Thursday, February 26, 2009

कोई बताएगा कि अजीत डी कैसे गलत है ?

मैं हैरान हूं केरल के ब्‍लॉगर अजीत डी पर सुनाए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर और उसके औचित्‍य पर। और इस फैसले के बाद कुछ ब्‍लॉगरों के रवैये पर भी।
अजीत पर आरोप लगाया गया है कि उसने शिवसेना को राष्‍ट्र को क्षेत्र और जाति के आधार पर बांटने वाला बताकर उनकी भावनाओं पर चोट पहुंचाई है। हमारा देश कुछ ज्‍यादा ही भावना प्रधान देश है। सबसे पहले भावनाओं पर चोट लगने की ही बात करते हैं। पहला सवाल तो यही है कि शिवसेना की राजनीति और बयान क्‍या करते हैं? क्‍या शिवसेना लोगों की भावनाओं पर चोट नहीं पहुंचाती है। उसके उत्‍तर भारतीयों के खिलाफ किए जाने वाले विषवमन क्‍या लोगों को प्रफुल्लित कर देते हैं? क्‍या इस बात को भूला जा सकता है कि बाल ठाकरे ने कहा था, ''सारे मुसलमानों को उठाकर अरब सागर में फेंक देना चाहिए।'' या कि ''उत्‍तर भारतीय लोग मुंबई को गंदा कर देते हैं।'' या फिर उनके ''लुंगी भगाओ, पुंगी बजाओ'' अभियान ने लोगों की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाई थी। शिवसेना और उस जैसे तमाम संगठन अल्‍पसंख्‍यकों, महिलाओं के खिलाफ जो बयान देते रहते हैं, क्‍या उनके लिए भावनाओं पर चोट पहुंचाने का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? क्‍या उनके बयान देश को तोड़ने वाले और किन्‍हीं आतंकवादियों/अलगाववादियों से कम खतरनाक होते हैं?
जहां तक भावनाओं पर चोट पहुंचने का मामला है तो ऐसी कौन सी बात है कि जिससे किसी न किसी को चोट न पहुंचती हो। क्‍या गैलीलियो ने जब ब्रह्मांड का केंद्र सूर्य को बताया था तो लोगों की भावनाओं को चोट नहीं पहुंची थी? जब डार्विन ने बंदर से इंसान बनने का विकासवाद का सिद्धांत सामने रखा तो क्‍या लोगों की भावनाएं आहत नहीं हुईं थी। दुनिया की कोई भी ऐसी बात हो ही नहीं सकती जिसपर सारे लोग एकमत हो जाएं। यहां तक कि युनिवर्सल ट्रूथ (सार्वभौमिक सत्‍य) कही जाने वाली बातों से भी लोग इत्‍तफाक नहीं रखते हैं। वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो जाने के बावजूद क्‍या ऐसे लोग नहीं हैं जो ये मानते हैं कि दुनिया को किसी ‘‘भगवानजी’’ ने पैदा किया है। सारे लोगों को खुशहाल जीवन देने के विरोधी लोग भी अच्‍छी-खासी मात्रा में मिल जाएंगे। जो बात किसी के लिए सही है वह दूसरे के लिए बुरी लगने वाली हो सकती है। उसके सही और गलत होने का पैमाना क्‍या होगा? मुझे लगता है जो बात तर्कसंगत और वैज्ञानिक है वह व्‍यापक तौर पर बहुसंख्‍यक लोगों के भले के लिए भी होगी और उसी के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। शिवसेना को अगर अपने राष्‍ट्र विरोधी और समाज को बांटने के आरोप से पीड़ा हुई है तो हर तरह का गलत काम करने वालों के खिलाफ लिखने से उनको (गलत काम करने वालों) को भी तो पीड़ा पहुंचेगी, उनकी भी तो भावनाओं पर चोट लगेगी। तब फिर उनके खिलाफ मीडिया में लिखने वाले सारे लोगों को भी कानूनन महाराष्‍ट्र, झारखण्‍ड, अंदमान निकोबार या श्रीनगर की अदालत में पैरवी करने जाना होगा। तब अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का मतलब क्‍या होगा और क्‍या लोकतंत्र का होगा!
विधि संहिता का सबसे प्रमुख सिद्धांत ‘मोटिव’ यानी आपके मकसद पर ध्‍यान देने की जरूरत पर जोर देता है। इस मामले में अजीत डी का मकसद कहीं से भी शिव सेना के खिलाफ ऑरकुट पर कम्‍युनिटी बनाकर कोई राजनीतिक लाभ या निजी लाभ उठाने का नजर नहीं आता है। दूसरी तरफ शिवसेना की भावनाओं पर चोट सिर्फ अजीत की बनाई कम्‍युनिटी से ही कैसे लग गई। क्‍या मुंबई के सारे ब्‍लॉगर शिवसेना की तारीफ करते हैं? शिवसेना की भावनाओं को जिन लोगों से चोट पहुंचती हैं क्‍या उनका अंजाम हमें याद नहीं है। लोकसत्‍ता के संपादक कुमार केतकर समेत कई पत्रकारों-संपादकों से लेकर प्रिंट और इलैक्‍ट्रानिक मीडिया के दफ्तरों में की गई मारपीट और तोड़फोड़!!! एक अहम सवाल यह है कि मुंबई के विरोधी पत्रकारों और लोगों से उन्‍हें जब चोट पहुंचती है तब उन्‍हें अदालत क्‍यों नहीं याद आती। और तब वे गुंडागर्दी पर क्‍यों उतर आते हैं।
