क्रांतिकारियों की नर्सरी यानि लाहौर के नेशनल कालेज के प्रिंसिपल श्री छबीलदास उन लोगों में से थे जिन्होंने भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों की पूरी पीढी को प्रेरित और उत्साहित किया। नेशनल कालेज उन दिनों क्रांतिकारियों का अड्डा ही समझा जाता था। श्री छबीलदास ख़ुद क्रांतिकारी विचारों के आदमी थे। उन्होंने दुनिया भर का क्रांतिकारी साहित्य उपलब्ध कराकर एक तरह से खाद-पानी देने का काम किया। भगतसिंह द्वारा बनाई गयी नौजवान भारत सभा से जुड़कर अपने शिष्य के कामों को जीवन भर आगे बढाते रहे। वे एक अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने कई छोटी पुस्तिकाएं लिखी थी। ये जानकारी janchetna से हाल में छपी बेहद जानकारीपूर्ण और तेजी से लोकप्रिय होती जा रही किताब 'बहरों को सुनाने के लिए' (लेखक एस.इरफान हबीब) में दी गयी है। श्री छबीलदास की राम और रावण को प्रतीक बनाकर लिखी एक कविता नीचे दे रहा हूँ...
राम और सीता छ: पैसे में!
कृष्ण और राधा छ: पैसे में!!
मैंने पुकारा रावण दे दो!
बोला तीन आने में ले लो!!
मैंने कहा ऐ मूरतवाले!
भोली भली सूरत वाले!!
राम और सीता छ: पैसे में!
कृष्ण और राधा छ: पैसे में!!
लछमन सस्ता, शिवजी सस्ता!
रावण है क्यों इतना महंगा!!
बोला वे हैं छोटे-छोटे!
बनते हैं थोडी मिटटी से!!
उफ़ रे! रावण का मुहँ काला!
लंबा मोटा दस सर वाला!!
जब भी हूँ इसे मैं बनाता!
माल मसाला सब चुक जाता!!
बोला 'इसे बनाते क्यों हो?'
इतना माल लगाते क्यों हो?
राम को बेचो सीता को बेचो!
लछमन बेचो शिवजी बेचो!
बोला, इसकी मांग बहुत है!
घर घर इसकी धाक बहुत है!!
हर घर हर मन इसका मंदर!
मुहँ में राम तो रावण अन्दर!!
सीताराम के गए पुजारी!
अब है रावण की मुख्तारी!!
रावण का है राज जगत में!
खेत को खाए बाढ़ जगत में!!
2 comments:
क्या बात कही है।बहुत अच्छे। आपको दशहरे की बधाई आपको।
बहुत ही अच्छा कपिल। मैंने भी जबसे यह किताब पढ़ी क्रान्तिकारियों की प्रगतिशील सोच का और भी कायल हुआ। एक तरफ जब देश में सांप्रदायिक दंगे चल रहे थे तब युवा क्रान्तिकारी और विचारक मुखर तरीके से तार्किकता को बढ़ावा दे रहे थे। आज के हमारे बुद्धिजीवी इतने स्पष्ट शब्दों में फासिस्टों को ललकारने में डरते हैं जैसे 70-80 साल पहले क्रान्तिकारियों ने किया था।
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