बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित नैनो कार आखिरकार आ रही है। हैरानी नहीं की जानी चाहिए कि नैनो में सबसे ज्यादा दिलचस्पी और प्रो-एक्टिव भूमिका मोदी ने निभाई है। और ज्यािदा दिलचस्प् बात यह है कि जर्मनी में हिटलर ने भी छोटी कार का सपना दिखाकर एक समय लोगों को भरमाया था। नैनो की घोषणा के दिन से ही इसे लेकर पूरी दुनिया में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया था। इस कार का बेसब्री से इंतजार सिर्फ आम लोग ही नहीं उद्योग जगत और सरकारें भी कर रहीं हैं। इस कार को पीपुल्स कार यानी जनता की कार बताया गया है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि क्या वास्तव में एक लाख रुपये कीमत होने के बावजूद यह आम जनता की सवारी बनेगी। और क्या असल में इस कार से लोगों को कोई फायदा पहुँचने वाला है।
दरअसल देखा जाये तो नैनो के आने से आम जनता के परिवहन में कोई फायदा नहीं पहुँचने वाला है। एक रिपोर्ट के मुताबिक काम पर जाने वाली 80 फीसदी आबादी बसों, साईकिलों और ट्रेनों से सफर करती है। जाहिरा तौर पर यह तबका आर्थिक रूप से कमजोर होने की वजह से ही सार्वजनिक परिवहन में सफर करके अपनी काम की जगह पर पहुँचता है। स्पष्ट है कि हर महीने 3-5 हजार रुपये कार पर खर्च करना इस तबके की औकात के बाहर की बात है।
ऐसी उम्मीद है कि मध्यवर्ग के छोटे से तबके के अलावा इसे खरीदने वालों का बड़ा हिस्सा इसे एक क्रेज के तौर पर खरीदेगा। इस वजह से नैनो को खरीदने वाले कम नहीं होंगे, लिहाजा इसके सड़कों पर आने के बाद सड़कों पर कारों की भीड़ बढ़ने और नतीजतन ट्रैफिक जाम की स्थिति और खराब होने की आशंका अभी से जतायी जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक कारें सड़कों की 75 प्रतिशत जगह सिर्फ 5 प्रतिशत लोगों के लिए घेरती हैं। जाहिर है इस स्थिति का सबसे बुरा असर उन लोगों पर पड़ेगा जो 10-12 घंटे की नौकरी करने के लिए तीन-साढ़े तीन घंटे आने-जाने में लगाते हैं।
नैनो की एक लाख की बेहद कम कीमत होने का राज भी अब धीरे-धीरे सामने आ रहा है। एक तो इसकी बॉडी ही काफी हल्की रखी गयी है। लेकिन असल में कीमत कम होने का सबसे बड़ा कारण इसे मिलने वाली कई तरह की सरकारी सब्सिडी, सुविधाएँ और छूट प्राप्त होना है। गुजरात सरकार ने टाटा को 0.1 प्रतिशत की मामूली ब्याज दर पर कर्ज के रूप में 2,900 करोड़ रुपये संयंत्र के लिए और 6,600 करोड़ रुपये अन्य ढांचागत लागतों पर 20 सालों के लिए दिये हैं। इसके अलावा 1,100 एकड़ जमीन मामूली कीमत पर दी गयी है। इसके लिए स्टाम्प डयूटी और अन्य टैक्स भी नहीं लिये गये हैं। कम्पनी को 14,000 घनमीटर पानी मुफ्त में उपलब्ध कराने के साथ-साथ संयंत्र को बिजली पहुँचाने का सारा खर्च भी सरकार ही वहन करेगी। कुल मिलाकर एक नैनो पर गुजरात सरकार लगभग 60,000 रुपये खर्च कर रही है। इसका भार गुजरात सरकार के खजाने और असल में लोगों पर ही पड़ेगा।
इसके अलावा यह कई उन्नत प्रदूषण मानकों को पूरा नहीं करती है। अप्रैल, 2010 में नये प्रदूषण मानक लागू होने पर क्या परिवर्तन किये जाएंगे, इसका भी कोई उत्तार फिलहाल नहीं दिया गया है। कारों की संख्या बढ़ने से प्रदूषण के स्तर में बढ़ोत्तारी होना लाजिमी सी बात हैं और इस पर विशेषज्ञों द्वारा चिन्ताएँ भी जतायीं जा रही हैं।
नैनो को अपने राज्य में लगवाने के लिए लगभग हर पार्टी की राज्य सरकारों ने पलक-पाँवड़े बिछा दिये थे। प. बंगाल की सरकार ने तो इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न ही बना लिया था। मोदी सरकार ने भी इसके लिए अभूतपूर्व तेजी दिखायी। स्रोत-संसाधनों की बौछार करने के अलावा सिर्फ तीन दिनों में इसकी सारी कागजी प्रक्रिया विशेष आदेश के तहत पूरी की गयीं।
