Sunday, July 26, 2009

भूमंडलीकरण की नयी चुनौतियों का सामना नये रूपों से करना होगा

भूमंडलीकरण के दौर में देश की विशाल कामगार आबादी के सामने आज खड़े हुए चौतरफा संकटों पर देशभर से मजदूर आंदोलन से जुड़े लोगों के बीच एक काफी विचारोत्तेजक बातचीत हुई। मौका था अरविंद के निधन के एक साल पूरे होने पर आयोजित प्रथम अरविंद स्‍मृति संगोष्‍ठी का, जो 24 जुलाई को गांधी शांति प्रतिष्‍ठान, दिल्‍ली में संपन्‍न हुई। अरविंद के निधन का एक साल पूरा हो गया है। मात्र 44 साल के अपने छोटे लेकिन बेहद सरगर्म जीवन जीने वाले अरविंद इस देश में सामाजिक बदलाव की लड़ाई के अविचल योद्धा थे। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। साथ ही छात्र-युवा और मजदूर आन्दोलन में वे लगभग डेढ़ दशक से सक्रिय थे। इस संगोष्‍ठी में आज के मजदूर आंदोलन की चुनौतियों से जुड़े कुछ अहम बुनियादी सवाल उभर कर सामने आये। इस संगोष्‍ठी की मुख्‍य बातों को संक्षेप में प्रस्‍तुत किया जा रहा है...

