोसा जितना जल्दी टूटेगा, उन्हें असलियत में इंसाफ मिलने का रास्ता उतना ही करीब आ जाएगा।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता की ये लाइनें साफ-साफ बताती हैं:
इंसान की जान से
बड़ा कुछ नहीं होता
न ज्ञान
न ईश्वर
न संविधान
न चुनाव
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इंसाफ,
शन्नो,
स्कूली पिटाई
Thursday, April 16, 2009
एक चुनाव जो सिर्फ नफरत पर टिका है
आज हिन्दू में एक चुनावी क्षेत्र का जायजा लेते हुए लेख छपा है जो वहां की हवा में चारों ओर फैली नफरत की गंध को बारीकी से पकड़ता है। कंधमाल के एक चुनावी कार्यालय के माहौल और वहां हुई बातचीत के जरिए 'अंडरकरेंट' बह रहे डर और नफरत के घुलेमिले अहसास को यह लेख अच्छे ढंग से सामने लाता है। इसका बिटवीन द लाइन पाठ और प्रभाव उस राजनीतिक प्रयोग को सामने लाता है जो कंधमाल में 'क्रिया की प्रतिक्रिया' वाला तर्क दोहरा रहा है।
Wednesday, April 15, 2009
दिल्ली में श्रीराम सेना के गुंडों को पत्रकारों ने ढंग से धकियाया
दिल्ली में अभी कुछ देर पहले श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं के उत्पात मचाने पर वहां मौजूद पत्रकारों द्वारा उन्हें ढंग से धकियाया-लतियाया गया। शायद पहली बार गुंडों को थोड़ा ही सही पर करारा जवाब मिला है। दरअसल आज इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारत-पाकिस्तान के पत्रकारों का सम्मेलन किया जा रहा था जिसमें श्रीराम सेना के कई कार्यकर्ता घुस गए थे। सम्मेलन के बीच में उन्होंने पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिये। लेकिन इन गुंडों की उम्मीद के उलटे उन्हें आशुतोष समेत कुछ और पत्रकारों द्वारा धकेल कर बाहर कर दिया गया। वैसे तो इन गुंडों से उन्हें समझ आने वाली भाषा में बात की जाती तो ज्यादा बेहतर रहता लेकिन फिर भी यह देखकर अच्छा लगा कि बड़ी-बड़ी नौकरियां करने वाले पत्रकारों ने इस ढंग से धकेल कर इन लोगों को बाहर कर दिया। हमारे बुद्धिजीवियों को बातें करने के साथ-साथ इस तरह के काम करते रहने चाहिए। क्योंकि गुंडें विमर्श नहीं करते! आगे की खबर अगली पोस्ट में....
Monday, April 13, 2009
फिजी में आज सारे अखबार खाली, सारे चैनल बंद
फीजी में आज सरकारी सेंसरशिप के खिलाफ सारे अखबारों में पेज खाली छोड़े गए हैं और चैनलों पर कोई प्रसारण नहीं किया गया। मीडिया ने मिलकर यह कदम फीजी की फौजी तानाशाही सरकार की गैरजरूरी सेंसरशिप लागू करने के विरोध में उठाया है। दरअसल फीजी में आपातकाल की घोषणा के साथ ही मीडिया पर शिंकजा कसना शुरू कर दिया गया था। सरकार ने न्यूजरूमों पर सख्त निगरानी बैठा दी थी और विदेशी पत्रकारों को निकालने की धमकी दी थी।
इस घटना से अपने देश के आपातकाल का सुना-सुनाया मंजर भी सामने आ गया। बेशक सीमित अर्थों के साथ और शासकों की परिभाषा के अनुसार ही होने के बावजूद जनवाद थोड़ा स्पेस बोलने-लिखने का बचाए रखता है। तानाशाही का सबसे पहला नजला इसी स्पेस को खत्म करने के लिए मीडिया पर उतरता है। फिर भी फीजी में मीडिया की एकजुटता अच्छा संदेश है।
इस घटना से अपने देश के आपातकाल का सुना-सुनाया मंजर भी सामने आ गया। बेशक सीमित अर्थों के साथ और शासकों की परिभाषा के अनुसार ही होने के बावजूद जनवाद थोड़ा स्पेस बोलने-लिखने का बचाए रखता है। तानाशाही का सबसे पहला नजला इसी स्पेस को खत्म करने के लिए मीडिया पर उतरता है। फिर भी फीजी में मीडिया की एकजुटता अच्छा संदेश है।
Thursday, April 9, 2009
जरनैल का जूता और कांग्रेस का कट्टर 'हिन्दू दिल'