सोचने वाली बात यह है कि सरकार किसी उद्योगपति को तो जनता की कार के नाम पर सब्सिडी दे देती है लेकिन जनता के लिए उपयोगी सार्वजनिक परिवहन की दशा सुधारने के बारे में ऑंखें मूँदे रहती है। पूरे देश में सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बदतर होती जा रही है। बसों और ट्रेनों में लटके हुए लोग अब दिल्ली, कलकत्ता जैसे बड़े शहरों में ही नहीं छोटे शहरों में भी आमतौर पर देखे जा सकते हैं।
सबसे खास बात यह है कि ऐसी कार जो आम जनता को कोई विशेष फायदा पहुँचाती नहीं दिख रही है, उसपर इतने स्रोत संसाधन क्यों लुटाये गये हैं। एक ऐसे देश में जहाँ संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के एक चौथाई भूखे लोग रहते हों और जिस देश के 55 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हों, उसमें कार को इतनी भारी सब्सिडी देना काफी कुछ बयान कर देता है। दिखायी पड़ता है कि मौजूदा भूमण्डलीकरण के दौर में सरकारी सब्सिडी को कम करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है। खाद्य-सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी सब्सिडी लगातार कम होती जा रही है। सरकारें हमेशा संसाधनों की कमी का रोना रोकर इन बुनियादी मदों पर खर्च में कटौती बजट-दर-बजट करती जा रही है। ऑंकड़े भी बताते हैं कि एक तरफ तथाकथित विकास की दर बढ़ रही है तो दूसरी तरफ भुखमरी और गरीबी बढ़ रही है। लेकिन इसी दौरान एक कार के लिए सरकारी खजाना खोल दिया जाता है। जाहिरा तौर पर यह विकास की अनपेक्षित दशा-दिशा और सरकारों की गलत प्राथमिकताओं और बुनियादी मुद्दों के प्रति उनकी उपेक्षा को ही दर्शाता है।
पता चला है कि नैनो के बाजार में आने बाद कई और बड़ी कम्पनियाँ भी छोटी कारें लेकर उतरने वाली हैं। इसके अलावा ऑटो इंडस्ट्री छोटी कारों के निर्माण के लिए अनुकूल माहौल बनाने और सुविधाएँ देने के लिए दबाव बना रही है। अगर नैनो जैसी परंपरा निभायी गयी तो सरकारी धन से किया जाने वाली जरूरी मदों पर खर्च का एक हिस्सा इसी तरह की सुविधाओं पर खर्च होने की आशंका है।
नैनो के लिए बेशक मोदी सरकार ने सबसे ज्यादा दिलचस्पी दिखायी हो लेकिन असल में यह पूरे शासक वर्ग की चाहत है कि सस्ती कार बाजार में हो। एक तो इससे खुशहाली का भ्रम पैदा किया जाता है, दूसरे जनता का ध्यान जरूरी बुनियादी चीजों से हटाया जाता है ताकि लोग इसमें उलझे रहें और पूँजीवाद का लूट का चक्र बिना गड़बड़ी के घूमता रहे। साथ ही अपेक्षाकृत कम गरीब आबादी को अपने पाले में लाने का शासक वर्ग का मकसद भी ऐसी चीजों से पूरा होता है।
यह अनायास ही नहीं है कि सस्ती या जनता की कार में सबसे ज्यादा दिलचस्पी पूँजीवाद के संकटमोचक फासीवाद के अवतारों ने दिखलायी है। जर्मनी में भी हिटलर ने बदहाल जनता को सस्ती फोक्सवैगन कार का सपना दिखाकर अपना समर्थक बनाने की कोशिश की थी। उस दौर में जर्मनी के आम लोगों को छोटी कार का सपना दिखाकर फासीवाद ने अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया था। कहीं यही कोशिश तो हमारे देश में नहीं की जा रही है? वैसे भी कोई व्यवस्था जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों के जीवन को बर्बाद करती जाती है, वैसे-वैसे उसे उलझाने-भरमाने की कोशिशें बढ़ती जाती हैं। आज के समय में सस्ती कार और सस्ता मोबाईल और बाद में सस्ती नेट सुविधा भी देकर यह व्यवस्था अपनी उम्र बढ़ाने की कोशिश कर रही है। लेकिन इन भरमों से क्या लोग जिन्दंगी के बुनियादी मुद्दों को भूल जाएंगे?