प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी सम्‍पन्‍न

'भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप' विषय पर यहां आयोजित संगोष्ठी में विभिन्न क्षेत्रों से आए वक्ताओं ने परंपरागत ट्रेड यूनियन नेतृत्व को मजदूर आंदोलन के बिखराव और कमजोरी के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए नई क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें बनाने तथा बहुसंख्यक असंगठित मजदूर आबादी को संगठित करने की जरूरत पर जोर दिया।
'दायित्वबोध' पत्रिका के संपादक अरविन्द सिंह की पहली पुण्यतिथि के मौके पर आयोजित प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में ट्रेड यूनियन संगठनकर्ताओं, बुध्दिजीवियों तथा राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि एक और नव-उदारवादी नीतियों के प्रभाव से मजदूर वर्ग के आर्थिक-राजनीतिक तथा जनवादी अधिकारों में लगातार कटौती हो रही है दूसरी ओर मजदूर वर्ग अपने तात्कालिक एवं आंशिक हितों की लड़ाई को, आर्थिक माँगों एवं सीमित जनवादी अधिकारों की लड़ाई को भी प्रभावी ढंग से संगठित नहीं कर पा रहा है।
'आह्वान' पत्रिका के संपादक और मज़दूर संगठनकर्ता अभिनव सिन्हा ने अपने आधार वक्तव्य में कहा कि इक्कीसवीं सदी में पूँजी की कार्यप्रणाली में कई बुनियादी ढाँचागत बदलाव भी आये हैं। ऐसे में मजदूर आंदोलन को भी प्रतिरोध के तौर-तरीकों और रणनीति में कुछ बुनियादी बदलाव लाने होंगे। स्वचालन और अन्य नयी तकनीकों के सहारे पूँजी ने अतिलाभ निचोड़ने के नये तौर-तरीके विकसित कर लिये हैं। बड़े-बड़े कारख़ानों में मज़दूरों की भारी आबादी के स्थान पर कई छोटे-छोटे कारख़ानों में मज़दूरों की छोटी-छोटी आबादियों को बिखरा देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे कारख़ानों में अधिकांश मज़दूर ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल होते हैं या पीसरेट पर काम करते हैं। कम मज़दूरी देकर स्त्रियों और बच्चों से काम कराया जाता है। उन्होंने कहा कि देश की कुल मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक क्षेत्र के हैं जो किसी भी ट्रेड यूनियन में संगठित नहीं हैं। इस आबादी को संगठित करना आज के क्रान्तिकारी आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। इस आबादी को संगठित करने के लिए कारखानों में ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में जाकर भी काम करना होगा। वेतन और भत्तों को बढ़ाने के अतिरिक्त राजनीतिक माँगों के लिए भी इन मज़दूरों के आंदोलन संगठित करने होंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय के डा. प्रभु महापात्र ने मज़दूर वर्ग के बिखराव की चर्चा करते हुए कहा कि आज उन्हें संगठित करने के नये तरीके तलाशने होंगे। उन्होंने श्रम कानून बनाए जाने के इतिहास की चर्चा करते हुए कहा कि इन कानूनों में राज्य अपने आपको मज़दूर और पूँजीपति के बीच में स्वयं को एक निष्पक्ष मध्यस्थ दिखलाता है लेकिन वास्तव में उसकी पक्षधरता पूँजी के साथ होती है। डा. महापात्र ने कहा कि असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को संगठित करने के साथ-साथ संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बीच भी काम करना होगा।
सीपीआई-एमएल (न्यू प्रोलेतारियन) के प्रो. शिवमंगल सिध्दान्तकर ने कहा कि मज़दूर वर्ग आज पस्तहिम्मत है। लेकिन वह फिर से लड़ने की शुरुआत कर रहा है। ज़रूरत इस बात की है कि देश के पैमाने पर बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताकतें एक मंच पर आएं और मज़दूरों की लड़ाई को नेतृत्व दें जिससे कि मज़दूर आबादी में फैली हार की मानसिकता को दूर किया जा सके।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता शेख अंसार ने कहा कि यह बात बिल्कुल सही है कि आज मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में काम करना और उनके पेशागत संगठन और ट्रेड यूनियन बनाने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने यही काम आज से दो दशक पहले शुरू कर दिया था और आज वहाँ तीन ऐसी बस्तियाँ हैं जो स्वयं मज़दूरों ने बसाई हैं, उनके अपने अस्पताल और अपनी एंबुलेंस और स्कूल तक हैं। इस प्रकार से अपनी संस्थाएँ और समानान्तर शक्ति तैयार करके ही आज मज़दूर वर्ग लड़ सकता है। उन्होंने कहा कि शहीद शंकर गुहा नियोगी ने अपने अंतिम संदेश में कहा था कि किसी देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी के बिना मजदूरों का संघर्ष एक मंज़िल से आगे नहीं बढ़ सकता है।
राहुल फाउण्डेशन के सत्यम ने कहा कि भूमण्‍डलीकरण के दौर में पूँजी की आवाजाही के लिए राष्ट्र राज्यों की सीमाएँ ज्यादा से ज्यादा खुल गयी हैं जबकि श्रम की आवाजाही की बन्दिशें और शर्तें बढ़ गयी हैं। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सबकुछ को उत्पाद का दर्जा देकर बाज़ार के हवाले कर दिया गया है, लेकिन श्रम को नियन्त्रित करने के मामले में सरकार, नौकरशाही और न्यायपालिका ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने लगी हैं। विश्वव्यापी मन्दी के वर्तमान दौर ने पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत संकट को उजागर दिया है।
लुधियाना से आए पंजाबी पत्रिका 'प्रतिबध्द' के संपादक सुखविंदर ने कहा कि आज कई तरीकों से मज़दूरों की संगठित शक्ति और चेतना को विखण्डित करने के साथ ही कई स्तरों पर उन्हें आपस में ही बाँट दिया गया है और एक-दूसरे के ख़िलाफ खड़ा कर दिया गया है। संगठित बड़ी ट्रेड यूनियनें ज्यादातर बेहतर वेतन और जीवनस्थितियों वाले नियमित मज़दूरों और कुलीन मज़दूरों की अत्यन्त छोटी सी आबादी के आर्थिक हितों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। आज श्रम कानूनों और श्रम न्यायालयों का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। लम्बे संघर्षों के बाद रोज़गार-सुरक्षा, काम के घण्टों, न्यूनतम मज़दूरी, ओवरटाइम, आवास आदि से जुड़े जो अधिकार मज़दूर वर्ग ने हासिल किये थे वे उसके हाथ से छिन चुके हैं और इन मुद्दों पर आन्दोलन संगठित करने की परिस्थितियाँ पहले से कठिन हो गई हैं।
'हमारी सोच' पत्रिका के संपादक सुभाष शर्मा ने कहा कि मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों के बारे में क्रान्तिकारी नेतृत्व पहले से नहीं सोच सकता। ये नये रूप आन्दोलन के दौरान स्वयं उभरेंगे। उन्होंने कहा कि बड़े कारखानों में काम करने वाले संगठित मजदूरों के बीच भी परिवर्तनकारी शक्तियों को काम करना चाहिए क्योंकि असंगठित क्षेत्र का मज़दूर लड़ाई की मुख्य ताक़त बन सकता है उसे नेतृत्व नहीं दे सकता।
इंकलाबी मजदूर केंद्र फरीदाबाद के नागेंद्र, पटना से आये नरेंद्र कुमार, 'शहीद भगतसिंह विचार मंच' सिरसा के कश्मीर सिंह, 'हरियाणा जन संघर्ष मंच' के सोमदत्त गौतम, जनचेतना मंच गोहाना के संयोजक डा. सी.डी. शर्मा और क्रांतिकारी युवा संगठन के आलोक ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी में जापान से आई 'सेंटर फॉर डेवेलपमेण्ट इकोनॉमिक्स' की अध्येता सुश्री मायूमी मुरोयामा ने भी शिरकत की। दो सत्रों में चली चर्चा का संचालन राहुल फाउण्डेशन के सचिव सत्यम ने किया।
संगोष्ठी की शुरुआत में दिवंगत साथी अरविन्द की तस्वीर पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रध्दांजलि अर्पित की गई। 'विहान' सांस्कृतिक टोली के छात्रों ने शहीदों की याद में एक गीत'कारवां चलता रहेगा' प्रस्तुत किया। राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष और प्रसिध्द कवयित्री कात्यायनी ने कहा कि गत वर्ष इसी दिन अरविंद का असामयिक निधन हो गया था। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। अरविन्द को समर्पित एक क्रान्तिकारी गीत के साथ कार्यक्रम का समापन किया गया।

