मैं हैरान हूं केरल के ब्लॉगर अजीत डी पर सुनाए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर और उसके औचित्य पर। और इस फैसले के बाद कुछ ब्लॉगरों के रवैये पर भी।
अजीत पर आरोप लगाया गया है कि उसने शिवसेना को राष्ट्र को क्षेत्र और जाति के आधार पर बांटने वाला बताकर उनकी भावनाओं पर चोट पहुंचाई है। हमारा देश कुछ ज्यादा ही भावना प्रधान देश है। सबसे पहले भावनाओं पर चोट लगने की ही बात करते हैं। पहला सवाल तो यही है कि शिवसेना की राजनीति और बयान क्या करते हैं? क्या शिवसेना लोगों की भावनाओं पर चोट नहीं पहुंचाती है। उसके उत्तर भारतीयों के खिलाफ किए जाने वाले विषवमन क्या लोगों को प्रफुल्लित कर देते हैं? क्या इस बात को भूला जा सकता है कि बाल ठाकरे ने कहा था, ''सारे मुसलमानों को उठाकर अरब सागर में फेंक देना चाहिए।'' या कि ''उत्तर भारतीय लोग मुंबई को गंदा कर देते हैं।'' या फिर उनके ''लुंगी भगाओ, पुंगी बजाओ'' अभियान ने लोगों की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाई थी। शिवसेना और उस जैसे तमाम संगठन अल्पसंख्यकों, महिलाओं के खिलाफ जो बयान देते रहते हैं, क्या उनके लिए भावनाओं पर चोट पहुंचाने का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? क्या उनके बयान देश को तोड़ने वाले और किन्हीं आतंकवादियों/अलगाववादियों से कम खतरनाक होते हैं?
जहां तक भावनाओं पर चोट पहुंचने का मामला है तो ऐसी कौन सी बात है कि जिससे किसी न किसी को चोट न पहुंचती हो। क्या गैलीलियो ने जब ब्रह्मांड का केंद्र सूर्य को बताया था तो लोगों की भावनाओं को चोट नहीं पहुंची थी? जब डार्विन ने बंदर से इंसान बनने का विकासवाद का सिद्धांत सामने रखा तो क्या लोगों की भावनाएं आहत नहीं हुईं थी। दुनिया की कोई भी ऐसी बात हो ही नहीं सकती जिसपर सारे लोग एकमत हो जाएं। यहां तक कि युनिवर्सल ट्रूथ (सार्वभौमिक सत्य) कही जाने वाली बातों से भी लोग इत्तफाक नहीं रखते हैं। वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो जाने के बावजूद क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो ये मानते हैं कि दुनिया को किसी ‘‘भगवानजी’’ ने पैदा किया है। सारे लोगों को खुशहाल जीवन देने के विरोधी लोग भी अच्छी-खासी मात्रा में मिल जाएंगे। जो बात किसी के लिए सही है वह दूसरे के लिए बुरी लगने वाली हो सकती है। उसके सही और गलत होने का पैमाना क्या होगा? मुझे लगता है जो बात तर्कसंगत और वैज्ञानिक है वह व्यापक तौर पर बहुसंख्यक लोगों के भले के लिए भी होगी और उसी के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। शिवसेना को अगर अपने राष्ट्र विरोधी और समाज को बांटने के आरोप से पीड़ा हुई है तो हर तरह का गलत काम करने वालों के खिलाफ लिखने से उनको (गलत काम करने वालों) को भी तो पीड़ा पहुंचेगी, उनकी भी तो भावनाओं पर चोट लगेगी। तब फिर उनके खिलाफ मीडिया में लिखने वाले सारे लोगों को भी कानूनन महाराष्ट्र, झारखण्ड, अंदमान निकोबार या श्रीनगर की अदालत में पैरवी करने जाना होगा। तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब क्या होगा और क्या लोकतंत्र का होगा!