दरअसल उनकी मंशा एकदम साफ है। अजीत को महाराष्‍ट्र की अदालत में खींचने का मकसद सिर्फ एक है उसे तंग करना, बेवजह परेशान करना ताकि ऐसे तमाम लोगों को संदेश दिया जा सके कि ‘‘देख लो तुम्‍हारा भी यही अंजाम करेंगे।’’ साफ है कि इंटरनेट जैसे संचार माध्‍यम से उठने वाली विरोधी आवाजों को इस तरह रोका जाएगा। ब्‍लॉगिंग या वेब पत्रकारिता के पक्ष में एक सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें आपके विचार अब किसी अखबार या चैनल के बिजनैसमेन मालिक और उसके चमचे संपादकों से नियंत्रित नहीं हो सकते। इसके पूंजी से मुक्‍त संचार माध्‍यम होने की वजह से इसकी ताकत आम लोगों के लिए काफी बड़ी हो जाती है। इसकी इसी ताकत ने समाज के मीडिया पर प्रभुत्‍व रखने वाले प्रभावशाली तबके के अंदर हलचल पैदा कर दी है। यह मामला इसी हलचल का नतीजा है।
इस मामले का व्‍यापक असर होगा। इससे उन ताकतों को बल मिलेगा जो समाज में हर विरोधी आवाज को कुचल देना चाहती हैं, जो समाज में अपनी बातों का एकछत्र राज और साफ-साफ शब्‍दों में तानाशाही चाहती हैं, और जो समाज में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के जनवादी स्‍पेस को खत्‍म कर देना चाहती हैं (जैसा कि तालिबान स्‍वात घाटी में पत्रकारों को मारकर कर रहा है)। यह संदेश उन सब लोगों के लिए है जो समाज में गलत चीजों के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं, जो समाज में बहस के दायरे को जिन्‍दा रखना चाहते हैं। जो लोग उस वजह को जिन्‍दा रखना चाहते हैं जिसकी वजह से कोई व्‍यवस्‍था लोकतां‍त्रिक मूल्‍यों से लैस होती है।
इस मामले पर ब्‍लॉगर जगत में मुझे अजीब बातें दिखाई दीं। खासकर हिंदी के ब्‍लॉग जगत में एक भी ब्‍लॉग पर अजीत के पक्ष में कुछ दिखाई नहीं पड़ा (अगर आपकी जानकारी में हो कृपया मुझे सूचित करें)। कुछ के अनुसार विरोध मर्यादित होना चाहिए, तो कुछ ने कहा कि अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता उश्र्खृंलता नहीं होती है। मेरा कहना है कि पहली बात तो अनाम टिप्‍पणीकारों के लिए अजीत को दोषी देना क्‍या जायज है? दूसरी बात कि क्‍या अजीत के इस कम्‍युनिटी चलाने के मोटिव चलाने पर आपका सवाल है? क्‍या आप लोग शिवसेना को राष्‍ट्र को जोड़ने वाली और समाज में समरसता और भाईचारा पैदा करने वाली पार्टी मानते हैं, और उसकी भावनाओं पर चोट लगने के नाम पर समाज में शिवसेना या उसकी जैसी तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ विमर्श किए जाने से ही इंकार करते हैं? अगर नहीं तो फिर अजीत ने क्‍या गलत किया है?
वैसे फिलहाल अजीत के सामने मुश्किलें तो पैदा हो ही गई है। उसके आर्थिक पहलू और पढ़ाई के पहलू के अलावा सुरक्षा के पहलू पर भी गौर नहीं किया गया है। इस मुद्दे पर आज टाईम्‍स ऑफ इंडिया की एक खबर ने थोड़ी राहत दी जिसमें कुछ ब्‍लॉगरों ने अजीत के मामले पर नाराजगी जाहिर की है और इसके खिलाफ एकजुट होने की जरूरत पर जोर दिया है। मुझे लगता है कि यह मुद्दा भारतीय ब्‍लागिंग जगत में एक मोड़बिंदु (Turning point) ला सकता है जहां से इसके भविष्‍य का रास्‍ता साफ होगा। दरअसल मसला सिर्फ शिवसेना का नहीं है। यह मामला विचारों पर बंदिश लगाने के इच्‍छुक लोगों और इसके खिलाफ खड़े लोगों के बीच का है। ये हमें तय करना होगा कि इस माध्‍यम को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का 'डेमोक्रेटिक स्‍पेस' बनाया जाए या प्रभावशाली तबके और उसके हितों से नियंत्रित होने वाले अन्‍य संचार माध्‍यमों की तरह उनके भौंपूं का………???