Sunday, July 19, 2009

प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी : भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप

(हमारे प्रिय साथी अरविंद सिंह के निधन के एक वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। इस मौके पर प्रथम अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी का आयोजन किया जा रहा है। अरविंद के जीवन के मकसद से जुड़े विषय भूमण्‍डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप पर यह संगोष्‍ठी हो रही है। सभी इच्‍छुक लोग सादर आमंत्रित हैं। विस्‍तृत आमंत्रण नीचे दे रहा हूं।)
प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्टी
(24 जुलाई, 2009)
विषय: भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और
मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप
यह संगोष्ठी हम अपने प्रिय दिवंगत साथी अरविन्द सिंह की स्मृति में आयोजित कर रहे हैं। 24 जुलाई, 2009 साथी अरविन्द की पहली पुण्यतिथि है। गत वर्ष इसी दिन, उनका असामयिक निध्न हो गया था। तब उनकी आयु मात्र 44 वर्ष थी। वाम प्रगतिशील धारा के अधिकांश बुद्धिजीवी, क्रान्तिकारी वामधारा के राजनीतिक कार्यकर्ता और मज़दूर संगठनकर्ता साथी अरविन्द से परिचित हैं। वे मज़दूर अख़बार `बिगुल´ और वाम बौद्धिक पत्रिका `दायित्वबोध´ से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। `भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप´ जैसे ज्वलन्त और जीवन्त विषय पर संगोष्ठी का आयोजन ऐसे साथी को याद करने का शायद सबसे सही-सटीक तरीका होगा। हम सभी मज़दूर कार्यकर्ताओं, मज़दूर आन्दोलन से जुड़ाव एवं हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवियों और नागरिकों को इस संगोष्ठी में भाग लेने के लिए गर्मजोशी एवं हार्दिक आग्रह के साथ आमंत्रित करते हैं। हमें विश्वास है कि आन्दोलन की मौजूदा चुनौतियों पर हम जीवन्त और उपयोगी चर्चा करेंगे।