विधि संहिता का सबसे प्रमुख सिद्धांत ‘मोटिव’ यानी आपके मकसद पर ध्यान देने की जरूरत पर जोर देता है। इस मामले में अजीत डी का मकसद कहीं से भी शिव सेना के खिलाफ ऑरकुट पर कम्युनिटी बनाकर कोई राजनीतिक लाभ या निजी लाभ उठाने का नजर नहीं आता है। दूसरी तरफ शिवसेना की भावनाओं पर चोट सिर्फ अजीत की बनाई कम्युनिटी से ही कैसे लग गई। क्या मुंबई के सारे ब्लॉगर शिवसेना की तारीफ करते हैं? शिवसेना की भावनाओं को जिन लोगों से चोट पहुंचती हैं क्या उनका अंजाम हमें याद नहीं है। लोकसत्ता के संपादक कुमार केतकर समेत कई पत्रकारों-संपादकों से लेकर प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के दफ्तरों में की गई मारपीट और तोड़फोड़!!! एक अहम सवाल यह है कि मुंबई के विरोधी पत्रकारों और लोगों से उन्हें जब चोट पहुंचती है तब उन्हें अदालत क्यों नहीं याद आती। और तब वे गुंडागर्दी पर क्यों उतर आते हैं।
दरअसल उनकी मंशा एकदम साफ है। अजीत को महाराष्ट्र की अदालत में खींचने का मकसद सिर्फ एक है उसे तंग करना, बेवजह परेशान करना ताकि ऐसे तमाम लोगों को संदेश दिया जा सके कि ‘‘देख लो तुम्हारा भी यही अंजाम करेंगे।’’ साफ है कि इंटरनेट जैसे संचार माध्यम से उठने वाली विरोधी आवाजों को इस तरह रोका जाएगा। ब्लॉगिंग या वेब पत्रकारिता के पक्ष में एक सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें आपके विचार अब किसी अखबार या चैनल के बिजनैसमेन मालिक और उसके चमचे संपादकों से नियंत्रित नहीं हो सकते। इसके पूंजी से मुक्त संचार माध्यम होने की वजह से इसकी ताकत आम लोगों के लिए काफी बड़ी हो जाती है। इसकी इसी ताकत ने समाज के मीडिया पर प्रभुत्व रखने वाले प्रभावशाली तबके के अंदर हलचल पैदा कर दी है। यह मामला इसी हलचल का नतीजा है।
इस मामले का व्यापक असर होगा। इससे उन ताकतों को बल मिलेगा जो समाज में हर विरोधी आवाज को कुचल देना चाहती हैं, जो समाज में अपनी बातों का एकछत्र राज और साफ-साफ शब्दों में तानाशाही चाहती हैं, और जो समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जनवादी स्पेस को खत्म कर देना चाहती हैं (जैसा कि तालिबान स्वात घाटी में पत्रकारों को मारकर कर रहा है)। यह संदेश उन सब लोगों के लिए है जो समाज में गलत चीजों के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं, जो समाज में बहस के दायरे को जिन्दा रखना चाहते हैं। जो लोग उस वजह को जिन्दा रखना चाहते हैं जिसकी वजह से कोई व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्यों से लैस होती है।
इस मामले पर ब्लॉगर जगत में मुझे अजीब बातें दिखाई दीं। खासकर हिंदी के ब्लॉग जगत में एक भी ब्लॉग पर अजीत के पक्ष में कुछ दिखाई नहीं पड़ा (अगर आपकी जानकारी में हो कृपया मुझे सूचित करें)। कुछ के अनुसार विरोध मर्यादित होना चाहिए, तो कुछ ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उश्र्खृंलता नहीं होती है। मेरा कहना है कि पहली बात तो अनाम टिप्पणीकारों के लिए अजीत को दोषी देना क्या जायज है? दूसरी बात कि क्या अजीत के इस कम्युनिटी चलाने के मोटिव चलाने पर आपका सवाल है? क्या आप लोग शिवसेना को राष्ट्र को जोड़ने वाली और समाज में समरसता और भाईचारा पैदा करने वाली पार्टी मानते हैं, और उसकी भावनाओं पर चोट लगने के नाम पर समाज में शिवसेना या उसकी जैसी तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ विमर्श किए जाने से ही इंकार करते हैं? अगर नहीं तो फिर अजीत ने क्या गलत किया है?
