Saturday, March 28, 2009

क्‍या हमें गोर्की की जरूरत है?

आज अलेक्‍सान्‍द्र मक्सिमियेविच गोर्की का जन्‍मदिन है। गोर्की उन लेखकों में से थे जिन्‍होंने अपने समाज के यथार्थ का निर्मम चित्रण ही नहीं किया बल्कि उसके अंदर बदलाव की ताकत को भी पहचाना। कहते हैं कि साहित्‍यकार भी समाज को दिशा देता है। लेकिन कहां खड़ा है आज का साहित्‍यकार? हमारे यहां का साहित्‍यकार प्रेमचंद के बाद से ही कहीं अटक और भटक गया लगता है।
सच कहें तो प्रेमचन्‍द के बाद जो शून्‍य उभरा, आज वह कई गुना बड़ा हो गया है। आज हिन्‍दी साहित्‍य को पढ़ने वाले लोग, खासतौर पर नौजवान कितने हैं? कोई ऐसा लेखक है जो समाज की हलचलों को पूरे उद्वेलन के साथ उतार रहा हो? और सबसे महत्‍वपूर्ण बात कि क्‍या आजकल जो लिखा जा रहा है वह साहित्‍य और शिक्षा की दुनिया के बाहर आम लोगों के किसी मतलब का भी है कि नहीं? जाहिर है नहीं है तभी तो उसकी हालत ऐसी हो गई है। तो फिर साहित्‍य की बदहाली पर रोना-पीटना क्‍यों? आजकल के कितने लेखक हैं जो समाज में आ रहे बड़े बदलावों को अपनी कविता-कहानियों में पहचान रहे हैं। कितने लेखक हैं जो आम लोगों के जीवन से गहरे सरोकारों के साथ जुड़े हैं और उनके जीवन को करीब से देखते हैं। कितने लेखक हैं जो इन बदलावों में भविष्‍य के किसी शुभ संकेत के चिह्न ढूंढ़ रहे हैं। गोर्की ने 1905 में जब मां लिखी थी तब तक वहां का सामाजिक आंदोलन अभी खड़ा ही हो रहा था। गोर्की ने उस भविष्‍य की शक्ति को पहचाना और उसे अपनी कलम से और ज्‍यादा विस्‍तारित और मजबूत किया। हमारे कितने लेखकों ने बड़े पैमाने पर किसानों की आत्‍महत्‍या पर पूरा दिल उंडेल कर कलम चलाई। शायद ही किसी लेखक को आज मजदूरों, बेरोजगारों, गरीब छात्रों पर लिखने की जरूरत महसूस होती हो। आज बिकने वाला हॉट मसाला है स्‍त्री या दलित लेखन या यथार्थ के नाम पर मध्‍यवर्ग की फूहड़ताओं को चित्रित करना।
आज हमारे पास गोर्की जैसा दूर-दूर तक कोई लेखक नहीं है। बहरहाल ऐसे समय में ही गोर्की की जरूरत सबसे ज्‍यादा है। ऐसे लेखक की जो समाज को पहले तो अलफनंगा करके दिखाये कि आपकी हालत यह है और फिर उसमें से भविष्‍य की शक्ति को ढूंढ़ कर सामने लाये। गोर्की की कहानी 'एक पाठक' में गोर्की खुद यही कह रहे हैं।
''लेकिन क्‍या तुम जीवन में इतना गहरा पैठे हो कि उसे दूसरों के सामने खोलकर रख सको? क्‍या तुम जानते हो कि समय की मांग क्‍या है, क्‍या तुम्‍हें भविष्‍य की जानकारी है और क्‍या तुम अपने शब्‍दों से उस आदमी में नयी जान फूंक सकते हो जिसे जीवन की नीचता ने भ्रष्‍ट और निराश कर दिया है? उसका ह्रदय पस्‍त है, जीवन की कोई उमंग उसमें नहीं है, — भला जीवन बिताने की आकांक्षा तक को उसने विदा कर दिया है...। जल्‍दी करो और इससे पहले कि उसका मानवीय रूप अन्तिम रूप से उससे विदा हो उसे जीने का ढंग बताओ। लेकिन तुम किस प्रकार उसमें जीवन की चाह जगा सकते हो जब कि तुम बुदबुदाने और भुनभुनाने और रोने-झींकने या उसके पतन की एक निष्क्रिय तस्‍वीर खींचने के सिवा और कुछ नहीं करते? ह्रास की गंध धरती को घेरे है, लोगों के ह्रदय में कायरता और दासता समा गई है, काहिली की नरम जंजीरों ने उनके दिमागों और हाथों को जकड़ लिया है, — और इस घिनौने जंजाल को तोड़ने के लिए तुम क्‍या करते हो? तुम कितने छिछले और कितने नगण्‍य हो, और कितनी बड़ी संख्‍या है तुम जैसे लोगों की। ओह, अगर एक भी ऐसी आत्‍मा का उदय हुआ होता — कठोर और प्रेम में पगी, मशाल की भांति प्रकाश देने वाले ह्रदय और सर्वव्‍यापी महान मस्तिष्‍क से सज्जित! तब भविष्‍यगर्भित शब्‍द घंटे की ध्‍वनि की भांति इस शर्मनाक खामोशी में गूंज उठते और शायद इन जीवित मुर्दों की घिनौनी आत्‍माओं में भी कुछ सरसराहट दौड़ती...''