Sunday, February 22, 2009

बस इश्‍क मोहब्‍बत प्‍यार, ये दिल्‍ली है मेरे यार - क्‍या वाकई?

दिल्‍ली 6 का ये गाना आजकल काफी बज रहा है। दिल्ली के बारे में बड़े शान से कहा जाता है कि भई दिल्ली तो दिलवालों का शहर है। यहां की तहजीब की कोई मिसाल नहीं, वगैरह वगैरह। क्या वाकई ऐसा है? सुनी-सुनाई बातों को थोड़ी देर किनारे रखकर दिल्ली से अपनी पहली मुलाकातों को जरा याद कीजिए। क्या दिल्ली वाकई दिलवालों की नजर आती है? दिल्ली ने आपको बांहें फैलाकर गले लगा लिया था, या गांव से आये अनचाहे मेहमान की तरह नाक-भौं सिकोड़ ली थी। दिल्ली गुदगुदाती है या कोई टीस ताजा देती है। आखिर दिल्ली का मिजाज कैसा है। मैं अपने अनुभवों को साझा करता हूं। दिल्ली में हम ज्यादातर लोग बाहर से आकर बसे हैं। अपने गांवों-कस्बों-शहरों के नुक्कड़ों-मोहल्लों-चौराहों को छोड़कर उम्मीदों और सपनों की बड़ी भारी गठरी लेकर दिल्ली के रेलवे स्टे्शन या बस अड्डे पर उतरे थे। यहां की मेहमाननवाजी का सबसे पहले सामना होता है विख्या्त ब्लूलाइन बस के कंडकटर से। टिकट देने के बाद लगभग धकेलते हुए बोलता है, ''यहां क्या थारी अम्मा नाचन लाग री है, अन्दर ने बड़ जाओ'' और आपको भुस की तरह भर दिया जाता है।
मकान लेने जाते हैं तो सरदारजी से सामना होता है, ''आहो जी, एत्थेद तो असी बैठे ही ऐस वास्ते हैं। कमरा बढ़ि‍या मिल जाएगा, बस कमीशन दो महीने का किराया एडवांस लगेगा।'' भाव बढ़ाने के लिए तड़ाक से यह भी पूछ लिया जाता है, ''बिहारी हो क्या?'' किसी वजह से दिल्ली वालों का जनरल नालेज बहुत कमजोर है। यहां के लोग मेरठ से आगे की सारी जगहों को बिहार ही समझते हैं। जमनापार या तुगलकाबाद के आसपास के गूजरों वाले इलाकों में अंदाज यूं होता है, ''कोंह के हो तम?''
सबसे अहम बात कि आपकी हैसियत कमतर लगते ही आपको बिहारी समझ लिया जाता है। बिहारी शब्द आपके इलाके का नहीं आपकी क्लॉस का प्रतिनिधि होता है।
आपको स्कूल, अस्पताल, दफ्तर, से लेकर थानों तक में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगें। बेशक दिल्ली आपको एक ठिया देती है जहां आप रोजी-रोटी कमा सकते हैं। लेकिन कदम-कदम पर आपकी हैसियत भी जता दी जाती है।
जब मैं दिल्ली के इन पहलुओं की चर्चा कर रहा हूं तो इसका यह मतलब कतई नहीं है‍ कि दिल्ली रहने लायक नहीं है और अपना गांव ही बढ़ि‍या था। दिल्ली गति का नाम है जबकि गांव सड़ते हुए पानी या ठहरे हुए जीवन का। इस गति की कुछ क्रूरताएं जरूर हैं लेकिन फिर भी यह जड़ता झेलने से कहीं बेहतर है। इस दौड़ते जीवन की ये बेरहमियां उस मूल्य से जुड़ी हैं जो तरक्कीत की अपनी परिभाषा में जबर्दस्‍ती थोप दी गयी हैं। और तरक्की की सीढ़ि‍यों पर चढ़ने के लिए जिनका इस्तेमाल करना जरूरी होता है। और फिर धीरे-धीरे ये स्वीकार्य और सामान्य लगने लगती हैं। तब तक शायद हमारी खुद की क्लास बदल जाती है। लेकिन दिल्ली के 70 फीसदी आबादी की क्लॉस अमूमन नहीं बदलती। और वो 'बिहारी' होने का ठप्पा लगाए घूमते रहते हैं। दिल्ली के बारे में आपके क्याह ख्याल क्या हैं? बताइएगा...

Saturday, February 21, 2009

मुंतजर की सुनवाई शुरू

बुश पर जुता फेंक कर प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर उभरे मुंतजर अल जैदी की सुनवाई शुरू हो गई है। अपनी पहली सुनवाई में मुंतजर ने कहा कि बुश की ठंडी मुस्कान ने उसे गुस्से से बिफरा दिया था। उसने कहा, ''लाखों इराकी लोगों को मौत के घाट उतारने, मस्जिदों और घरों की बेइज्जती करने, औरतों के साथ बलात्कार करने'' के दोषी के खिलाफ उसका गुस्सा इस कदम की वजह थी।
एक साईट के अनुसार अमेरिकी फौजों के इराक में कदम रखने से लेकर अब तक 13 लाख 11 हजार 696 लोग मारे गये हैं। इनमें से ज्यादातर निर्दोष नागरिक हैं।

Sunday, February 15, 2009

प्‍यार हमें शक्ति देता है. — भगतसिंह

चिपलूनकरजी ने मुझे अपने विचारों से लाभांवित करवाने के लिए कहा था। अपने तो नहीं अलबत्‍ता प्रेम के बारे में भगतसिंह के विचारों से शायद वे बात कुछ समझ सके। किसी से, अपने देश से या समाज से वही सच्चे अर्थों में प्यार कर सकता है जो सहज मानवीय भावनाओं से भी ओतप्रोत हो। भगतसिंह ने प्रेम के बारे में कुछ ऐसा ही लिखा है। वैसे प्रेम किसी भी कारण से चर्चा में है तो अच्छी बात है। विरोध और समर्थन इसे प्रकट करने के तरीके के बारे में है। मेरा मानना है जो चीज वास्तव में जैसी होती है उस तक पहुंचने का रास्ता भी उसी के अनुरूप हो जाता है। क्या आपको नहीं लगता तमाम मूल् क्षरित होने के दरमयान प्रेम का मूल् भी कम हुआ है अलबत्ता बाहरी रंग-रोगन ज्यादा चमक गया है। भगतसिंह के प्रेम के उस आंतरिक मूल् के बारे में ये विचार प्रस्तुत हैं जो उन्होंने सुखदेव के नाम अपने पत्र में प्रकट किए थे (संदर्भ : भगतसिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब् दस्तावेज, राहुल फाउंडेशन, लखनऊ) इनसे क्रान्तिकारियों के अन् महत्वपूर्ण पक्षों की तरह सहज मानवीय भावनाओं के बारे में उनके गहरे विचारों का भी पता चलता है।


