Monday, May 10, 2010

रामकुमार कृषक, आम जनजीवन के संघर्षों के कवि

(बीती 7 मई को वरिष्‍ठ कवि रामकुमार कृषक का कविता-पाठ साहित्‍य अकादमी, दिल्ली के सभागार में हुआ। उनके कविता पाठ की तारीफ अपने एक साथी से सुनी थी। कविता की मेरी बहुत समझ नहीं है इसलिए कविताओं पर तो ज्‍यादा कुछ नहीं कह सकता, हां उनकी कविताएं अपनी सहजता-सरलता के साथ अपने बहुत अरीब-करीब की चीजों को, जिंदगी की मुश्किलों और हौंसलों, दोनों को सामने लाती जरूर महसूस होती हैं। कृषकजी मुझे हमेशा साहित्‍यिक तिकड़मों से दूर रहने वाले, अपने आसपास के जीवन, संघर्षों में रचे-बसे, नौजवानों खासतौर पर युवा साहित्‍यकारों का हौंसला बढ़ाते नजर आए। सादतपुर का शासकीय तौर पर नाम नागार्जुन नगर कराने के लिए जिन लोगों ने भागदौड़ की, उनमें शायद कृषकजी सबसे आगे रहे। कृषकजी लघु पत्रिका आंदोलन के समन्‍वयक भी रह चुके हैं। शायद दिल्‍ली में अरसे बाद हो रहे उनके कविता-पाठ को सुनने के लिए आमतौर पर आधा-अधूरा भरने वाला यह सभागार पूरा भर गया था। इससे पता लगता है कि उन्‍होंने कितना सम्‍मान व प्‍यार अर्जित किया है। उनकी तीन कविताएं प्रस्‍तुत हैं।)

ककहरा
‘ क ‘ से काम कर ,
‘ ख ‘ से खा मत ,
‘ ग ‘ से गीत सुना ,
‘ घ ‘ से घर की बात न करना , ङ खाली ।
सोचो हम तक कैसे पहुँचे खुशहाली !
‘ च ‘ को सौंप चटाई ,
‘ छ ‘ ने छल छाया ,
‘ ज ‘ जंगल ने , ‘ झ ‘ का झण्डा फहराया ,
झगड़े ने ञ बीचोबीच दबा डाली ,
सोचो हम तक कैसे पहुँचे खुशहाली !
‘ ट ‘ टूटे , ‘ ठ ‘ ठिटके ,
यूँ ‘ ड ‘ डरा गया ,
‘ ढ ‘ की ढपली हम ,
जो आया , बजा गया ।
आगे कभी न आई ‘ ण ‘ पीछे वाली,
सोचो हम तक कैसे पहुँचे खुशहाली !


फिर समूचा एक दिन बीता
फिर समूचा एक दिन बीता
रह गया आधा-अधूरा आदमी रीता

रोटियाँ-रुजगार
भागमभाग
झिड़कियाँ-झौं-झौं कई खटराग
हर समय हर पल लहू पीता

बंद कमरों में
खुला आकाश
वाह ! क्या जीदारियत, शाबाश
बहस का मैदान तो जीता

कारखाने-खेत औ'
फुटपाथ
हाथ सबके साथ कितने हाथ
कह रही कुछ और भी गीता !
(रचनाकाल : 28.01.1979)

अगर हम
न छल होता न प्रपंच
न स्वार्थ होता न मंच
न चादर होती न दाग़
न फूस होता न आग
न प्राण होते न प्रण
न देह होती न व्रण
न दुष्ट होते न नेक
न अलग होते न एक
न शहर होते न गाँव
न धूप होती न छाँव
अगर हम जानवर होते



सोच
सोच रहा हूँ
सोचना बंद कर दूँ
और सुखी रहूँ !