स्‍थान: गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान सभागार

नई दिल्ली

सुबह 11 बजे से शाम 7.30 बजे तक

आयोजक

राहुल फ़ाउण्‍डेशन

Tuesday, July 14, 2009

एक आम आदमी की दूसरी मौत

26 अगस्‍त, 2006। उज्‍जैन के माधव कॉलेज में सैकड़ों लोगों के सामने प्रोफेसर सभ्‍भरवाल को एबीवीपी के गुण्‍डे मौत के घाट उतार देते हैं। 13 जुलाई, 2009। मुख्‍य आरोपी एबीवीपी के प्रदेश अध्‍यक्ष शशिरंजन अकेला और सचिव विमल तोमर को न्‍यायालय बरी कर देता है। जज श्री नितिन दल्‍वी ने गहरे क्षोभ के साथ व्‍यक्तिगत राय देते हुए कहा कि सभ्‍भरवाल की मौत का न्‍याय नहीं हो पाया क्‍योंकि अभियोग पक्ष ने अपना मामला कमजोर ढंग से रखा। उन्‍होंने कहा कि घटना को राजनीतिक रंग दे दिया गया था। प्रोफेसर सभ्‍भरवाल के बेटे हिमांशु ने फैसले पर तीखे शब्‍दों में कहा ''मेरे पिता की आज दोबारा हत्‍या हो गयी है। इस मामले पर मध्‍यप्रदेश में बीजेपी की सरकार के नजरिए को देखते हुए फैसले पर मुझे कतई हैरानी नहीं हुई। यह बहुत निराशा पैदा करने वाली चीज है कि आम आदमी इंसाफ के लिए दर-दर भटकता है और उसे ऐसा इंसाफ मिलता है।'' इससे पहले मार्च 07 में हिमांशु ने यह कहते हुए अदालत के सामने जाने से मना कर दिया था कि मुकदमा एक नौटंकी बन गया है। दरअसल पूरे मामले को बीजेपी सरकार ने शुरू से ही इतना हल्‍का कर दिया था कि आरोपियों का छूटना पहले से तय माना जा रहा था।
सभ्‍भरवाल परिवार ने निष्‍पक्ष ढंग से न चलने की वजह से मुकदमे को मध्‍यप्रदेश से बाहर हस्‍तांतरित करने की मांग की थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने मामले को सिर्फ उज्‍जैन से नागपुर स्‍थानांतरित कर दिया था। हिमांशु ने बताया कि मुकदमे के दौरान तीन पुलिस वाले अपने पहले के बयान से पलट गये जिससे पूरा मामला ही बदल गया। उस बेटे के दर्द और गुस्‍से को महसूस करना काफी मुश्किल है जिसके बाप को सैकड़ो लोगों के सामने कत्‍ल करने वाले आज अदालत से बरी होने पर जश्‍न मना रहे हैं। अपने बाप के कातिलों के छूट जाने पर हिमांशु ने कहा कि यह शर्मनाक है कि इस देश में सैकड़ों लोगों के सामने कोई अध्‍यापक अपने छात्रों के हाथों मारा जाता है और उसके हत्‍यारे छूट जाते हैं। यह राजनीति में बैठे गुण्‍डों के हाथों आम आदमी की हार है।
क्‍या ये हार सिर्फ सभ्‍भरवार परिवार की हार है?
ये जिन्‍दा और नंगे सवाल तो हम सबके सामने हैं.... क्‍या आम आदमी यूं ही गुण्‍डों के हाथों मारे जाते रहेंगे... और हम चुपचाप देखते रहेंगे.... कौन रोकेगा इन्‍हें... क्‍या अदालत, सरकार रोक पाएगी.... आस्‍थाओं को कैश करने वाले और नफरत पैदा करने वाले तत्‍व क्‍या यूं ही अपना हिंसक उन्‍माद फैलाते रहेंगे....पैसे या उससे पैदा होती राजनीति इसे रोकेगी या इंसाफ का सरेआम गला घोंटेगी? क्‍या इस सामाजिक व्‍यवस्‍था में इन चीजों को रोक पाना..................क्‍या वाकई सम्‍भव रह गया है?
इन सवालों के जवाब हमें देने ही होंगे.....