प्‍यार हमें शक्ति देता है...
जहां तक प्‍यार के नैतिक स्‍तर का संबंध है, मैं यह कह सकता हूं कि यह अपने में कुछ नहीं है, सिवाय एक आवेग के, लेकिन पाशविक वृत्ति नहीं, एक मानवीय अत्‍यंत सुंदर भावना। प्‍यार अपने में कभी भी पाशविक वृत्ति नहीं है। प्‍यार तो हमेशा मनुष्‍य के चरित्र को ऊंचा उठाता है, यह कभी भी उसे नीचा नहीं करता। बशर्ते प्‍यार प्‍यार हो। तुम कभी भी इन लड़कियों को वैसी पागल नहीं कह सकते—जैसे कि फिल्‍मों में हम प्रेमियों को देखते हैं। वे सदा पाशविक वृत्तियों के हाथों में खेलती हैं। सच्‍चा प्‍यार कभी भी गढ़ा नहीं जा सकता। यह तो अपने ही मार्ग से आता है। कोई नहीं कह सकता कब? लेकिन यह प्राकृतिक है। हां मैं यह कह सकता हूं कि एक युवक और एक युवती आपस में प्‍यार कर सकते हैं और अपने प्‍यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं। अपनी पवित्रता बनाये रख सकते हैं। मैं यहां एक बात साफ कर देना चाहता हूं कि जब मैंने कहा था कि प्‍यार इन्‍सानी कमजोरी है, तो साधारण आदमी के लिए नहीं कहा था; जिस स्‍तर पर कि आम आदमी होते हैं। वह एक अत्‍यंत आदर्श स्थिति है, जहां मनुष्‍य प्‍यार, घृणा आदि के आवेगों पर विजय पा लेगा। जब मनुष्‍य अपने कार्यों का आधार आत्‍मा के निर्देशों को बना लेगा, लेकिन आधुनिक समय में यह कोई बुराई नहीं है। बल्कि मनुष्‍य के लिए अच्‍छा और लाभदायक है। मैंने एक व्‍यक्ति के दूसरे व्‍यक्ति से प्‍यार की निन्‍दा की है लेकिन वह भी एक आदर्श स्‍तर पर। इसके होते हुए भी मनुष्‍य में प्‍यार की गहरी से गहरी भावना होनी चाहिए, जिसे कि वह एक ही आदमी में सीमित न कर दे बल्कि विश्‍वमय रखे।
—भगतसिंह

Friday, February 13, 2009

आप प्रमोद मुत्‍तालिक को जरूर जानते होंगे, क्‍या आप पवन शेट्टी को जानते हैं?