11 comments:
सच्ची बात! और जनता की समस्याओं को हल किए बिना उसे भरमाने की हर कोशिश आने वाली तानाशाही का संकेत देती है।
चलो नैनो कार के बहाने, नरेन्द्र मोदी की तुलना हिटलर से करने का काम भी पूरा हुआ… यदि यही कार फ़ैक्ट्री "बुद्धूदेव" लगा लेते या "ललुआ" लगा लेते तो शायद ये बातें ही ना उठतीं…। दूरसंचार स्पेक्ट्रम घोटाले में द्रमुक के मंत्री राजा और करुणानिधि ने जितना पैसा खा लिया है उतना तो आप सोच भी नहीं सकते… बस नरेन्द्र मोदी और संघ-भाजपा को कोसते रहिये… जय हो…
बधाई हो यहा भी मोदी को गरियाने का सुख पा ही लिया आपने वैसे मारुती की कहानी कभी पूछ देखियेगा अपने पिताश्री से वैसे रोज सुबह उठकर मोदी और हिंदुओ को गरियाने की आदत अच्छी है बालमीकी भी मरा ्मरा कहते हुये तर गये थे :)
आपने जिन समस्याओं को उठाया है वह तो वाजिब हैं परन्तु मोदी को गरियाने का स्वान्तः सुखाय विचार कुछ " खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे" जैसा प्रतीत होता है.
आपके लेख में कई विसंगतियां जाहिर होती हैं जर्मनी में भले ही हिटलर ने गरीबों की कार बनाने का सपना देखा हो पंरतु यहां वह सपना रतन टाटा ने देखा है जो की एक उद्योगपति हैं। दूसरी बात आपने सार्वजनिक परिवहन की बात की परंतु इस वजह से कारों को बनाना बंद नहीं किया जा सकता और जब देश की जनसंख्या लगातार बढ़ रही हो तो फिर आप कितने भी विकास कार्य कर लीजिये वो कम ही पड़ेंगे। तीसरी बात कार पर मासिक खर्च तीन–चार हजार आयेगा परंतु वह तेल के कारण। एक तरफ सारी दुनिया में तेल के दाम तीन गुने से भी कम हो गये अपने यहां कितने कम हुए आपने देखा होगा। चौथी बात कि उद्योगों को सुविधायें देना आवश्यक है आखिर इनसे सिर्फ उद्योगपति तो नहीं पल रहे बल्कि कई दूसरे लोगों को भी रोजगार मिलता है और क्षेत्र का विकास होता है वो अलग। और पांचवी‚ सस्ता मोबाईल और सस्ता इंटरनेट देकर बहुत बड़ा काम किया क्योंकि यह भी एक बुनियादी सुविधा बन गयी है। परंतु आपकी बातों से लगता है कि इनके मजे सिर्फ आप लूटना चाहते हैं।
क्या सुरेश चिपलूनकर को इतना भी नहीं पता कि बेईमानी, गुंडागर्दी, हरामखोरी और घोटाले करने का हक सिर्फ कमीनिष्टों का ही है!
कमीनिष्टों के बारे में कभी भी बुरा नहीं बोलना चाहिये, बोलना है तो मोदी के बारे में बोलो और बेईमान कांग्रेसियों की गोदी में लपक कर चाहे जब चढ़ जाओ और कूद जाओ
कमीनिष्ट तो हमारी न्यायपालिका की तरह पवित्र गऊ माता है
ओह...मुझे तो पता ही नहीं था कि, नैनो के आने का मतलब भयंकर प्रलय है.
मैं तो डर गया हूँ.