Sunday, March 22, 2009

हिटलर ने भी बनाई थी जनता की कार

बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित नैनो कार आखिरकार आ रही है। हैरानी नहीं की जानी चाहिए कि नैनो में सबसे ज्यादा दिलचस्पी और प्रो-एक्टिव भूमिका मोदी ने निभाई है। और ज्यािदा दिलचस्प् बात यह है कि जर्मनी में हिटलर ने भी छोटी कार का सपना दिखाकर एक समय लोगों को भरमाया था। नैनो की घोषणा के दिन से ही इसे लेकर पूरी दुनिया में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया था। इस कार का बेसब्री से इंतजार सिर्फ आम लोग ही नहीं उद्योग जगत और सरकारें भी कर रहीं हैं। इस कार को पीपुल्स कार यानी जनता की कार बताया गया है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि क्या वास्तव में एक लाख रुपये कीमत होने के बावजूद यह आम जनता की सवारी बनेगी। और क्या असल में इस कार से लोगों को कोई फायदा पहुँचने वाला है।
दरअसल देखा जाये तो नैनो के आने से आम जनता के परिवहन में कोई फायदा नहीं पहुँचने वाला है। एक रिपोर्ट के मुताबिक काम पर जाने वाली 80 फीसदी आबादी बसों, साईकिलों और ट्रेनों से सफर करती है। जाहिरा तौर पर यह तबका आर्थिक रूप से कमजोर होने की वजह से ही सार्वजनिक परिवहन में सफर करके अपनी काम की जगह पर पहुँचता है। स्पष्ट है कि हर महीने 3-5 हजार रुपये कार पर खर्च करना इस तबके की औकात के बाहर की बात है।
ऐसी उम्मीद है कि मध्यवर्ग के छोटे से तबके के अलावा इसे खरीदने वालों का बड़ा हिस्सा इसे एक क्रेज के तौर पर खरीदेगा। इस वजह से नैनो को खरीदने वाले कम नहीं होंगे, लिहाजा इसके सड़कों पर आने के बाद सड़कों पर कारों की भीड़ बढ़ने और नतीजतन ट्रैफिक जाम की स्थिति और खराब होने की आशंका अभी से जतायी जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक कारें सड़कों की 75 प्रतिशत जगह सिर्फ 5 प्रतिशत लोगों के लिए घेरती हैं। जाहिर है इस स्थिति का सबसे बुरा असर उन लोगों पर पड़ेगा जो 10-12 घंटे की नौकरी करने के लिए तीन-साढ़े तीन घंटे आने-जाने में लगाते हैं।
नैनो की एक लाख की बेहद कम कीमत होने का राज भी अब धीरे-धीरे सामने आ रहा है। एक तो इसकी बॉडी ही काफी हल्की रखी गयी है। लेकिन असल में कीमत कम होने का सबसे बड़ा कारण इसे मिलने वाली कई तरह की सरकारी सब्सिडी, सुविधाएँ और छूट प्राप्त होना है। गुजरात सरकार ने टाटा को 0.1 प्रतिशत की मामूली ब्याज दर पर कर्ज के रूप में 