नेपाल में जनयुद्ध शुरू होने की 12वीं वर्षगांठ परसों यानी 12 फरवरी को है। 12 फरवरी 1996 से नेपाली जनता ने अत्याचारी राजा और भ्रष्ट लोकशाही के खिलाफ संघर्ष छेड़ा था। आज यह संघर्ष एक कठिन मंजिल पर है और इसकी अंतिम मंजिल तो बेशक अभी काफी दूर है। लेकिन नेपाल की आम गरीब जनता ने पूरी दुनिया में लागू व्यवस्था को नकार कर, उसके तथाकथित लोकतंत्र को अस्वीकार करके सारी दुनिया के लिए क्या कोई संदेश नहीं दिया है? क्या पूरी दुनिया में जनसंघर्षों के लिए इस क्रान्ति से सीखने के लिए कुछ है?
राजा के समय में नेपाल में देश की 90 फीसदी जनता भयंकर भुखमरी, बेरोजगारी का शिकार थी। इस कठिन जीवन में कोढ़ में खाज राजा के सामंत, जागीरदार, लठैत, पुलिस पैदा करते थे। साथ ही पैसे वालों की छोटी सी जमात पैदा हो गई जो मुनाफे के बाजार को जनता का खून-पसीना निचोड़कर फैलाना चाहती थी। लोकतंत्र आया लेकिन उसके आने के बाद फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि एक की जगह कई राजा हो गए। लोगों का जीवन उतना ही कष्टकारी और दुखभरा था। लोग वास्तविक बदलाव चाहते थे। इसी समय क्रान्तिकारियों के आह्वान पर जनयुद्ध की घोषणा हुई जिसके लगभग 10 सालों तक चलने के बाद आज का मुकाम हासिल हुआ। नेपाल के लोगों को समझ आया कि राजशाही हो या लोकतंत्र, जनता का जीवन तो चंद लोगों की मुट्ठी में ही रहता है। इसलिए इस धोखे को खत्म करके अपने राज-काज के लिए लड़ा जाए। पूरी दुनिया में अभी भी बहुत से लोग हैं जो ये समझते हैं कि वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही सुधार कर इसे अच्छा बनाया जा सकता है। हालांकि ऐसे लोग न तो इतिहास की ठीक समझ रखते हैं न समाज की। नेपाली गरीब, अनपढ़ जनता ने इस व्यवस्था को नकार कर संकेत दिया है कि चाहे जनता के राज-काज के प्रयोग कितनी बार असफल हो गये हों लेकिन अंतत: उनके जीवन में सुधार आ सकता है तो इसी के जरिए। यानी जब तक सामाजिक व्यवस्था में सुधार नहीं आमूलचूल परिवर्तन न किये जायेंगे। सुधार-सुधार के खेल से कुछ हासिल नहीं हो सकता। क्या इस संकेत को हम लोग समझ रहे हैं?
1 comment:
लोग आज इस संकेत को न समझ रहे हों मगर कभी न कभी तो समझना ही होगा।
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