Tuesday, July 14, 2009

एक आम आदमी की दूसरी मौत

26 अगस्‍त, 2006। उज्‍जैन के माधव कॉलेज में सैकड़ों लोगों के सामने प्रोफेसर सभ्‍भरवाल को एबीवीपी के गुण्‍डे मौत के घाट उतार देते हैं। 13 जुलाई, 2009। मुख्‍य आरोपी एबीवीपी के प्रदेश अध्‍यक्ष शशिरंजन अकेला और सचिव विमल तोमर को न्‍यायालय बरी कर देता है। जज श्री नितिन दल्‍वी ने गहरे क्षोभ के साथ व्‍यक्तिगत राय देते हुए कहा कि सभ्‍भरवाल की मौत का न्‍याय नहीं हो पाया क्‍योंकि अभियोग पक्ष ने अपना मामला कमजोर ढंग से रखा। उन्‍होंने कहा कि घटना को राजनीतिक रंग दे दिया गया था। प्रोफेसर सभ्‍भरवाल के बेटे हिमांशु ने फैसले पर तीखे शब्‍दों में कहा ''मेरे पिता की आज दोबारा हत्‍या हो गयी है। इस मामले पर मध्‍यप्रदेश में बीजेपी की सरकार के नजरिए को देखते हुए फैसले पर मुझे कतई हैरानी नहीं हुई। यह बहुत निराशा पैदा करने वाली चीज है कि आम आदमी इंसाफ के लिए दर-दर भटकता है और उसे ऐसा इंसाफ मिलता है।'' इससे पहले मार्च 07 में हिमांशु ने यह कहते हुए अदालत के सामने जाने से मना कर दिया था कि मुकदमा एक नौटंकी बन गया है। दरअसल पूरे मामले को बीजेपी सरकार ने शुरू से ही इतना हल्‍का कर दिया था कि आरोपियों का छूटना पहले से तय माना जा रहा था।
सभ्‍भरवाल परिवार ने निष्‍पक्ष ढंग से न चलने की वजह से मुकदमे को मध्‍यप्रदेश से बाहर हस्‍तांतरित करने की मांग की थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने मामले को सिर्फ उज्‍जैन से नागपुर स्‍थानांतरित कर दिया था। हिमांशु ने बताया कि मुकदमे के दौरान तीन पुलिस वाले अपने पहले के बयान से पलट गये जिससे पूरा मामला ही बदल गया। उस बेटे के दर्द और गुस्‍से को महसूस करना काफी मुश्किल है जिसके बाप को सैकड़ो लोगों के सामने कत्‍ल करने वाले आज अदालत से बरी होने पर जश्‍न मना रहे हैं। अपने बाप के कातिलों के छूट जाने पर हिमांशु ने कहा कि यह शर्मनाक है कि इस देश में सैकड़ों लोगों के सामने कोई अध्‍यापक अपने छात्रों के हाथों मारा जाता है और उसके हत्‍यारे छूट जाते हैं। यह राजनीति में बैठे गुण्‍डों के हाथों आम आदमी की हार है।
क्‍या ये हार सिर्फ सभ्‍भरवार परिवार की हार है?
ये जिन्‍दा और नंगे सवाल तो हम सबके सामने हैं.... क्‍या आम आदमी यूं ही गुण्‍डों के हाथों मारे जाते रहेंगे... और हम चुपचाप देखते रहेंगे.... कौन रोकेगा इन्‍हें... क्‍या अदालत, सरकार रोक पाएगी.... आस्‍थाओं को कैश करने वाले और नफरत पैदा करने वाले तत्‍व क्‍या यूं ही अपना हिंसक उन्‍माद फैलाते रहेंगे....पैसे या उससे पैदा होती राजनीति इसे रोकेगी या इंसाफ का सरेआम गला घोंटेगी? क्‍या इस सामाजिक व्‍यवस्‍था में इन चीजों को रोक पाना..................क्‍या वाकई सम्‍भव रह गया है?
इन सवालों के जवाब हमें देने ही होंगे.....

4 comments:

अनिल कान्त said...

हालत इतने बिगड़ते जा रहे हैं कि ........

संदीप said...

इस फ़ैसले ने एक बार फिर हमारी न्‍याय प्रणाली की असलियत उजागर कर दी है।

रंजन said...

जय शिवराज जी.. आप बहुत न्याय प्रिय है..
जय abvp.. आप बिल्कुल सही जा रहे है..

जय पुष्‍प said...

अगर कोई प्रयास न किए गए तो हालत ऐसे ही नहीं इससे भी बदतर हो जाएंगे। न्‍याय प्रणाली की असहाय स्थिति स्‍वयं न्‍यायाधीश के शब्‍दों से जाहिर हो जाती है। वास्‍तव में यह प्रो. सभरवाल की दूसरी मौत है। पर इस देश का आम आदमी तो रोज रोज मर रहा है। वास्‍तव में उसका जीवन किश्‍तों में मरने की कहानी ही है। न्‍याय प्रणाली की असफलता को सिर्फ प्रो. सभरवाल के मामले के संदर्भ में ही नहीं बल्कि एक व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य में देखना होगा। सिर्फ कुछेक मामले जो मीडिया की मेहरबानी से हाइलाइट हो जाते हैं आम लोगों की असहायता को पूरी तरह व्‍यक्‍त नहीं करते। देश की 80 करोड़ गरीब आबादी का हाल तो इससे भी बुरा है और उसकी चर्चा कहीं नहीं है।