2,900 करोड़ रुपये संयंत्र के लिए और 6,600 करोड़ रुपये अन्य ढांचागत लागतों पर 20 सालों के लिए दिये हैं। इसके अलावा 1,100 एकड़ जमीन मामूली कीमत पर दी गयी है। इसके लिए स्टाम्प डयूटी और अन्य टैक्स भी नहीं लिये गये हैं। कम्पनी को 14,000 घनमीटर पानी मुफ्त में उपलब्ध कराने के साथ-साथ संयंत्र को बिजली पहुँचाने का सारा खर्च भी सरकार ही वहन करेगी। कुल मिलाकर एक नैनो पर गुजरात सरकार लगभग 60,000 रुपये खर्च कर रही है। इसका भार गुजरात सरकार के खजाने और असल में लोगों पर ही पड़ेगा।
इसके अलावा यह कई उन्नत प्रदूषण मानकों को पूरा नहीं करती है। अप्रैल, 2010 में नये प्रदूषण मानक लागू होने पर क्या परिवर्तन किये जाएंगे, इसका भी कोई उत्तार फिलहाल नहीं दिया गया है। कारों की संख्या बढ़ने से प्रदूषण के स्तर में बढ़ोत्तारी होना लाजिमी सी बात हैं और इस पर विशेषज्ञों द्वारा चिन्ताएँ भी जतायीं जा रही हैं।
नैनो को अपने राज्य में लगवाने के लिए लगभग हर पार्टी की राज्य सरकारों ने पलक-पाँवड़े बिछा दिये थे। प. बंगाल की सरकार ने तो इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न ही बना लिया था। मोदी सरकार ने भी इसके लिए अभूतपूर्व तेजी दिखायी। स्रोत-संसाधनों की बौछार करने के अलावा सिर्फ तीन दिनों में इसकी सारी कागजी प्रक्रिया विशेष आदेश के तहत पूरी की गयीं।
सोचने वाली बात यह है कि सरकार किसी उद्योगपति को तो जनता की कार के नाम पर सब्सिडी दे देती है लेकिन जनता के लिए उपयोगी सार्वजनिक परिवहन की दशा सुधारने के बारे में ऑंखें मूँदे रहती है। पूरे देश में सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बदतर होती जा रही है। बसों और ट्रेनों में लटके हुए लोग अब दिल्ली, कलकत्ता जैसे बड़े शहरों में ही नहीं छोटे शहरों में भी आमतौर पर देखे जा सकते हैं।
सबसे खास बात यह है कि ऐसी कार जो आम जनता को कोई विशेष फायदा पहुँचाती नहीं दिख रही है, उसपर इतने स्रोत संसाधन क्यों लुटाये गये हैं। एक ऐसे देश में जहाँ संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के एक चौथाई भूखे लोग रहते हों और जिस देश के 55 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हों, उसमें कार को इतनी भारी सब्सिडी देना काफी कुछ बयान कर देता है। दिखायी पड़ता है कि मौजूदा भूमण्डलीकरण के दौर में सरकारी सब्सिडी को कम करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है। खाद्य-सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी