
खाप-पंचायतों के खिलाफ आज एक शानदार और ऐतिहासिक फैसला आया है। करनाल की अदालत ने मनोज और बबली के हत्यारों को मौत की सजा सुनाई है। बेशक इस फैसले के देर से आने और दोषी पुलिसकर्मियों को छोड़ देने समेत कई सवाल मौजूद हैं लेकिन कुछ फैसलों का असर उनके द्वारा दिए जाने वाले संदेश में होता है। यकीनन यह फैसला जाटलैंड और देश के दूसरे जाटलैंडों (मेरठ से मुजफ्फरनगर समेत) में एक संदेश तो देगा ही।
मनोज और बबली उन कई बदनसीब लोगों में से थे, जिन्हें प्यार करने के संगीन जुर्म में बिना किसी सुनवाई के टुकड़े-टुकड़े करके गाड़ दिया जाता है या नहर में बहा दिया जाता है या फिर जिन्दा ही बिटोड़े में उपलों से जला दिया जाता है। अकेले हरियाणा के करनाल, जींद, सोनीपत और रोहतक जिलों में हर साल लगभग 100 लड़के-लड़कियों को बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया जाता है, पूरे देश के आंकड़ों का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। एकदम सीधी बात यह भी है कि इन हत्याओं को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। खाप पंचायत के सदस्यों, हत्या करने वाले परिवार के लोगों, खाप पंचायतों के दम पर चुनाव जीतने वाले नेता और पार्टियां, स्थानीय पुलिसकर्मी और प्रशासन, यानी पूरा सामाजिक आधार इन हत्याओं के दोषी हैं। वेदपाल की हत्या एक नमूना थी जबकि पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश पर पुलिस सुरक्षा दिए जाने के बावजूद, पुलिस के घेरे में से निकाल कर उसे खुलेआम मार दिया गया था। इन हत्याओं से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल इसी सामाजिक दुष्चक्र को तोड़ने का है। इन हत्याओं के खिलाफ एक व्यापक सामाजिक माहौल ही इसे तोड़ सकता है। इसे तोड़ने की उम्मीद किसी सरकार से करना हथेली पर सरसों उगाने जैसा है।
गौर करने वाली बात यह भी है कि खुद को ज्यादा आधुनिक व प्रगतिशील दिखाने वाली कांग्रेस का इन क्षेत्रों में आधार रहा है। और दशकों से होने वाली इन हत्याओं पर उसने चुप्पी साध रखी थी।
इस फैसले में हत्यारों को सजा मिलेगी या वे बच जाएंगे, ये सवाल हमारी पूरी न्यायिक और उससे भी ज्यादा मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। बहरहाल इस फैसले से उन खाप नेताओं और हत्यारे अभिभावकों को जरूर कुछ सबक मिलेगा।
गोत्र और जाति, उन सड़े हुए अंडों की तरह हैं जिन्हें हमारे समाज ने सहेज रखा है, जो खुलते हैं तो दूर-दूर तक माहौल में ऐसी हवा घोल देते हैं कि सांस लेना तक मुश्किल हो जाए। एक मामले में एक फैसला तो आ गया पर सबसे बड़ा फैसला तो हमें यानी इस देश के उस पढ़े-लिखे तबके को करना है, जो खुद को आधुनिक कहलाना पसंद करता है। या कम से कम आधुनिक बनने की होड़ में शामिल हो गया है। उसे इन सवालों का सामना करना होगा कि इन बर्बर हत्याओं को क्या मंजूर किया जाए, कि गोत्र और खाप जैसी सड़ी-गली चीजों को कूड़ेदान में फेंक दिया जाए और कि क्या हम ऐसे समाज को सभ्य और आधुनिक और खुद को उसका हिस्सा कह सकते हैं जहां प्रेम करने पर नौजवानों के टुकड़े करके फेंक दिए जाते हों? जब तक इन सवालों पर हम लोग अपना सही स्टैंड नहीं लेंगे और अपने दायरों में मुखर नहीं होंगे, तब तक शायद मनोज और बबली यूं ही मारे जाते रहेंगे...