वैलेंटाइन डे पर श्रीराम सेना और प्रमोद मुत्‍तालिक सुर्खियों में छाये हुए हैं। लेकिन क्‍या आप मैंगलोर हमले में हमलावरों का मुकाबला करने वाले पवन शेट्टी को जानते हैं? शायद न जानते हों। लेकिन आपने टीवी पर बार-बार दिखाई जा रही फुटेज में हमलावरों से लड़ते एक नौजवान को जरूर देखा होगा। जी हां, यही पवन शेट्टी है। दरअसल वह उस दिन संयोग से ही पब के बाहर मौजूद था और महिलाओं को बुरी तरह पीटते व‍हशियों की दरिंदगी उसे बर्दाश्‍त नहीं हुई और वह अकेला ही उन सबसे भिड़ गया।
उसके द्वारा बचाई गई एक महिला ने उसके बारे में कहा, ''वह हीरो है। वहां जानवरों के बीच मौजूद चंद इंसानों में से एक वह था।'' इस घटना के बाद स्‍थानीय मीडिया में थोड़ी तारीफ होने के बावजूद राष्‍ट्रीय मीडिया ने उससे ज्‍यादा प्रमोद मुत्‍तालिक के चेलों को दिखाया। शायद उन्‍हें उसमें कोई ''न्‍यूज वैल्‍यू'' न दिखायी दी हो।
विनम्र पवन शेट्टी ने कहा, ''वह कोई हीरो नहीं है।'' उस दिन पब में महिलाओं को पिटते देखकर उससे रहा नहीं गया है और वह अकेला ही उनसे भिड़ गया। हालांकि वहां कई लोग मौजूद थे लेकिन किसी की हिम्‍मत श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं से उलझने की नहीं थी। उसके एकबारगी प्रतिरोध करने पर पहले तो श्रीराम सेना के कार्यकर्ता हक्‍के-बक्‍के रह गये फिर सब मिलकर उसपर टूट पड़े। फिर भी उसने कई महिलाओं को वहां से निकलने में मदद की।
पवन शेट्टी नाम का यह नौजवान पहले बजरंग दल का सदस्‍य था। उसका कहना है कि चूंकि वह लोगों से बेवजह नफरत नहीं कर सकता इसलिए उसने बजरंग दल छोड़ दिया था। उसने एक बड़े मार्के की बात कही कि उसे इन लोगों और तालिबानियों में कोई फर्क नजर नहीं आता।
पवन शेट्टी हमें रूक कर बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है। पवन शेट्टी होने के क्‍या मायने हैं? क्‍या पवन शेट्टी सिर्फ एक अपवाद है? पवन शेट्टी जैसे लोग क्‍यों बड़े पैमाने पर लोगों या समाज के सामने एक उदाहरण के तौर पर नहीं आ पाते?
मुझे नहीं लगता कि पवन शेट्टी कोई अपवाद है। ऐसे संगठनों में बहुत सारे नौजवान आदर्शों और विचारों के साथ जाते हैं लेकिन जल्‍द ही उन्‍हें अंदर की असलियत और अच्‍छी-अच्‍छी बातों के पीछे की सच्‍चाई मालूम हो जाती है। फिर वे उनकी राजनीति और विचारधारा से अपने इन अनुभवों के और तर्कों के आधार पर भी उनसे छिटकने बल्कि उन्‍हें नापसंद करने लगते हैं। हो सकता है अपने लड़कपन के हमारे-आपके भी ऐसे बहुतेरे अनुभव हों। इसलिए अगर पवन शेट्टी बजरंग दल छोड़कर आया और उसने पब में महिलाओं को बचाया तो इसमें एक सामान्‍य वजह है। वह यह कि कोई भी स्‍वस्‍थ दिल-दिमाग का आदमी न तो ऐसे संगठन में ज्‍यादा दिन तक रह सकता है और अगर बेहद डरपोक न हुआ तो न वह ऐसे मौकों पर गुण्‍डों से निपटने से पीछे हटेगा।