सब्सिडी लगातार कम होती जा रही है। सरकारें हमेशा संसाधनों की कमी का रोना रोकर इन बुनियादी मदों पर खर्च में कटौती बजट-दर-बजट करती जा रही है। ऑंकड़े भी बताते हैं कि एक तरफ तथाकथित विकास की दर बढ़ रही है तो दूसरी तरफ भुखमरी और गरीबी बढ़ रही है। लेकिन इसी दौरान एक कार के लिए सरकारी खजाना खोल दिया जाता है। जाहिरा तौर पर यह विकास की अनपेक्षित दशा-दिशा और सरकारों की गलत प्राथमिकताओं और बुनियादी मुद्दों के प्रति उनकी उपेक्षा को ही दर्शाता है।
पता चला है कि नैनो के बाजार में आने बाद कई और बड़ी कम्पनियाँ भी छोटी कारें लेकर उतरने वाली हैं। इसके अलावा ऑटो इंडस्ट्री छोटी कारों के निर्माण के लिए अनुकूल माहौल बनाने और सुविधाएँ देने के लिए दबाव बना रही है। अगर नैनो जैसी परंपरा निभायी गयी तो सरकारी धन से किया जाने वाली जरूरी मदों पर खर्च का एक हिस्सा इसी तरह की सुविधाओं पर खर्च होने की आशंका है।
नैनो के लिए बेशक मोदी सरकार ने सबसे ज्यादा दिलचस्पी दिखायी हो लेकिन असल में यह पूरे शासक वर्ग की चाहत है कि सस्ती कार बाजार में हो। एक तो इससे खुशहाली का भ्रम पैदा किया जाता है, दूसरे जनता का ध्‍यान जरूरी बुनियादी चीजों से हटाया जाता है ताकि लोग इसमें उलझे रहें और पूँजीवाद का लूट का चक्र बिना गड़बड़ी के घूमता रहे। साथ ही अपेक्षाकृत कम गरीब आबादी को अपने पाले में लाने का शासक वर्ग का मकसद भी ऐसी चीजों से पूरा होता है।
यह अनायास ही नहीं है कि सस्ती या जनता की कार में सबसे ज्यादा दिलचस्पी पूँजीवाद के संकटमोचक फासीवाद के अवतारों ने दिखलायी है। जर्मनी में भी हिटलर ने बदहाल जनता को सस्ती फोक्सवैगन कार का सपना दिखाकर अपना समर्थक बनाने की कोशिश की थी। उस दौर में जर्मनी के आम लोगों को छोटी कार का सपना दिखाकर फासीवाद ने अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया था। कहीं यही कोशिश तो हमारे देश में नहीं की जा रही है? वैसे भी कोई व्यवस्था जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों के जीवन को बर्बाद करती जाती है, वैसे-वैसे उसे उलझाने-भरमाने की कोशिशें बढ़ती जाती हैं। आज के समय में सस्ती कार और सस्ता मोबाईल और बाद में सस्ती नेट सुविधा भी देकर यह व्यवस्था अपनी उम्र बढ़ाने की कोशिश कर रही है। लेकिन इन भरमों से क्या लोग जिन्दंगी के बुनियादी मुद्दों को भूल जाएंगे?

