Sunday, June 14, 2009

कश्‍मीर की कवरेज : कुछ सवाल

शोपियां प्रकरण पर अखबार पलटते और चैनल बदलते हुए ध्‍यान गया कि ज्‍यादातर बड़े अखबारों और चैनलों ने इस घटना को बहुत कम कवर किया। कुछ ने तो 3-4 दिन बाद बड़े पैमाने पर लगातार प्रदर्शन होने पर ठीक से कवर करना शुरू किया। हिन्‍दू और जनसत्ता ने इसपर शुरू से लगातार खबर दी। बल्कि हिन्‍दू ने तो इसे प्रमुखता से लीड स्‍टोरी के रूप में कई दिन छापा। इस कवरेज ने कई सवाल पैदा कर दिये हैं। क्‍या कश्‍मीर जिसे काफी संवेदनशील मसला माना जाता है, वहां की इतनी बड़ी घटना को उचित स्‍थान न देना कुछ बताता है। क्‍या अगर उत्तर प्रदेश या राजस्‍‍थान के किसी शहर में 8-9 दिनों तक (अभी भी जारी हैं) लगातार ऐसे ही भारी प्रदर्शन होते तो क्‍या तब भी मीडिया इसी तरह से घटना को कवर करता। वैसे भी दूरदराज के इलाकों की आवाज चाहे पूर्वोत्तर के राज्‍य हों या कश्‍मीर, वहां के लोगों की आम शिकायत है कि उनकी आवाज दिल्‍ली तक नहीं पहुंचती। क्‍या मीडिया भी इस आवाज को अनसुना कर देता है। क्‍या कश्‍मीर की कवरेज पर कोई अघोषित सेंसरशिप काम कर रही है। कहीं मीडिया का ऐसा मानना तो नहीं है कि कश्‍मीर के सारे लोग अलगाववादी ताकतों के पीछे खड़े हैं और ऐसी घटनाओं की कवरेज से ऐसी ताकतों को ताकत मिलती है। लेकिन कश्‍मीर के लोगों की आवाज अनसुनी करने से तो क्‍या वे और ज्‍यादा अलग-थलग नहीं होते जाएंगे। इसके अलावा एक मानवीय मुद्दे और उससे पैदा जनभावनाओं को पहुंचाना क्‍या मीडिया का फर्ज नहीं है। क्‍या हमारे ज्‍यादातर अखबारों और चैनलों के कश्‍मीर के लोगों की आवाज को उचित स्‍थान न देने के पीछे क्‍या कोई और वजह हो सकती है? क्‍या इस मसले से मीडिया में दिल्‍ली के नजरिये को आंख मूंदकर मान लेने की प्रवृ‍त्ति नहीं दिखाई पड़ती। क्‍या मीडिया का जनपक्षधर हिस्‍सा इतना सिकुड़ गया है। सवाल बहुत सारे हैं। लेकिन शायद इनसे मीडिया के चरित्र के बारे में और भी बहुत कुछ मालूम चले। बहरहाल मेरे पास फिलहाल ये सवाल ही हैं। इनके जवाब की तलाश में मैं लगा हूं। अगर आपको इस मसले पर मालूम हो तो कृपया इसे समझने में मदद करें...

Monday, June 8, 2009

एक जन रंगकर्मी विदा हो गया

हिन्‍दी रंगमंच के एक महत्‍वपूर्ण अंक का पटाक्षेप हो गया। हबीब साहब का जाना न सिर्फ रंगमंच की क्षति है बल्कि धार्मिक रूढ़ि‍यों, अंधविश्‍वासों और साम्‍प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाले हर कलाकार, बुद्धिजीवी और आम लोगों की क्षति है। हबीब तनवीर साहब को विनम्र श्रद्धांजलि......









Saturday, June 6, 2009

फासीवाद की दबे पांव आहटों से सचेत करती है गौहर रज़ा की फिल्‍म 'जुल्‍मतों के दौर में'

फासीवाद के कुकृत्‍यों की जितनी हम कल्‍पना कर सकते हैं, इतिहास में दर्ज इनके कारनामे बार-बार ज्‍यादा भयावह और इंसानियत को शर्मसार करने वाले दृश्‍य पैदा करते हैं। गुजरात के दंगों की तस्‍वीरें आने वाले कई सालों तक इस अमानुषिक विचारधारा के नतीजों की याद दिलाती रहेंगी। गौहर रजा की फिल्‍म 'जुल्‍मतों के दौर में' (लिंक देखें) दिखाती है कि फासीवाद आखिर जन्‍म कैसे लेता है। इस फिल्‍म में दूसरे विश्‍वयुद्ध के पहले के जर्मनी में बेरोजगारी और विश्‍वव्‍यापी मन्‍दी के दौर में हिटलर के फासीवादी कुप्रचार द्वारा यहूदियों, कम्‍युनिस्‍टों और तमाम इंसाफपसन्‍द बुद्धिजीवियों को जर्मनी की तंगहाली का कारण बताकर उनके सफाये और फासीवाद के उभार को दिखाया गया है। इस फिल्‍म के दृश्‍य उस दौर के सिहरा देने वाले और इस सबके खिलाफ गहरे गुस्‍से पैदा करने वाली तस्‍वीरे पेश करते हैं।

आज के दौर में यह फिल्‍म बेहद प्रासंगिक है क्‍योंकि एक ओर विश्‍वव्‍यापी मन्‍दी बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और गरीबी के भयावह दुष्‍चक्र को लाने की तैयारी कर रही है दूसरी ओर हमारे देश में फासीवाद की अवतार आरएसएस हिन्‍दुत्‍व की नई प्रयोगशालाओं की जमीनी तैयारी गुपचुप तरीके से बड़े पैमाने पर कर रहे हैं। चुनावी हार से उनके अभियान में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। समाज में नफरत फैलाने के अपने अभियान में लगे ये संगठन हिटलर के दौर को वापस लाना चाहते हैं। इस मायने में यह फिल्‍म हमें इतिहास से सबक लेने और वर्तमान की चुनौतियों के लिए कमर कसने को प्रेरित करती है। पता चला कि यह महत्‍वपूर्ण फिल्‍म अभी तक नेट पर उपलब्‍ध नहीं थी। इस शानदार फिल्‍म को 'बर्बरता के विरुद्ध' ब्‍लॉग को देने के लिए गौहर रजा का शुक्रिया और इस फिल्‍म को नेट पर उपलब्‍ध कराने के लिए संदीप के अनवरत प्रयासों के लिए उनका धन्‍यवाद।