आज मीडिया में प्रमोद मुत्‍तालिक छाया हुआ है तो किसको फायदा पहुंच रहा है? असल में मीडिया हाईप से ऐसे तत्‍वों और उनकी राजनीति को फायदा ही होता है। आप चाहे अखबार में या टीवी पर लाख कोस लें लेकिन समाज के एक त़बके में उनका आधार और ज्‍यादा मजबूत ही होता है। इस तरह मीडिया उन्‍हें हीरो बना देता है। लेकिन पवन शेट्टी जैसे लोगों को भुला दिया जाता है। क्‍योंकि उसने गुण्‍डों से मुकाबला किया यह उतनी न्‍यूज वैल्‍यू नहीं रखती जितना कि प्रमोद मुत्‍तालिक के किसी चेले का यह बयान कि वे मैंगलोर को जाम कर देंगे या कि वैलेंटाईन डे पर जबर्दस्‍ती शादी करवाई जाएगी। यह हमारे मीडिया की दौड़ है जो सनसनी के पीछे भागता है, उस खबर के पीछे भागता है जिससे लोगों में उत्‍तेजना फैले। बकौल कहें तो पवन शैट्टी ने काम तो ठीक किया पर गुरू इस खबर में वो क्‍या है कि ''न्‍यूज वैल्‍यू'' नहीं है।
इसलिए पवन शेट्टी को कोई नहीं जानता और प्रमोद मुत्‍तालिक को सब जानते हैं। प्रमोद मुत्‍तालिक के सुकर्मों से प्रेरणा लेकर बंबई, दिल्‍ली और कई जगहों के धर्मरक्षक सक्रिय हो जाते हैं। जो वैलेंटाईन डे जैसे मौकों पर फिर किसी सनसनी का मसाला दे देते हैं। चूंकि इस समाज और उसके मीडिया को न पवन की जरूरत है न गुण्‍डों से लड़ने के पीछे उसकी सोच जानने की, सो वह गुमनामी के अंधेरे में खो जाता है। वह इसलिए भी खो जाता है क्‍योंकि वह शायद छोटी-मोटी सी नौकरी करने वाला गरीब नौजवान है। दूसरी तरफ हिन्‍दुत्‍व के खिलाफ आग उगलने वाले हमारे मिडिल क्‍लास का एक प्रगतिशील तबका है जो कट्टरपंथियों से लड़ने के लिए पांच रूपये की मोमबत्‍ती जलाता है, जुलूस निकालता है, फोटो खिंचवाता है और फिर चैन से सो जाता है कि अब फासीवाद कैसे आ सकता है। (बेहद बेहूदे अभियान भी आजकल अखबारों में चर्चा में हैं)
पवन शेट्टी असल में हमें यह बताता है कि ऐसे तत्‍वों से निपटने के लिए हमें करना क्‍या होगा? आनुष्‍ठानिक नहीं लड़ाई तो लड़ाई के तरीके से ही लड़ी जाती है। पवन शेट्टी बताता है कि इन लोगों को सड़कों पर, आमने-सामने और इन्‍हीं के अंदाज में जवाब देना होगा। मुझे लगता है ऐसा पवन जैसे वे तमाम लोग मिलकर करेंगे—जिनका ध्‍यान ये लोग जिंदगी के असली मुद्दों से भटका कर—उनकी जिंदगी की बदहाली को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बरकरार रखने की साजिश के तहत भटकाते आ रहे हैं। क्‍या पवन शेट्टी जैसे लोगों को समाज के सामने लाना इस लड़ाई को मजबूत नहीं करेगा। क्‍या आपको ऐसा लगता है...