Wednesday, March 18, 2009

सपने कभी मर नहीं सकते

'सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना' लिखने वाले क्रान्तिकारी कवि पाश और भगतसिंह का शहादत दिवस 23 मार्च फिर से दस्‍तक दे रहा है। पिछले दिनों कस्‍बा पर रवीशजी ने इन्‍हीं सपनों के मर जाने पर क्षोभ और गुस्‍सा प्रकट किया था। सच है कि बहुत सारे सपने खत्‍म हो चुके दिखाई देते हैं। विचारधाराओं और इतिहास के अन्‍त की घोषणा हो चुकी है। किसी बड़े बदलाव की संभावनाएं खत्‍म मान ली गयी हैं। पस्‍तहिम्‍मती और निराशा पसरी हुई है। समाज के संवेदनशील हिस्‍से खासतौर पर पढ़ीलिखी जमातों में बेबसी और उससे पैदा दबा हुआ गुस्‍सा है। लेकिन क्‍या वाकई सपनों को मरा हुआ मान लिया जाये? क्‍या जिन्‍दगी एक जगह पर कदमताल कर सकती है? क्‍या बेहतर जिंदगी और बेहतर समाज के सपने देखे जाने बंद हो गये हैं?
मैं आप सब लोगों से पूछना चाहता हूं क्‍या जिंदगी हार मान सकती है, ऐसे देश में जहां 70 फीसदी बच्‍चों को ढंग का खाना तक नहीं मिल पा रहा है, जहां मरने वाले बच्‍चों में से आधे भूख और कुपोषण से मर जाते हों। जहां दुनिया के भूखे लोगों के एक चौथाई रहते हों, ऐसे देश में जहां हजारों किसान आत्‍महत्‍याएं कर रहे हैं, जहां शहरों में मजदूर काम न मिलने पर अकेले या परिवार के साथ सामूहिक आत्‍महत्‍याएं कर रहा है। जहां 1 लाख औरतें हर साल दवा-इलाज के बिना मर जाती हैं, जहां 20 करोड़ नौजवान बेरोजगार घूम रहे हों, जहां एमए बीए पास करके फैक्‍ट्री में हैल्‍परी करने वाले लड़कों की संख्‍या बढ़ती जा रही हो, जहां अच्‍छी शिक्षा नोटों की गड्डियां देकर खरीदी-बेची जा रही हो। ऐसे देश में क्‍या सपने कभी मर सकते हैं जहां अस्‍पतालों में डॉक्‍टर और दवाएं नहीं हैं, लेकिन बगल के प्राईवेट अस्‍पताल में डॉक्‍टर कहलाने वाले गिद्ध बैठे हों, जहां गरीबों के 11,000 बच्‍चे हर साल गुम हो जाते हों और अंग-व्‍यापार, देह-व्‍यापार की भेंट चढ़ जाते हों और कुछ न हो, जहां प्‍यार करने पर लड़के-लड़की को गंडासे से काट दिया जाता हो या बिटोड़े में सुलगा दिया जाता हो, जहां हमारे इलाके का सबसे बडा गुण्‍डा एमएलए एमपी बनता हो। एक ऐसे देश में जहां 80 फीसदी लोग 20 रुपया रोजाना जीने पर मजबूर हों और कुछ लोग दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में ऊपर पहुंचते जा रहे हों।
सपने मर नहीं सकते, मुझे ऐसा लगता है वे कुछ समय के लिए ओझल हो सकते हैं, या भूलने वाले हिस्‍से में जा सकते हैं लेकिन उनकी मौत नहीं हो सकती। क्‍योंकि अगर जिन्‍दगी चल रही है तो न सपने देखे जाना बंद हो सकता है न सपनों के लिए हालातों से लड़ना...
विचारधाराओं और इतिहास के अन्‍त की बकवास करने वाले लोगों की छोडिये, क्‍या वाकई हम सपने देखना छोड़ सकते हैं....

