तमाम लोगों ने कहा कि पब-संस्कृति हमारी संस्कृति में नहीं है, कि ये नौजवानों को बिगाड़ रही है, लड़के-लड़कियों का हाथ में हाथ डालकर घूमना सही नहीं है, वगैरह-वगैरह। पहली बात यह महाशयों कि हमारी जिस ''महान'' संस्कृति की बात की जाती है, क्या उसमें इन्द्र के दरबार में सुरा-सुन्दरी नहीं छाई रहती थीं। तमाम देवताओं का प्रिय पेय सोमरस क्या था। हां, महिलाओं के पीने का जिक्र शायद बहुत कम है। यानी संस्कृति के हिसाब से पुरुष पिये तो ठीक, महिलाएं पिये तो कहर। तो मानिये कि आपकी संस्कृति महिलाओं से भेदभाव पर आधारित है।
दूसरी और अहम बात कि पब-संस्कृति का ही विरोध क्यों हो रहा है? अगर विरोध करना है तो मॉल-कल्चर का भी विरोध करें, विदेशी कपड़ों का, विदेशी फिल्मों का भी विरोध करना चाहिए। ये भी तो हमारी संस्कृति में नहीं थे। तो फिर विदेशी तकनीकों का इस्तेमाल क्यों, इण्टरनेट तो सांस्कृतिक हमले का बड़ा औजार है। और फिर विदेशी कम्पनियों का विरोध क्यों नहीं होता। जो अपना माल बेचने के लिए अपनी संस्कृति साथ लेकर आती हैं। कुल मिलाकर अगर वाकई पब का विरोध करना है तो विदेशी पूंजी का विरोध करना चाहिए। आजकल कई उपकरणों में इनबिल्ट (सहनिर्मित) चीजें आती हैं। बात दरअसल यह है कि पब मात्र उस आयातित संस्कृति का इनबिल्ट प्रोग्राम है जिसे हमने आयात किया है और जिसकी बदौलत तरक्की (कुछ लोगों की) पर फूले भी नहीं समा रहे हैं और उसके साथ आने वाली चीजों से परेशान भी हैं।
पर विदेशी पूंजी का विरोध कैसे होगा, उसे तो दौड़-दौड़ कर दण्डवत होकर बुला रहे हैं। अब उसके आने के परिणाम भी आने लगे हैं। देश की आबादी का एक तबका बड़ी तेजी से छलांगे मार रहा है। अब पैसा आ रहा है तो खर्च करने के लिए ही ना! अपना या अपने बाप के पैसे को खर्च करने के लिए यह तबका महंगे मोबाईल, मोटरसाइकिलें, लक्जरी कारें, विदेशों में घूमने, डिजाइनर फ्लैटों और मॉल, बार और पबों की ओर दौड़ रहा है। ये तमाम आउटलेट पैसे की गर्मी निकालने के भी साधन हैं। और जब यह होता है तो जेसिका लाल मर्डर भी होंगे और मनु शर्मा अपनी कार से लोगों को भी कुचलेगा।
असल में भारतीय संस्कृति के रक्षक बहुत सारे हैं। किसी भी पुरानी संस्कृति की तमाम बातों को शिरोधार्य मानना सरासर बेवकूफी है। हालांकि संस्कृति के अंधे उपासक इसे बेवकूफी में नहीं बल्कि अपनी शासित दुनिया और राजकाज चलाये/बनाये रखने के लिए पुरानी संस्कृति को ज्यों का त्यों मानने के हामी होते हैं। ये अंधे उपासक प्रमोद मुत्तालिक, प्रज्ञा सिंह, पुरोहित जैसे लोग भी हैं तो येदुरप्पा, रामोदास, गहलौत जैसे लोग भी।
वैसे ये दोमुंहापन पूरे समाज में है। नये का स्वाद भी चाहिए, पुराने से पीछा छुड़ाने में डरते भी हैं या अपने फायदे के लिए जानबूझकर चिपके रहना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में अमेरिका चाहिए, अमेरिकी संस्कृति नहीं। भैया, अगर देश को ''तरक्की'' करनी है तो विदेशी पूंजी भी लेनी होगी और विदेशी संस्कृति भी। यह पूंजी के साथ नत्थी एक शर्त होती है जिसे मानना ही पड़ता है। तो फिर यह भारतीय संस्कृति की रक्षा का ढोंग क्यों? वैसे बताते चले कि देश की 75 फीसदी आबादी का न तो इस तरक्की से रिश्ता रह गया है और न पब-बार-मॉल उनकी समस्या हैं।
3 comments:
badhiyaa aur sahii likha haen aapne .
कुछ भी न करने और सब कुछ भोगने की मानसिकता वाले लोग हैं ये।
आपने बिलकुल सही लिखा है। यह अभियान बनाए रखिए।
पूँजी का विरोध ही 'प्रागतिशीलता' है या इसकी कुछ अलग परिभाषा भी है? यदि मालूम हो तो बताएँ।
दुनिया भर में जिस मार्क्सवाद की थू-थू हो गयी उसस चिपके रहना भी 'प्रगतिशीलता' है?
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