हिटलर ने जर्मनी के लोगों को कार का सपना नहीं दिखाया था, बल्कि इसके लिए उसने एक पूरी योजना तैयार की थी, युद्ध की वजह से कार में इस्तेमाल किये जाने वाले लोहों का इस्तेमाल युद्ध सामग्री में होने किया जाने लगा था,जो समय की मांग थी...यदि यकीन नहीं आता है तो उस समय दुनिभा भर में लोहे के कारोबार की क्या स्थिति थी उससे संबंधित सारे डाटा खंगाल लिजिये...वह सपना नहीं था, एक परियोजना थी, जर्मनी के लोगों के हित में...युद्ध के दौरान हिटहर बर्लिन में एक स्टैडिम का निर्माण करने की भी योजना पर काम कर रहा था, और उसका पूरा डिजाइन खुद तैयार कर रहा था, क्योंकि उसे यकीन था कि युद्ध में जीत उसकी ही होगी। आप जिस जनती की दुहाई दे रहे हैं यह कार भी उसी जनता के लिये है, लगता है कि विकास का आपका ग्रामर गड़बड़ है। कोई भी प्लांट उसी स्थान पर लगाया जाता है जहां पर स्थिरता होती है, बड़े प्लांट स्थिरता के सूचक है।
हर विचार और चिंताओं पर उसके वर्ग यानी क्लास की छाया होती है। नैनो की आलोचना सहन न करने वाले मेरे मित्रों की बातों से यह बात ज्यादा साफ हो जाती है। एकाध हल्की आवाज में मानने के अलावा किसी ने भी जनता की बुनियादी समस्याओं को केंद्र में रखकर नैनो के औचित्य पर तर्क नहीं दिया है। अक्षत विचार जी ने थोड़ा विचार करने योग्य बातें कहीं हैं। उनका मूल तर्क है कि चूंकि जनसंख्या बढ़ रही है इसलिए सबको परिवहन सुविधा नहीं दी जा सकती। लेकिन क्या जनसंख्या के साथ उत्पादकता नहीं बढ़ रही है। हर काम करने वाला हाथ समाज में अपना योगदान देता है। असली समस्या उत्पादों और सेवाओं की कमी की नहीं, यह है कि इनका वितरण समाज में किसे कितना होता है। आज की सामाजिक व्यवस्था में पैदा करने वाले को 10 प्रतिशत भी नहीं मिलता बाकी का सारा 90 प्रतिशत ऊपर के लोगों में बंट जाता है। माफी कीजिएगा लेकिन आप भी उन्हीं ऊपर के लोगों की निचली पायदान पर खड़े हैं। बताइये कि ये समाज मेहनत करने वालों को ढंग की रोटी दे पा रहा है? क्या इस तबके को अच्छी शिक्षा अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं? 18 करोड़ लोग बिना छत के रहते हैं और 25 करोड़ तो सरकार के अनुसार बेरोजगार हैं। इनका कोई समाधान है आपके पास? अगर इन चीजों का समाधान किये बिना कार और मोबाईल का सपना आम जनता को दिखाया जा रहा है तो यह एक छलावा नहीं तो और क्या है? दूसरे उद्योगों से आज की सामाजिक व्यवस्था में मजदूर नहीं पलते सिर्फ परजीवी कीड़े पलते हैं जो इनकी मेहनत पर जिंदा रहते हैं। मजदूर तो इस व्यवस्था में सबकुछ पैदा करने के बावजूद किसी तरह जिंदगी घसीट रहा है। मोबाईल और इंटरनेट से ज्यादा बुनियादी जरूरतें रोटी, घर, शिक्षा और स्वास्थ्य है, यह तो कोई अनपढ़ आदमी भी आपको बता देगा। जहां तक बात बुद्धुदेव और ललुआ या सोनिया की है तो ये सब भी मोदी की बिरादरी यानी क्लास के लोग हैं। जरूर इनमें से कुछ अपने को कम्युनिस्ट या समाजवादी वगैरह कहते हैं लेकिन इनका असली चरित्र मोदी वगैरह से ज्यादा अलग नहीं है। पोस्ट में फासिज्म की याद इसलिए दिलायी गयी है क्योंकि जब कोई पूंजीवादी व्यवस्था संकट में होती है तो उसका रक्षक फासीवाद होता है। जो लोगों का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटाकर गैरबुनियादी समस्याओं की ओर ले जाने के लिए कभी आर्य नस्ल की भावना उभाड़ता है तो कभी बहुसंख्यक धर्म वाले समुदाय के दमन की झूठी कहानियां पेश करता है। जनता को अमीर-गरीब के तौर पर आमने-सामने गोलबंद होने से रोकने के लिए वह निम्न मध्यवर्ग को भी कुछ सपने दिखाता है। हिटलर ने भी यही किया था और हमारे यहां टाटा और उनके मददगार या कहें प्रेरक शक्ति भी यही करने जा रही है। आप लोग न तो उस 20 रुपये रोजाना कमाने वाली जमात से आते हैं और न उस जमात के लिए आपके सरोकार असली हैं। नैनो बेशक आप लोगों के लिए ही है। मध्य और निम्न मध्य वर्ग के उन लोगों के लिए जो हुकूमत करने वाले वर्ग के साथ खड़ा है।
शुरू में मुझे भी लगा की आप विकास के खिलाफ हैं क्योंकि मैं भी नैनो खरीदने के सपने देख रहा था परन्तु जब मुझे पता चला की अस्सी प्रतिशत आबादी का इससे कुछ लेना देना नहीं है तब असलियत का पता चला. वास्तव में ये सवाल वर्ग से जुड़े हुए हैं. बुनियादी जरूरतों के अलावा अन्य सुविधाएँ भोग रहे वर्ग यानि लोगो को बाकि दुनिया से क्या मतलब. जहाँ तक बात कम्युनिस्ट की है तो शायद ये लोग हर उस व्यक्ति को कम्युनिस्ट मानते है जो आपने आपको कम्युनिस्ट कहता हो.
Post a Comment