जरनैल सिंह के जूता फेंकने पर ब्लॉग जगत में बहस चल पड़ी है कि यह काम सही है या नहीं। मुझे लगता है बहस का मुद्दा ही सिरे से गलत है। असल में बात इस पर होनी चाहिए कि कांग्रेस नाम की तथाकथित ''धर्मनिरपेक्ष'' पार्टी दंगे के दोषी व्यक्तियों के साथ क्यों खड़ी है? क्या यह बात कांग्रेस की छुपी हुई और ज्यादा खतरनाक सांप्रदायिकता को सामने नहीं लाती है। हम लोग कांग्रेस को लेकर बहुत भ्रम में हैं। बहुत सारे लोगों का यह भी भ्रम है कि धार्मिक कट्टरता के जरिए ही फासीवाद समाज में प्रवेश करता है। उसके रूप बहुत सारे हैं। हमारे देश में उसका एक सोफिस्टीकेटेड चेहरा कांग्रेस भी है।
वोटों की राजनीति में बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की भावनाओं को सही वक्त पर उभारने में उसे बीजेपी से कम महारत हासिल नहीं है। बल्कि वह बीजेपी से ज्यादा शातिराना ढंग से यह काम अंजाम देता है। इसके साथ ही वह अपने उस चेहरे को बचाए रखती है जिससे उसे दूसरी अल्पसंख्यक आबादी के वोट चाहिए होते हैं। अगर आज के समय में फासीवाद के प्रतीक के तौर पर मोदी को पैमाना माना जाए, तो बेशक 1984 के दंगों में निर्दोष सिखों के कातिल टाइटलर, सज्जन को उसी श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए। और यह भी समझना जरूरी है कि ये लोग सिर्फ मोहरें हैं उस राजनीतिक धारा के, जो बातें समाज को जोड़ने और धर्मनिरपेक्षता की करती है। लेकिन अगर उसका दिल चीर कर देखा जाए तो उसमें भी 'हिन्दू दिल' धड़कता हुआ नजर आ जाएगा। यह भी देखने वाली बात है कि कांग्रेस ने बड़ी खूबसूरती से अपने इस हिन्दू दिल को छिपा रखा है। हालांकि कई मौकों पर यह खुलकर समाज के जनवादी और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की धज्जियां उड़ाते देखा जा सकता है। यह भी समझने की जरूरत है कि जिस चुनावी लोकतंत्र का हम गुणगान करते नहीं थकते, उसमें चुनावी राजनीति, पार्टियों को खुदबखुद बहुसंख्यक आबादी की तानाशाही का प्रतिनिधि बना देती है। कांग्रेस ऐसी ही प्रतिनिधि है।
कांग्रेस का असली चेहरा 1984 के दंगों में बहुत नंगई के साथ सामने आया था। उसकी बड़ी-बड़ी बातें और धर्मनिरेपेक्ष छवि तो निर्दोष-गरीब सिखों को सरेआम सड़कों पर जलाने के साथ ही जल जानी चाहिए थी। पर सत्ताधारी वर्ग की सबसे वफादार पुरानी और चालाक पार्टी का ही कमाल था कि इन दंगों की आग भी उसके नकली चेहरे को झुलसा नहीं पाई। आज भी अल्पसंख्यक आबादी में कांग्रेस के लिए एक स्थान है। इस भ्रम को जितनी जल्दी हो सके साफ करने की जरूरत है। 84 के दंगें और राम मंदिर मुद्दे को उभारने में कांग्रेस को रोल को याद रखना चाहिए। दंगों में जिस तरह इस पार्टी ने खूनी कारनामे अंजाम दिये थे उन्हें भी याद रखना जरूरी है। समझना होगा कि वक्त पड़ने पर कांग्रेस पार्टी मोदी ब्रिगेड से ज्यादा खतरनाक हो सकती है। मुझे लगता है कांग्रेस को उसके असली चेहरे-चरित्र के साथ समझने की जरूरत है। और यह भी कि धर्मनिरपेक्षता को उसके सही अर्थों में देखने की जरूरत है न कि कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, समाजवादी पार्टी आदि-आदि जैसी मरियल, नकली धर्मनिरपेक्षता के संदर्भों में।