दिल्‍ली मेट्रो की चमक के पीछे का अंधेरा- भाग 2

दिल्‍ली मेट्रो पर अपनी पिछली पोस्‍ट में मैंने इसमें चल रही गड़बडियों के बारे में बताया था। दिल्‍ली मेट्रो आज हमारे देश के विकास का प्रतीक बन चुकी है। अगर आपने गौर किया हो तो कांग्रेस के चुनाव प्रचार में दिल्‍ली मेट्रो बार-बार दिखायी पड़ती है। दिल्‍ली में रहने वाले हम लोगों को शायद इसका अहसास न हो, लेकिन दूसरे राज्‍यों से आने वाले लोग अब सिर्फ मेट्रो देखने के लिए ही इसमें सफर करते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि दिल्‍ली मेट्रो उस दिशा में जाने का प्रस्‍थान-बिंदु है जिस दिशा में हमारा देश और समाज आने वाले सालों में बड़ी तेजी से आगे बढ़ने वाला है। इसीलिए दिल्‍ली मेट्रो की कार्यप्रणाली आने वाले समय का आईना भी हैं। इसीलिए यह देखना जरूरी है कि दिल्‍ली मेट्रो चलती कैसे है। वैसे पूछा जायेगा तो गर्दन अकड़ाते हुए बड़े गर्व से सरकार और मेट्रो के अफसर कहेंगे उन्‍हीं के दम पर चलती है। वो दिन-रात एसी रूम में बैठ कर लोगों से काम करवाने का ''काम'' जो करते हैं।
लेकिन असल में इसे चलाते हैं दिनों-रात इसके संगमरमरी फर्श को चमकाने वाले दिहाड़ी पर रखे जाने वाले नौजवान मजदूर या निर्माण स्‍थलों पर लगे प्रवासी मजदूर। बेहद सख्‍त नियम-कानूनों की नौकरी के बदले में उन्‍हें तनख्‍वाह मिलती है किसी को 1,800 रुपये तो किसी को 2,200 रुपये। ज्‍यादातर लोगों को हफ्ते में एक दिन की छुट्टी भी नहीं मिलती है। इसके अलावा ऊपर से दिखने वाले कारपोरेट कल्‍चर और बढ़ि‍या ड्रेस के पीछे की सच्‍चाई यह है कि जरा-जरा सी बातों पर कामगारों से गाली-गलौज और मारपीट आम बात है। सफाई का ठेका लेने वाली हाऊसकीपिंग कंपनियों ने ज्‍यादातर गुंडे पाले हुए हैं। जो हर तरह से धमकाना-डराना जानते हैं।
फिलहाल यह मामला तब सामने आया जब कुछ नौजवान सफाईकर्मियों ने इस गुंडागर्दी और नाइंसाफी का विरोध किया। इन नौजवान सफाईकर्मियों ने दिल्‍ली सरकार द्वारा निर्धारित न्‍यूनतम मजदूरी यानी 186 रुपये की मांग की। नतीजा वही गाली-गलौज, डांट-डपट और हाथापाई तक की नौबत भी आयी। लेकिन इन नौजवानों ने हार नहीं मानी और डीएमआरसी के सीईओ श्रीधरन से लेकर श्रम कार्यालय तक का दरवाजा खटखटाया। दुनिया भर में दिल्‍ली मेट्रो का श्रेय लेकर शान से घूमने वाले महान इंजीनियर साहब से मदद तो क्‍या कोई जवाब या मिलने तक का समय नहीं मिला। इसके बाद इन लोगों ने मेट्रो कामगार संघर्ष समिति बनाकर अपनी लड़ाई लड़नी शुरू कर दी है।