Wednesday, February 11, 2009

नेपाली जनयुद्ध का संदेश, क्रान्ति हथियारों से नहीं जनता के दम पर होती है






नेपाली जनयुद्ध शुरू होने के 12 साल कल 12 फरवरी को पूरे होने जा रहे हैं। जनता की जीत के एक मुकाम पर आज खड़े नेपाल समेत दुनिया भर के जनपक्षधर लोगों के लिए यह एक बड़ा दिन है।


नेपाली जनयुद्ध के बारे में कहा गया कि इसमें सिर्फ हथियारों के दम पर सत्‍ता तक पहुंचा गया है। यह कहने वाले भूल जाते हैं कि जनता के बिना हथियार कुछ नहीं कर सकते।


नेपाली क्रान्ति दरअसल 1996 से बहुत पहले शुरू हो गयी थी। जब गांव-गांव में कार्यकर्ताओं ने लोगों के बीच काम करना शुरू किया था। भयंकर गरीबी झेलने वाले नेपाल के गांवों में गांवों और लोगों की हालत सुधारने के छोटे-मोटे कामों से क्रान्ति शुरू हुई थी।

दरअसल क्रान्ति सिर्फ और सिर्फ जनता के दम पर ही की जा सकती है। हमारे देश में एक जमाने में क्रान्ति का नाम लेने वाले आजकल पूंजीपतियों के चाकर बन गये हैं और कुछ लोगों के लिए व्‍यक्तिगत बहादुरी और हथियार ही क्रान्ति हैं। नेपाली क्रान्ति हमें काफी कुछ सिखा सकती है।

Tuesday, February 10, 2009

क्‍या नेपाली क्रान्ति के संदेश को हम समझ रहे हैं?