Sunday, July 12, 2009

देश और दिल्‍ली की शान दिल्‍ली मेट्रो में मजदूरों के लिए न कोई सुरक्षा इंतजाम, न कोई श्रम कानून

दिल्‍ली मेट्रो में फिर से मजदूरों के साथ आज एक और हादसा हो गया। (देखें बिगुल की रिपोर्ट)दिल्‍ली मेट्रो में ग्रेटर कैलाश की कंस्‍ट्रक्‍शन साइट पर हुए इस हादसे में अब तक पांच मज़दूरों के मारे जाने और लगभग 15 मज़दूरों के गंभीर रूप से घायल होने की खबर है। दिल्‍ली मेट्रो और सरकार ने तत्‍परता दिखाते हुए मामले की लीपापोती शुरू कर दी है। जहां पांच घण्‍टे बीत जाने के बावजूद अभी तक एफआईआर भी दर्ज नहीं की गई है वहीं मेट्रो प्रवक्‍ता और शीला दीक्षित ने बार-बार मरने वालों के गैमन इंडिया के कर्मचारी होने की बात कहकर मामले से डीएमआरसी और सरकार के पल्‍ला झाड़ने के संकेत दे दिये हैं।
दिल्‍ली मेट्रो में यह कोई पहला हादसा नहीं है जिसमें मजदूरों की जानें गई हैं। डीएमआरसी अब तक मरने वालों की कुल संख्‍या 69 बताता है पर ये संख्‍या ज्‍यादा हो सकती है। दिल्‍ली मेट्रो, कंस्‍ट्रक्‍शन कंपनियां और ठेकेदार ये सब मजदूरों से सिर्फ काम करवाने के लिए हैं। लेकिन जब दिल्‍ली मेट्रो के मजदूर इन्‍हीं की लापरवाही और बदइंतजामी से अकाल मौत मारे जाते हैं तो जिम्‍मेदारी कोई नहीं लेता। दिल्‍ली मेट्रो में सुरक्षा इंतजामों और श्रम कानूनों का खुलकर मखौल उड़ाया जाता है। मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं समझी जाती है।
दिल्‍ली मेट्रो के मजदूरों ने जब-जब इस सबके खिलाफ आवाज उठाई, तब-तब इस आवाज को ठेकेदार, कंपनियों, मेट्रो प्रशासन से लेकर सरकार तक ने निर्ममता से कुचल दिया।
बार-बार होने वाली ये मौतें बताती हैं कि देश और दिल्‍ली की शान बताए जाने वाली दिल्‍ली मेट्रो में मजदूरों की जान कितनी सस्‍ती समझी जाती है।

Monday, July 6, 2009

चीन में एक और तियेनआनमेन हत्‍याकांड, फौज ने सौ लोग मारे

चीन की तथाकथित ''कम्‍युनिस्‍ट'' सरकार ने एक और तियेनआनमेन को अंजाम देते हुए 100 से ज्‍यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया। पश्चिमी चीन में जिंग्‍जियांग क्षेत्र में प्रदर्शन कर रहे लोगों की आवाज कुचलने के लिए सेना ने भयंकर रूप से दमन किया। प्रदर्शन करने वालों में औरतें और बच्‍चे भी थे। इन लोगों की मुख्‍य मांग रोजगार देने की थी। सेना ने टैंकों की मदद से इस प्रदर्शन को कुचला।
दरअसल इस जगह पर कुछ दिनों पहले गुंडियोंग प्रांत में फैक्‍ट्री में दो मजदूरों की मौत हो गयी थी। चीन में काम की मन्‍दी के कारण बेरोजगारी तेजी से फैल रही है। वहां के अल्‍पसंख्‍यक समुदाय यूइगर में काम देने को लेकर सरकार पर भेदभाव बरतने का आरोप है। इसी वजह से लोगों में भयंकर असंतोष पनप रहा था। दो मजदूरों की मौत के बाद असंतोष सड़कों पर उतर आया। खबरों के मुताबिक मरने वालों की संख्‍या ज्‍यादा भी हो सकती है। इस घटना ने बरसों पहले के तियेनआनमेन चौक हत्‍याकांड की याद ताजा कर दी है। साथ ही दुनिया की नजर में चीनी सरकार का 'कम्‍युनिज्‍म' का खोल भी फिर से उतार कर रख दिया है।

Saturday, July 4, 2009

आंकड़ों के खेल में गुमसुम है आम आदमी...