इस समिति के बनने से बौखलाये मेट्रो प्रबंधन ने एक सकुर्लर जारी कर दिया है। जो पहली नजर में ही मौलिक अधिकारों के खिलाफ और फासीवादी तानाशाही की छाप छोड़ता है। इसमें मजदूरों को चेतावनी देते हुए किसी भी शिकायत के खिलाफ न्‍यायालय और मीडिया जाने की सख्‍त मनाही की गयी है। इसमें मेट्रो के प्रबंधन के खिलाफ शिकायत प्रबंधन से ही करने की अजीबोगरीब सलाह दी गयी है। इसमें श्रीधरन साहब ने मजदूरों के व्‍यक्तिगत जीवन के बारे में भी कुछ नैतिक उपदेश दिये हैं।
पहली बात तो यह कि हर मजदूर पहले एक नागरिक भी है। और मेट्रो में काम करने की वजह से उसका न्‍यायालय में जाने का अधिकार छीना नहीं जा सकता। क्‍या मेट्रो न्‍यायालय से ऊपर का निकाय होने की बात कर रहा है? दूसरे तमाम श्रम कानूनों को लागू करवाने के लिए अन्‍य एजेंसियां हैं। मेट्रो का यह सकुर्लर उन एजेंसियों के अस्तित्‍व पर ही सवालिया निशान खड़ा कर देता है।
कुल मिलाकर यह सिर्फ एक बानगी है। समाज के एक छोटे तबके की सुख-सुविधाओं को बहुसंख्‍यक तबके की कीमत पर खड़ा किया जा रहा है। अपनी मेहनत से चंद मिनटों में शान से होने वाले आरामदायक सफर को संभव बनाने वाले इन लोगों की खुद की जिंदगी की गाड़ी घिसट रही है। इस बहुसंख्‍यक तबके की आवाज सुनने की फुर्सत न तो न सरकार के पास है न न्‍यायालय के पास और न मीडिया के पास है। 20 फीसदी लोगों की सेवा के लिए 80 फीसदी लोगों को गुलामों की तरह काम पर लगा दिया गया है। क्‍या आपको रोम के गुलामों की बात ध्‍यान आ रही है। कहते हैं कि हर दौर के विशाल निर्माण उस दौर की पूरी कहानी कह देते हैं। ये विशाल निर्माणकार्य उस दौर के समाजों की तस्‍वीर भी पेश करते हैं। मिस्र के पिरामिड बनाने वाले गुलामों को जिन्‍दा ही पिरामिड में दफना दिया जाता था। ताजमहल बनाने वाले मजदूरों को मारा नहीं गया सिर्फ उनके हाथ काट लिये गये। आज मेट्रो के मजदूरों को न मारा जा रहा है न उनके हाथ काटे जा रहे हैं, उन्‍हें बेबस कर दिया गया है। जिन्‍दा रहना है तो गुलामों की तरह काम करो वरना... मेट्रो के मजदूरों की हालत सिर्फ झलक है। ये दायरा मजदूरों तक सीमित नहीं रहेगा। आने वाले समय में तमाम कानूनों को ताक पर रखकर काम करने वाले लोगों को निचोड़ा जाना तय है। चाहे वे मजदूर हों, मल्‍टीनेशनल के टाई वाले कर्मचारी हों आम पत्रकार हों या अध्‍यापक हों। हर जगह मुनाफे का इंजेक्‍शन काम करने वालों के खून की आखिरी बूंद तक निकाल लेने के लिए चाक-चौबन्‍द हो जाएगा। सवाल यह है कि हम अपनी बारी का इंतजार करें या आज से ही आवाज उठाना शुरू कर दें...
(मेट्रो के इन नौजवान बहादुर सफाईकर्मियों की लड़ाई को व्‍यापक समर्थन मिलना शुरू हो गया है। देशभर के कई इंसाफपसंद संगठनों और व्‍यक्तियों ने मिलकर मेट्रो कर्मी अधिकार रक्षा मंच (In Defence of Metro Workers' Rights - idmwr-h.blogspot.com) बनाया है। लोगों के जनवादी और मौलिक अधिकारों को बचाने के लिए तमाम जागरूक लोगों को इन सफाईकर्मियों का साथ देने के लिए आगे आना चाहिए।)

