Saturday, July 4, 2009

आंकड़ों के खेल में गुमसुम है आम आदमी...


आम आदमी हैरान-परेशान है। आजकल वह देशभर में अपनी कुल संख्‍या को लेकर सोच में पड़ा हुआ है। योजना आयोग के मुताबिक गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग इस देश में 28 प्रतिशत है। जबकि ग्राम विकास मंत्रालय की सक्‍सेना कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक इन्‍हें 50 प्रतिशत होना चाहिए। इसी गरीब आदमी के नाम पर सरकारें बनती-बिगड़ती चलती-दौड़ती रही हैं।
योजना आयोग का गणित कहता है कि जो आदमी गांव में 356 रुपये प्रतिमाह और शहर में 539 रुपये प्रतिमाह से कम कमाता है वह गरीब है। यानी इतना या इससे ज्‍यादा कमाने वाला अमीर आदमी है (हमारे देश के ज्‍यादातर ''अमीरों'' को यह बात शायद पता भी न हो)। ताजातरीन सक्‍सेना कमेटी का जमा-घटा गांव में 700 रुपये प्रतिमाह और शहर में 1000 रुपये से कम प्रतिमाह कमाने वाले आदमी को गरीब बताता है।
सरकार का अपना गणित है। आम आदमी का अपना। नेपाली चौकीदार जमबहादुर ने बताया कि दिल्‍ली जैसे शहर में एक आदमी को जिन्‍दा रहने के लिए कम से कम 3000 रुपये हर महीने चाहिए। 700-800 से कम कोई रूम किराये पर नहीं मिलता। 1000 रुपये दाल (पाठक आलू पढ़ें) रोटी में लग जाता है। कपड़ा-किराया-आना-जाना 700 रुपये। बचे 500 तो हारी-बीमारी, गांव आने-जाने के लिए रखने पड़ते हैं। पर इसी 3000 में लाखों लोग अपना भरा-पूरा परिवार चला रहे हैं। यही वह आदमी है जो अर्जुनसेन गुप्‍ता कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक इस देश में 77 फीसदी है यानी लगभग 84 करोड़ और यह व्‍यक्ति रोजाना अपने पर 20 रुपया खर्च करके जिन्‍दा है। यानी कमाने वाला अगर 3000 भी कमाता है और परिवार में 5 लोग हैं तो प्रति व्‍यक्ति रोजाना की आय हुई 20 रुपये।
बहरहाल इन आंकड़ों के खेल में आम आदमी फिलहाल खो गया है। शहरी गरीबी उन्‍मूलन मंत्री कुमारी शैलजा ने दो दिन पहले बताया कि सरकारी आंकड़ें उन्‍हें खुद काफी अविश्‍वसनीय लगते हैं। उन्‍होंने कहा कि वे योजना आयोग को आंकड़े इकट्ठा करने के तरीके यानी मेथडालॉजी को सुधारने के लिए कहेंगीं ताकि सही तस्‍वीर सामने आ सके। क्‍या वाकई सरकार असली तस्‍वीर देखना चाहती है। विभिन्‍न सरकारी रिपोर्टों से भी अगर आम आदमी की तस्‍वीर साफ नहीं हो रही है तो समझिए कि सरकार इस असली तस्‍वीर को समझना ही नहीं चाहती। क्‍योंकि अगर वाकई असली तस्‍वीर समझ ली तो इस समझ की भारी कीमत उसे चुकानी पड़ेगी। जो वह चुकाने के फिलहाल मूड में नहीं है। सो आम आदमी अभी तो अपने घर की गाड़ी खींच रहा है और इंतजार कर रहा है। अपने नाम पर खेले जा रहे पूरे खेल को देखते हुए वो कभी गुमसुम हो जाता है तो कभी बस हल्‍का सा मुस्‍कुरा भर देता है।
आम आदमी अभी देख रहा है....
पर वो क्या हमेशा देखता ही रहेगा.... ?

2 comments:

समय said...

आपके व्यंग्य की धार पैनी है, और सरोकार काफ़ी स्पष्ट।
अच्छा लगा।

जय पुष्‍प said...

बहुत अच्‍छा लिखा है कपिल भाई। आम आदमी को ब्‍लाग पर थोड़ी जगह तो मिली।
वैसे सरकार की तो फितर ही है कि जो चीज एकदम सामने दिख्‍ा रही हो उसकी पहचान करने के लिए एक कमेटी या आयोग गठित कर देती है। फिर उस आयोग की रिपोर्ट की जांच करने के लिए एक दूसरा आयोग गठित कर देती है। आखिर इतने पढ़े लिखे अधिकारियों, जजों, प्रोफेसरों और एन जी ओ वालों को करने के लिए कोई काम भी तो देना पडता है सरकार को। आखिर सरकार का जाता भी क्‍या है तनख्‍वाह देने का पैसा तो जनता पर लगाए जाने वाले टैक्‍स से आता है सरकार की जेब से थोड़े ही आता है।