Tuesday, March 30, 2010
खाप-पंचायतों के खिलाफ ऐतिहासिक फैसला, पांच को मौत की सजा
खाप-पंचायतों के खिलाफ आज एक शानदार और ऐतिहासिक फैसला आया है। करनाल की अदालत ने मनोज और बबली के हत्यारों को मौत की सजा सुनाई है। बेशक इस फैसले के देर से आने और दोषी पुलिसकर्मियों को छोड़ देने समेत कई सवाल मौजूद हैं लेकिन कुछ फैसलों का असर उनके द्वारा दिए जाने वाले संदेश में होता है। यकीनन यह फैसला जाटलैंड और देश के दूसरे जाटलैंडों (मेरठ से मुजफ्फरनगर समेत) में एक संदेश तो देगा ही।
मनोज और बबली उन कई बदनसीब लोगों में से थे, जिन्हें प्यार करने के संगीन जुर्म में बिना किसी सुनवाई के टुकड़े-टुकड़े करके गाड़ दिया जाता है या नहर में बहा दिया जाता है या फिर जिन्दा ही बिटोड़े में उपलों से जला दिया जाता है। अकेले हरियाणा के करनाल, जींद, सोनीपत और रोहतक जिलों में हर साल लगभग 100 लड़के-लड़कियों को बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया जाता है, पूरे देश के आंकड़ों का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। एकदम सीधी बात यह भी है कि इन हत्याओं को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। खाप पंचायत के सदस्यों, हत्या करने वाले परिवार के लोगों, खाप पंचायतों के दम पर चुनाव जीतने वाले नेता और पार्टियां, स्थानीय पुलिसकर्मी और प्रशासन, यानी पूरा सामाजिक आधार इन हत्याओं के दोषी हैं। वेदपाल की हत्या एक नमूना थी जबकि पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश पर पुलिस सुरक्षा दिए जाने के बावजूद, पुलिस के घेरे में से निकाल कर उसे खुलेआम मार दिया गया था। इन हत्याओं से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल इसी सामाजिक दुष्चक्र को तोड़ने का है। इन हत्याओं के खिलाफ एक व्यापक सामाजिक माहौल ही इसे तोड़ सकता है। इसे तोड़ने की उम्मीद किसी सरकार से करना हथेली पर सरसों उगाने जैसा है।
गौर करने वाली बात यह भी है कि खुद को ज्यादा आधुनिक व प्रगतिशील दिखाने वाली कांग्रेस का इन क्षेत्रों में आधार रहा है। और दशकों से होने वाली इन हत्याओं पर उसने चुप्पी साध रखी थी।
इस फैसले में हत्यारों को सजा मिलेगी या वे बच जाएंगे, ये सवाल हमारी पूरी न्यायिक और उससे भी ज्यादा मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। बहरहाल इस फैसले से उन खाप नेताओं और हत्यारे अभिभावकों को जरूर कुछ सबक मिलेगा।
गोत्र और जाति, उन सड़े हुए अंडों की तरह हैं जिन्हें हमारे समाज ने सहेज रखा है, जो खुलते हैं तो दूर-दूर तक माहौल में ऐसी हवा घोल देते हैं कि सांस लेना तक मुश्किल हो जाए। एक मामले में एक फैसला तो आ गया पर सबसे बड़ा फैसला तो हमें यानी इस देश के उस पढ़े-लिखे तबके को करना है, जो खुद को आधुनिक कहलाना पसंद करता है। या कम से कम आधुनिक बनने की होड़ में शामिल हो गया है। उसे इन सवालों का सामना करना होगा कि इन बर्बर हत्याओं को क्या मंजूर किया जाए, कि गोत्र और खाप जैसी सड़ी-गली चीजों को कूड़ेदान में फेंक दिया जाए और कि क्या हम ऐसे समाज को सभ्य और आधुनिक और खुद को उसका हिस्सा कह सकते हैं जहां प्रेम करने पर नौजवानों के टुकड़े करके फेंक दिए जाते हों? जब तक इन सवालों पर हम लोग अपना सही स्टैंड नहीं लेंगे और अपने दायरों में मुखर नहीं होंगे, तब तक शायद मनोज और बबली यूं ही मारे जाते रहेंगे...
Sunday, March 21, 2010
आज विश्व-कविता दिवस है
आज विश्व-कविता दिवस है। वैसे तो कविता का ईजाद इंसान ने किया है पर सच यह है कि कविताएं भी इंसानों को तराशती-बनाती हैं। कई कविताएं आपके दिल-दिमाग में इतने गहरे पैठ जाती हैं कि आपका और उसका साथ जीवन-भर चलता है। मुझे लगता है कोई न कोई ऐसी कविताएं हमारे पास जरूर होनी चाहिए। फिलहाल मैं अपने पास की दो कविताएं दे रहा हूं। पहली नाज़िम हिकमत की है। और दूसरी मुक्तिबोध की...
सबसे खूबसूरत है वह समुद्र
जिसे अब तक देखा नहीं हमने
सबसे खूबसूरत बच्चा
अब तक बड़ा नहीं हुआ
सबसे खूबसूरत हैं वे दिन
जिन्हें अब तक जिया नहीं
हमने
सबसे खूबसूरत हैं वे बातें
जो अभी कही जानी हैं
- नाज़िम हिकमत
भूल-ग़लती
भूल-ग़लती
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।
सामने
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के
वह क़ैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त-
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमे वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!
इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!
लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
-मुक्तिबोध
सबसे खूबसूरत है वह समुद्र
जिसे अब तक देखा नहीं हमने
सबसे खूबसूरत बच्चा
अब तक बड़ा नहीं हुआ
सबसे खूबसूरत हैं वे दिन
जिन्हें अब तक जिया नहीं
हमने
सबसे खूबसूरत हैं वे बातें
जो अभी कही जानी हैं
- नाज़िम हिकमत
भूल-ग़लती
भूल-ग़लती
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।
सामने
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के
वह क़ैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त-
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमे वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!
इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!
लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
-मुक्तिबोध
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