आज अलेक्सान्द्र मक्सिमियेविच गोर्की का जन्मदिन है। गोर्की उन लेखकों में से थे जिन्होंने अपने समाज के यथार्थ का निर्मम चित्रण ही नहीं किया बल्कि उसके अंदर बदलाव की ताकत को भी पहचाना। कहते हैं कि साहित्यकार भी समाज को दिशा देता है। लेकिन कहां खड़ा है आज का साहित्यकार? हमारे यहां का साहित्यकार प्रेमचंद के बाद से ही कहीं अटक और भटक गया लगता है।
सच कहें तो प्रेमचन्द के बाद जो शून्य उभरा, आज वह कई गुना बड़ा हो गया है। आज हिन्दी साहित्य को पढ़ने वाले लोग, खासतौर पर नौजवान कितने हैं? कोई ऐसा लेखक है जो समाज की हलचलों को पूरे उद्वेलन के साथ उतार रहा हो? और सबसे महत्वपूर्ण बात कि क्या आजकल जो लिखा जा रहा है वह साहित्य और शिक्षा की दुनिया के बाहर आम लोगों के किसी मतलब का भी है कि नहीं? जाहिर है नहीं है तभी तो उसकी हालत ऐसी हो गई है। तो फिर साहित्य की बदहाली पर रोना-पीटना क्यों? आजकल के कितने लेखक हैं जो समाज में आ रहे बड़े बदलावों को अपनी कविता-कहानियों में पहचान रहे हैं। कितने लेखक हैं जो आम लोगों के जीवन से गहरे सरोकारों के साथ जुड़े हैं और उनके जीवन को करीब से देखते हैं। कितने लेखक हैं जो इन बदलावों में भविष्य के किसी शुभ संकेत के चिह्न ढूंढ़ रहे हैं। गोर्की ने 1905 में जब मां लिखी थी तब तक वहां का सामाजिक आंदोलन अभी खड़ा ही हो रहा था। गोर्की ने उस भविष्य की शक्ति को पहचाना और उसे अपनी कलम से और ज्यादा विस्तारित और मजबूत किया। हमारे कितने लेखकों ने बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या पर पूरा दिल उंडेल कर कलम चलाई। शायद ही किसी लेखक को आज मजदूरों, बेरोजगारों, गरीब छात्रों पर लिखने की जरूरत महसूस होती हो। आज बिकने वाला हॉट मसाला है स्त्री या दलित लेखन या यथार्थ के नाम पर मध्यवर्ग की फूहड़ताओं को चित्रित करना।
आज हमारे पास गोर्की जैसा दूर-दूर तक कोई लेखक नहीं है। बहरहाल ऐसे समय में ही गोर्की की जरूरत सबसे ज्यादा है। ऐसे लेखक की जो समाज को पहले तो अलफनंगा करके दिखाये कि आपकी हालत यह है और फिर उसमें से भविष्य की शक्ति को ढूंढ़ कर सामने लाये। गोर्की की कहानी 'एक पाठक' में गोर्की खुद यही कह रहे हैं।
''लेकिन क्या तुम जीवन में इतना गहरा पैठे हो कि उसे दूसरों के सामने खोलकर रख सको? क्या तुम जानते हो कि समय की मांग क्या है, क्या तुम्हें भविष्य की जानकारी है और क्या तुम अपने शब्दों से उस आदमी में नयी जान फूंक सकते हो जिसे जीवन की नीचता ने भ्रष्ट और निराश कर दिया है? उसका ह्रदय पस्त है, जीवन की कोई उमंग उसमें नहीं है, — भला जीवन बिताने की आकांक्षा तक को उसने विदा कर दिया है...। जल्दी करो और इससे पहले कि उसका मानवीय रूप अन्तिम रूप से उससे विदा हो उसे जीने का ढंग बताओ। लेकिन तुम किस प्रकार उसमें जीवन की चाह जगा सकते हो जब कि तुम बुदबुदाने और भुनभुनाने और रोने-झींकने या उसके पतन की एक निष्क्रिय तस्वीर खींचने के सिवा और कुछ नहीं करते? ह्रास की गंध धरती को घेरे है, लोगों के ह्रदय में कायरता और दासता समा गई है, काहिली की नरम जंजीरों ने उनके दिमागों और हाथों को जकड़ लिया है, — और इस घिनौने जंजाल को तोड़ने के लिए तुम क्या करते हो? तुम कितने छिछले और कितने नगण्य हो, और कितनी बड़ी संख्या है तुम जैसे लोगों की। ओह, अगर एक भी ऐसी आत्मा का उदय हुआ होता — कठोर और प्रेम में पगी, मशाल की भांति प्रकाश देने वाले ह्रदय और सर्वव्यापी महान मस्तिष्क से सज्जित! तब भविष्यगर्भित शब्द घंटे की ध्वनि की भांति इस शर्मनाक खामोशी में गूंज उठते और शायद इन जीवित मुर्दों की घिनौनी आत्माओं में भी कुछ सरसराहट दौड़ती...''
4 comments:
गोर्की की आज से ज़्यादा ज़रूरत कभी नहीं थी।
आभार।
गोर्की का स्मरण कराने के लिए आभार! कोई गोर्की क्यों नहीं है हमारे बीच आज?
इस निराशा के दौर में माक्सिम गोर्की, प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी और भगत सिंह जैसे महान लेखकों और पत्रकारों की ही जरूरत है, परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है की ज्यादातर तथाकथित लेखक और पत्रकार झंडू बाम बेचने में लगे हैं ....................
बहुत आभार गोर्की की इस मौके पर याद दिलाने की.
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