राजधानी दिल्ली भी पत्रकारों के लिए सुरक्षित नहीं है। 'आज समाज' के दो पत्रकारों के साथ एक ठेकेदार के गुण्डों ने मारपीट की, उनका मोबाईल, कैमरा और पैसे छीन लिये। इससे ज्यादा बड़ी बात यह कि पुलिस ने पत्रकारों की ही रिपोर्ट दर्ज करने से मना कर दिया।
दिल्ली में पत्रकारों खासतौर पर निचले स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। खासतौर पर आम लोगों के जीवन से सीधी जुड़ी समस्याओं को उठाने वाले पत्रकार लगातार गुण्डों-माफियाओं के निशाने पर हैं। 'आज समाज' शकूरबस्ती स्थित सीमेंट साइडिंग में मज़दूरों के ठेकेदारों के खिलाफ आंदोलन की लगातार कवरेज कर रहा था। इससे पहले भी दिल्ली के सरकारी स्कूलों की दुर्दशा पर लिखने वाले पत्रकार और पूर्वी दिल्ली में करावल नगर के बादाम मज़दूरों के हालात के बारे में जानने गये पत्रकारों और अन्य कई पत्रकारों के साथ मारपीट की घटनाएं होती रहीं हैं। दरअसल यह बहुत अनपेक्षित भी नहीं है। यदि वास्तव में मीडिया जनपक्षधर मुद्दों को उठाना शुरू करेगा तो जाहिर सी बात है कि तमाम दलाल-गुण्डे-माफिया-ठेकेदार-नेता वगैरह दिक्कत पैदा करेंगें।
वैसे तो सवाल आज खुद मीडिया चलाने वालों की मंशा पर भी उठना लाजिमी है। जनता-जनता की रट लगाने वाले तमाम अखबार एक बहुत बड़े तबके को नजरंदाज किये रहते हैं। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश में आज 40 करोड़ मज़दूर आबादी है। वैसे बेहद गरीब आबादी को जोड़ देने पर ये आंकड़ा हमारे देश की कुल जनसंख्या के आधे से अधिक बैठता है। इनके बारे में अक्सर तो खबर ही नहीं आती या आती भी है तो ग्रेजियानों जैसी कोई बड़ी घटना हो जाने पर भी और वह भी मालिकों के नजरिये से।
पत्रकारों के खिलाफ बढ़ती जा रही इन घटनाओं पर इसके खिलाफ अखबारों के मालिक भी अपने व्यावसायिक हितों के नाम पर कुछ नहीं करेंगे। इसके खिलाफ केवल और केवल तमाम प्रतिबद्ध पत्रकारों की एकजुटता ही कुछ कर सकती है। आज मीडिया के कारपोरेट-कल्चर में ढलने से चन्द नामी-गिरामी पत्रकारों को छोड़कर जमीनी स्तर पर काम करने वाले छोटे पत्रकारों के लिए काम की स्थितियां लगातार खराब होती जा रही हैं। उनकी रिपोर्ट से अगर कोई भ्रष्ट तत्व नाराज हो जाता है तो इसका दुष्परिणाम झेलने के लिए वह पत्रकार अक्सर ही अकेला रह जाता है। नतीजे के तौर पर सही पत्रकारिता करने के ये व्यक्तिगत प्रयास भी दम तोड़ देते हैं। जरूरत है इन व्यक्तिगत प्रयासों को सामूहिक प्रयासों में तब्दील करने की। यानी ऐसे तमाम प्रतिबद्ध पत्रकारों के एकजुट हो जाने की जरूरत है जिनका सरोकार लफ्फाजी के लिए नहीं वास्तव में आज भी आम लोगों के लिए पत्रकारिता करने से जुड़ा हुआ है।
2 comments:
समस्याओं को उठाने वाले पत्रकारों के साथ मारपीट की घटनाएं नई नहीं हैं। संकट आने पर अखबार या चैनल वाले भी उनका साथ नहीं देते। सामूहिक पयास वाली बात सही है पर बिलली की गली में घंटी बांधे कौन सब तो लाख रुपये वाली नौकरी की तलाश में अपनी रीढ खो चुके हैं। http://chaighar.blogspot.com
जैसे पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी है उसी तरह पत्रकारों की दुनिया भी बंटी हुई है। पत्रकारिता जगत में कुछेक लोग लाखों बटोर रहे हैं लेकिन ज्यादातर युवा पत्रकारों की स्थिति बहुत बुरी है। वे माने चाहें नहीं पत्रकारिता की दुनिया में उनकी स्थिति दिहाड़ी मजदूर जैसी है और उनका भी वैसे ही शोषण होता है जैसे किसी मजदूर का। और यह बात पत्रकार लोग जितनी जल्दी समझ लें उनके लिए उतना ही बेहतर होगा। वे किसी एक अखबार-टीवी मालिक के नहीं बल्कि शोषण पर टिकी इस व्यवस्था के सताए हुए हैं और इसक खिलाफ वे अकेले अकेले संघर्ष भी नहीं कर सकते। समान विचार रखने वाले लोगों को एकसाथ आना होगा और लोगों का पक्ष लेने वाली पत्रकारिता के द्वारा उन्हें यह दिखाना होगा कि वे जनता के मित्र हैं और तभी उन्हें लोगों का समर्थन भी प्राप्त होगा। वर्ना पत्रकारिता की इतनी भद्द पिट चुकी है कि सही मुद्दे पर भी जनता उनका समर्थन नहीं करेगी।
Post a Comment