Sunday, February 22, 2009

बस इश्‍क मोहब्‍बत प्‍यार, ये दिल्‍ली है मेरे यार - क्‍या वाकई?

दिल्‍ली 6 का ये गाना आजकल काफी बज रहा है। दिल्ली के बारे में बड़े शान से कहा जाता है कि भई दिल्ली तो दिलवालों का शहर है। यहां की तहजीब की कोई मिसाल नहीं, वगैरह वगैरह। क्या वाकई ऐसा है? सुनी-सुनाई बातों को थोड़ी देर किनारे रखकर दिल्ली से अपनी पहली मुलाकातों को जरा याद कीजिए। क्या दिल्ली वाकई दिलवालों की नजर आती है? दिल्ली ने आपको बांहें फैलाकर गले लगा लिया था, या गांव से आये अनचाहे मेहमान की तरह नाक-भौं सिकोड़ ली थी। दिल्ली गुदगुदाती है या कोई टीस ताजा देती है। आखिर दिल्ली का मिजाज कैसा है। मैं अपने अनुभवों को साझा करता हूं। दिल्ली में हम ज्यादातर लोग बाहर से आकर बसे हैं। अपने गांवों-कस्बों-शहरों के नुक्कड़ों-मोहल्लों-चौराहों को छोड़कर उम्मीदों और सपनों की बड़ी भारी गठरी लेकर दिल्ली के रेलवे स्टे्शन या बस अड्डे पर उतरे थे। यहां की मेहमाननवाजी का सबसे पहले सामना होता है विख्या्त ब्लूलाइन बस के कंडकटर से। टिकट देने के बाद लगभग धकेलते हुए बोलता है, ''यहां क्या थारी अम्मा नाचन लाग री है, अन्दर ने बड़ जाओ'' और आपको भुस की तरह भर दिया जाता है।
मकान लेने जाते हैं तो सरदारजी से सामना होता है, ''आहो जी, एत्थेद तो असी बैठे ही ऐस वास्ते हैं। कमरा बढ़ि‍या मिल जाएगा, बस कमीशन दो महीने का किराया एडवांस लगेगा।'' भाव बढ़ाने के लिए तड़ाक से यह भी पूछ लिया जाता है, ''बिहारी हो क्या?'' किसी वजह से दिल्ली वालों का जनरल नालेज बहुत कमजोर है। यहां के लोग मेरठ से आगे की सारी जगहों को बिहार ही समझते हैं। जमनापार या तुगलकाबाद के आसपास के गूजरों वाले इलाकों में अंदाज यूं होता है, ''कोंह के हो तम?''
सबसे अहम बात कि आपकी हैसियत कमतर लगते ही आपको बिहारी समझ लिया जाता है। बिहारी शब्द आपके इलाके का नहीं आपकी क्लॉस का प्रतिनिधि होता है।
आपको स्कूल, अस्पताल, दफ्तर, से लेकर थानों तक में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगें। बेशक दिल्ली आपको एक ठिया देती है जहां आप रोजी-रोटी कमा सकते हैं। लेकिन कदम-कदम पर आपकी हैसियत भी जता दी जाती है।
जब मैं दिल्ली के इन पहलुओं की चर्चा कर रहा हूं तो इसका यह मतलब कतई नहीं है‍ कि दिल्ली रहने लायक नहीं है और अपना गांव ही बढ़ि‍या था। दिल्ली गति का नाम है जबकि गांव सड़ते हुए पानी या ठहरे हुए जीवन का। इस गति की कुछ क्रूरताएं जरूर हैं लेकिन फिर भी यह जड़ता झेलने से कहीं बेहतर है। इस दौड़ते जीवन की ये बेरहमियां उस मूल्य से जुड़ी हैं जो तरक्कीत की अपनी परिभाषा में जबर्दस्‍ती थोप दी गयी हैं। और तरक्की की सीढ़ि‍यों पर चढ़ने के लिए जिनका इस्तेमाल करना जरूरी होता है। और फिर धीरे-धीरे ये स्वीकार्य और सामान्य लगने लगती हैं। तब तक शायद हमारी खुद की क्लास बदल जाती है। लेकिन दिल्ली के 70 फीसदी आबादी की क्लॉस अमूमन नहीं बदलती। और वो 'बिहारी' होने का ठप्पा लगाए घूमते रहते हैं। दिल्ली के बारे में आपके क्याह ख्याल क्या हैं? बताइएगा...

6 comments:

मसिजीवी said...

ये दिल्‍ली वाकई दिल वालों की है...दिल लेकर तो आओ दोस्‍त...उसे घर ही छोडकर आओगे तब थोड़े ही दिल देख पाओगे। दलि वालो की न होती तो यहॉं क्‍यों नहीं कोई ससुर नवनिर्माण सेना खड़ी होकर दिखा देती।

ये सरदारजी, ये ब्‍ल्‍यू लाइन वाला से सब अन्‍यों ही की तरह बाहर से ही आएं हैं... इस शहर में दिल था इसीलिए तो यहीं मकानमालिक हो रहे हैं। 1857, 1947 इसी शहर के दिल से भरे गए घाव हैं... 1984 भी भर जाएंगे यहीं।

MANVINDER BHIMBER said...

dilli ka achcha varnann kiya hai...sach hi kha h ai...dilli dil waalon ki hai

सुशील छौक्कर said...

मसिजीवी जी की बात से सहमत।

रवीन्द्र प्रभात said...

ये दिल्‍ली वाकई दिल वालों की है...मसिजीवी जी की बात से सहमति के साथ इतना ही कहूंगा कि अच्छा लगा पढ़कर .../

Udan Tashtari said...

मसिजीवी जी ने सब कह दिया तो हम चलते हैं आपको पढ़कर.

mukti said...

आपका कहना बिल्कुल सही है.दिल्ली के लोग सारे गरीबों को बिहारी और सारे बिहारियों को गरीब समझते हैं .दिल्ली में बसे अधिकतर लोग देश के बंटवारे के समय शरणार्थियों के रूप में आए थे .लेकिन वे अपने आपको यहाँ रहने का एकमात्र अधिकारी मानते हैं हालाँकि सभीलोग एक जैसे नहीं हैं .पर बाहरवालों के साथ उनका व्यवहार अच्छा नहीं है .