Sunday, March 15, 2009

दिल्‍ली मेट्रो की चमक के पीछे का अंधेरा

देश आगे बढ़ रहा है। आंकड़े बताते हैं। लेकिन क्या देश में रहने वाले लोग भी आगे बढ़ रहे हैं। जिंदगी बताती है — नहीं बढ़ रहे । आगे बढ़ाने के लिए अपना कंधा छिलवाने वाले लोग गाड़ी में ही जुते हैं हां गाड़ी में सवार लोग जरूर गमगमा रहे हैं।
हमारे देश की तरक्की की छाप छोड़ने वाली जिन चीजों को बड़े फख्र और शान के साथ दिखाया जाता है उनमें एक दिल्ली मेट्रो भी है। जगमगाती, चमकदार, उन्नत तकनोलॉजी से लैस मेट्रो को देखकर खास लोग ही नहीं आम लोग भी थोड़ा अच्छा महसूस करने लगते हैं। इसी की वजह से दिल्लीके ग्लोबल सिटी होने का दावा भी किया जाता है। इसकी चमक-दमक, साफ-सुथरापन, और जगमगाहट लुभाती भी है। लेकिन इस चमक-दमक को पैदा करने वालों की जिंदगियों में कितना अंधेरा जमा हो रहा है इसका अंदाजा शायद ही किसी को हो।
पता चला है कि मेट्रो को चमकाने वाले सफाई कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी भी नसीब नहीं हो रही है। साप्ताहिक छुट्टी, पी.एफ., ईएसआई और यूनियन बनाने जैसे श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन किया जा रहा है। क्या मेट्रो या कहें देश के विकास की चमक बहुत सारे लोगों के अंधेरे की कीमत पर पैदा करने का रास्ता ही हमें मंजूर होगा। ऐसे बनते जा रहे हालातों में जबकि यह अंधेरा हमारी जिंदगी में भी पसरता जा रहा है।
दिल्ली मेट्रो के सफाई कर्मचारी डीएमआरसी द्वारा अनुबंधित हाउसकीपिंग कंपनियों के अंतर्गत दिहाड़ी पर रखे जाते हैं। डीएमआरसी का दावा है कि वह सारे श्रम कानूनों का पालन करती है। लेकिन पता चला है कि सारे श्रम कानूनों को ताक पर रखा जाता है। मेट्रो को जगमगाने वाले ये लोग सिर्फ 80-90 रूपये रोजाना पर अपने परिवार को पालने पर मजबूर हैं। हाल ही में डीएमआरसी ने एक सर्कुलर जारी किया। इसमें मजदूरों को उनके कई बुनियादी अधिकारों से वंचित करने का तुगलकी फरमान सुनाया गया है। सबसे बड़ी बात कि मजदूरों को शिकायत होने पर मीडिया और न्यायालय दोनों जगह जाने से रोक लगा दी गयी है। यानी एक नागरिक के रूप में उसके अधिकारों पर भी रोक लगा दी गयी है।
फिलहाल इसके विरोध में जागरूक नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, छात्रों ने मेट्रो कर्मी अधिकार रक्षा मंच का गठन किया है। इसके ब्लॉग पर बड़ी संख्या में लोग इस मुद्दे पर अपना विरोध भी दर्ज करवा रहे हैं।
मुझे लगता है ऐसी चीजों के खिलाफ खड़े होना चाहिए जो रोशनी के पीछे छिपे अंधेरे और गम को छुपाने की कोशिश कर रही हैं। इस मुद्दे पर आगे और...

Wednesday, March 11, 2009

जब फागुन रंग झमकते हों / और दफ़ के शोर खड़कते हों /देख बहारें होली की—होली की सतरंगी शुभकामनाएं

मस्‍ती, उल्‍लास, रंग-गुलाल,
मिलना, रंगों से सरोबार,
पकौड़े, दही-बड़े,
होली की मस्‍ती में सतरंगी शुभकामनाएं और आइये गायें नजीर अकबराबादी की यह रचना।
(एमटीएनएल की कृपा से बहुत दिनों बाद ब्‍लॉग पर आना हुआ है। बहरहाल शुक्र है कि कम से कम होली पर नेट चल रहा है।)

देख बहारें होली की
— नजीर अकबराबादी
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीशए (सागर) जाम (शराब का प्याला) छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
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गुलज़ार (बाग़) खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।