वोटों की राजनीति में बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की भावनाओं को सही वक्त पर उभारने में उसे बीजेपी से कम महारत हासिल नहीं है। बल्कि वह बीजेपी से ज्यादा शातिराना ढंग से यह काम अंजाम देता है। इसके साथ ही वह अपने उस चेहरे को बचाए रखती है जिससे उसे दूसरी अल्पसंख्यक आबादी के वोट चाहिए होते हैं। अगर आज के समय में फासीवाद के प्रतीक के तौर पर मोदी को पैमाना माना जाए, तो बेशक 1984 के दंगों में निर्दोष सिखों के कातिल टाइटलर, सज्जन को उसी श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए। और यह भी समझना जरूरी है कि ये लोग सिर्फ मोहरें हैं उस राजनीतिक धारा के, जो बातें समाज को जोड़ने और धर्मनिरपेक्षता की करती है। लेकिन अगर उसका दिल चीर कर देखा जाए तो उसमें भी 'हिन्दू दिल' धड़कता हुआ नजर आ जाएगा। यह भी देखने वाली बात है कि कांग्रेस ने बड़ी खूबसूरती से अपने इस हिन्दू दिल को छिपा रखा है। हालांकि कई मौकों पर यह खुलकर समाज के जनवादी और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की धज्जियां उड़ाते देखा जा सकता है। यह भी समझने की जरूरत है कि जिस चुनावी लोकतंत्र का हम गुणगान करते नहीं थकते, उसमें चुनावी राजनीति, पार्टियों को खुदबखुद बहुसंख्यक आबादी की तानाशाही का प्रतिनिधि बना देती है। कांग्रेस ऐसी ही प्रतिनिधि है।
कांग्रेस का असली चेहरा 1984 के दंगों में बहुत नंगई के साथ सामने आया था। उसकी बड़ी-बड़ी बातें और धर्मनिरेपेक्ष छवि तो निर्दोष-गरीब सिखों को सरेआम सड़कों पर जलाने के साथ ही जल जानी चाहिए थी। पर सत्ताधारी वर्ग की सबसे वफादार पुरानी और चालाक पार्टी का ही कमाल था कि इन दंगों की आग भी उसके नकली चेहरे को झुलसा नहीं पाई। आज भी अल्पसंख्यक आबादी में कांग्रेस के लिए एक स्थान है। इस भ्रम को जितनी जल्दी हो सके साफ करने की जरूरत है। 84 के दंगें और राम मंदिर मुद्दे को उभारने में कांग्रेस को रोल को याद रखना चाहिए। दंगों में जिस तरह इस पार्टी ने खूनी कारनामे अंजाम दिये थे उन्हें भी याद रखना जरूरी है। समझना होगा कि वक्त पड़ने पर कांग्रेस पार्टी मोदी ब्रिगेड से ज्यादा खतरनाक हो सकती है। मुझे लगता है कांग्रेस को उसके असली चेहरे-चरित्र के साथ समझने की जरूरत है। और यह भी कि धर्मनिरपेक्षता को उसके सही अर्थों में देखने की जरूरत है न कि कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, समाजवादी पार्टी आदि-आदि जैसी मरियल, नकली धर्मनिरपेक्षता के संदर्भों में।
आज महामनीषी जनयोद्धा राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन है

प्रस्तुत है उनके प्रसिद्ध लेख 'तुम्हारे सदाचार की क्षय' का एक अंश…
'इतिहास'-'इतिहास'—'संस्कृति'-'संस्कृति' बहुत चिल्लाया जाता है। मालूम होता है, इतिहास और संस्कृति सिर्फ मधुर और सुखमय चीजें थीं। पचीसों बरस का अपने समाज का तजरबा हमें भी तो है। यही तो भविष्य की सन्तानों का इतिहास बनेगा? आज जो अंधेर हम देख रहे हैं, क्या हजार साल पहले वह आज से कम था? हमारा इतिहास तो राजाओं और पुरोहितों का इतिहास है जो कि आज की तरह उस जमाने में भी मौज उड़ाया करते थे। उन अगणित मनुष्यों का इस इतिहास में कहां जिक्र है जिन्होंने कि अपने खून के गारे से ताजमहल और पिरामिड बनाये; जिन्होंने कि अपनी हड्डियों की मज्जा से नूरजहां को अतर से स्नान कराया, जिन्होंने कि लाखों गर्दनें कटाकर पृथ्वीराज के रनिवास में संयोगिता को पहुंचाया? उन अगणित योद्धाओं की वीरता का क्या हमें कभी पता लग सकता है जिन्होंने कि सन सत्तावन के स्वतंत्रता-युद्ध में अपनी आहुतियां दीं? दूसरे मुल्क के लुटेरों के लिए बड़े-बड़े स्मारक बने, पुस्तकों में उनकी प्रशंसा का पुल बांधा गया। गत महायुद्ध में ही करोड़ों ने कुर्बानियां दीं, लेकिन इतिहास उनमें से कितनों के प्रति कृतज्ञ है?
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