आम आदमी हैरान-परेशान है। आजकल वह देशभर में अपनी कुल संख्‍या को लेकर सोच में पड़ा हुआ है। योजना आयोग के मुताबिक गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग इस देश में 28 प्रतिशत है। जबकि ग्राम विकास मंत्रालय की सक्‍सेना कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक इन्‍हें 50 प्रतिशत होना चाहिए। इसी गरीब आदमी के नाम पर सरकारें बनती-बिगड़ती चलती-दौड़ती रही हैं।
योजना आयोग का गणित कहता है कि जो आदमी गांव में 356 रुपये प्रतिमाह और शहर में 539 रुपये प्रतिमाह से कम कमाता है वह गरीब है। यानी इतना या इससे ज्‍यादा कमाने वाला अमीर आदमी है (हमारे देश के ज्‍यादातर ''अमीरों'' को यह बात शायद पता भी न हो)। ताजातरीन सक्‍सेना कमेटी का जमा-घटा गांव में 700 रुपये प्रतिमाह और शहर में 1000 रुपये से कम प्रतिमाह कमाने वाले आदमी को गरीब बताता है।
सरकार का अपना गणित है। आम आदमी का अपना। नेपाली चौकीदार जमबहादुर ने बताया कि दिल्‍ली जैसे शहर में एक आदमी को जिन्‍दा रहने के लिए कम से कम 3000 रुपये हर महीने चाहिए। 700-800 से कम कोई रूम किराये पर नहीं मिलता। 1000 रुपये दाल (पाठक आलू पढ़ें) रोटी में लग जाता है। कपड़ा-किराया-आना-जाना 700 रुपये। बचे 500 तो हारी-बीमारी, गांव आने-जाने के लिए रखने पड़ते हैं। पर इसी 3000 में लाखों लोग अपना भरा-पूरा परिवार चला रहे हैं। यही वह आदमी है जो अर्जुनसेन गुप्‍ता कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक इस देश में 77 फीसदी है यानी लगभग 84 करोड़ और यह व्‍यक्ति रोजाना अपने पर 20 रुपया खर्च करके जिन्‍दा है। यानी कमाने वाला अगर 3000 भी कमाता है और परिवार में 5 लोग हैं तो प्रति व्‍यक्ति रोजाना की आय हुई 20 रुपये।
बहरहाल इन आंकड़ों के खेल में आम आदमी फिलहाल खो गया है। शहरी गरीबी उन्‍मूलन मंत्री कुमारी शैलजा ने दो दिन पहले बताया कि सरकारी आंकड़ें उन्‍हें खुद काफी अविश्‍वसनीय लगते हैं। उन्‍होंने कहा कि वे योजना आयोग को आंकड़े इकट्ठा करने के तरीके यानी मेथडालॉजी को सुधारने के लिए कहेंगीं ताकि सही तस्‍वीर सामने आ सके। क्‍या वाकई सरकार असली तस्‍वीर देखना चाहती है। विभिन्‍न सरकारी रिपोर्टों से भी अगर आम आदमी की तस्‍वीर साफ नहीं हो रही है तो समझिए कि सरकार इस असली तस्‍वीर को समझना ही नहीं चाहती। क्‍योंकि अगर वाकई असली तस्‍वीर समझ ली तो इस समझ की भारी कीमत उसे चुकानी पड़ेगी। जो वह चुकाने के फिलहाल मूड में नहीं है। सो आम आदमी अभी तो अपने घर की गाड़ी खींच रहा है और इंतजार कर रहा है। अपने नाम पर खेले जा रहे पूरे खेल को देखते हुए वो कभी गुमसुम हो जाता है तो कभी बस हल्‍का सा मुस्‍कुरा भर देता है।
आम आदमी अभी देख रहा है....
पर वो क्या हमेशा देखता ही रहेगा.... ?