वैसे फिलहाल अजीत के सामने मुश्किलें तो पैदा हो ही गई है। उसके आर्थिक पहलू और पढ़ाई के पहलू के अलावा सुरक्षा के पहलू पर भी गौर नहीं किया गया है। इस मुद्दे पर आज टाईम्स ऑफ इंडिया की एक खबर ने थोड़ी राहत दी जिसमें कुछ ब्लॉगरों ने अजीत के मामले पर नाराजगी जाहिर की है और इसके खिलाफ एकजुट होने की जरूरत पर जोर दिया है। मुझे लगता है कि यह मुद्दा भारतीय ब्लागिंग जगत में एक मोड़बिंदु (Turning point) ला सकता है जहां से इसके भविष्य का रास्ता साफ होगा। दरअसल मसला सिर्फ शिवसेना का नहीं है। यह मामला विचारों पर बंदिश लगाने के इच्छुक लोगों और इसके खिलाफ खड़े लोगों के बीच का है। ये हमें तय करना होगा कि इस माध्यम को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का 'डेमोक्रेटिक स्पेस' बनाया जाए या प्रभावशाली तबके और उसके हितों से नियंत्रित होने वाले अन्य संचार माध्यमों की तरह उनके भौंपूं का………???
5 comments:
"समरथ के नहि दोष गोसाई " सर्वोच्च न्यायालय के गठन से पूर्व की उक्ति है .तुलसी बाबा की.
मैं इस बात का विरोध करता हूँ और कुछ टिप्पणियों में मैंने इसका उल्लेख भी किया है… यह चिन्ता की बात है सभी ब्लोगरों के लिये… लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट से जुड़ा है इसलिये लोग आवाज़ उठाने में घबरा रहे हैं…
भाई, आप का गुस्सा जायज है। सुप्रिम कोर्ट का जो निर्णय है वह अभी पूरा पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं है। जो समाचार पत्रों में पढ़ने को मिला है उस से जो तथ्य सामने आए हैं उस से पता यह लगता है कि उस कम्युनिटी में शिवसेना प्रमुख को कत्ल करने की धमंकी दी गई थी। इस के अलावा धार्मिक समुदायों के विरुद्ध घृणा फैलाने वाले आलेख और टिप्पणियाँ भी थीं। ऐसे मे कम्युनिटी का प्रकाशक होने के नाते अजीत पर मुकदमा चला है। उस पर प्रकाशित सामग्री ऐसी है जिस से मुकदमा बनता है तो सुप्रीम कोर्ट उसे कैसे रोक सकता है? यदि कोई आप को कत्ल करने की धमकी दे जाए तो उस अपराध लिए उस के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जा सकती है, लेकिन आप भी वैसी ही धमकी ब्लाग पर उसे दे डालें तो आप भी वैसा ही अपराध करेंगे और वह भी दंडनीय होगा।
यहाँ अजीत के पक्ष या विपक्ष की बात नहीं है। ब्लागिंग के जरिए किया गया कोई भी अपराध दंडनीय न होॉ, यह कैसे हो सकता है?
ठीक कहे रहे हैं कपिल आप
हर चुप्पी एक नये जुल्म का रास्ता तैयार करेगी।
जब अभी तक उनका लेख पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कैसे कुछ कहा जा सकता है , आशा है कि कमेन्ट करने वाले सभी साथियों ने 'अजित डी ' के उक्त ब्लॉग के लेखों को अवश्य ही पढ़ा होगा ?! मैं द्विवेदी जी की 'टिप्पणी ' से सहमत हूँ | अगर वही सब जिसका संकेत द्विवेदी जी ने किया है 'अजित डी 'के ब्लॉग पर था तो फिर उनमें और बाल ठाकरे में क्या अंतर रहा जाता है , मैं बाल ठाकरे को ज्यादा सही कहूँगा कम से कम उनकी विचार धारा स्पष्ट और सार्वजनिक तो है ,जिससे समय पर उसका विरोध भी किया जा सकता है | समाचार-पत्रों से मुझे जितना ज्ञात हुआ है ,उसके अनुसार 'अजित डी ' की कम्युनिटी और ब्लॉग ' बंद प्रकृति का '[ क्लोज सर्किल -ग्रुप ] था ,जो ज्यादा खतरनाक होता है ,क्योंकि उनके इरादे और विचार सार्वजनिक न होने के कारण समय रहते उनकी काट और विरोध नहीं किया जा सकता है |
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