नेपाल में जनयुद्ध शुरू होने की 12वीं वर्षगांठ परसों यानी 12 फरवरी को है। 12 फरवरी 1996 से नेपाली जनता ने अत्‍याचारी राजा और भ्रष्‍ट लोकशाही के खिलाफ संघर्ष छेड़ा था। आज यह संघर्ष एक कठिन मंजिल पर है और इसकी अंतिम मंजिल तो बेशक अभी काफी दूर है। लेकिन नेपाल की आम गरीब जनता ने पूरी दुनिया में लागू व्‍यवस्‍था को नकार कर, उसके तथाकथित लोकतंत्र को अस्‍वीकार करके सारी दुनिया के लिए क्‍या कोई संदेश नहीं दिया है? क्‍या पूरी दुनिया में जनसंघर्षों के लिए इस क्रान्ति से सीखने के लिए कुछ है?
राजा के समय में नेपाल में देश की 90 फीसदी जनता भयंकर भुखमरी, बेरोजगारी का शिकार थी। इस कठिन जीवन में कोढ़ में खाज राजा के सामंत, जागीरदार, लठैत, पुलिस पैदा करते थे। साथ ही पैसे वालों की छोटी सी जमात पैदा हो गई जो मुनाफे के बाजार को जनता का खून-पसीना निचोड़कर फैलाना चाहती थी। लोकतंत्र आया लेकिन उसके आने के बाद फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि एक की जगह कई राजा हो गए। लोगों का जीवन उतना ही कष्‍टकारी और दुखभरा था। लोग वास्‍तविक बदलाव चाहते थे। इसी समय क्रान्तिकारियों के आह्वान पर जनयुद्ध की घोषणा हुई जिसके लगभग 10 सालों तक चलने के बाद आज का मुकाम हासिल हुआ। नेपाल के लोगों को समझ आया कि राजशाही हो या लोकतंत्र, जनता का जीवन तो चंद लोगों की मुट्ठी में ही रहता है। इसलिए इस धोखे को खत्‍म करके अपने राज-काज के लिए लड़ा जाए। पूरी दुनिया में अभी भी बहुत से लोग हैं जो ये समझते हैं कि वर्तमान व्‍यवस्‍था के भीतर ही सुधार कर इसे अच्‍छा बनाया जा सकता है। हालांकि ऐसे लोग न तो इतिहास की ठीक समझ रखते हैं न समाज की। नेपाली गरीब, अनपढ़ जनता ने इस व्‍यवस्‍था को नकार कर संकेत दिया है कि चाहे जनता के राज-काज के प्रयोग कितनी बार असफल हो गये हों लेकिन अंतत: उनके जीवन में सुधार आ सकता है तो इसी के जरिए। यानी जब तक सामाजिक व्‍यवस्‍था में सुधार नहीं आमूलचूल परिवर्तन न किये जायेंगे। सुधार-सुधार के खेल से कुछ हासिल नहीं हो सकता। क्‍‍या इस संकेत को हम लोग समझ रहे हैं?

Sunday, February 1, 2009

मैंगलोर हमला वाया गुड़ खाये गुलगुले से परहेज

पब-संस्‍कृति को लेकर एक बहस खड़ी हो गई है। श्रीराम सेना ने इसके खिलाफ भोंडे, बर्बर ढंग से हमला किया था लेकिन उसके बाद आरएसएस प्रवक्‍ता राम माधव, येदुरप्‍पा से लेकर अशोक गहलौत और अम्‍बूमणि रामोदास और बंगाल के किसी ''प्रगतिशील'' मंत्री तक ने इस पर रोक लगाने की मंशा जाहिर कर दी है। ये बयान ठंडे दिमाग से दिये गये और सोचे-समझे बयान हैं। इस तरह के बयान आखिरकार प्रमोद मुत्‍तालिक जैसे गुण्‍डों की ही मदद करेंगे लेकिन ये पब-संस्‍कृति के बहाने हमारी सोच पर एक सवाल भी खड़ा करते हैं।

तमाम लोगों ने कहा कि पब-संस्‍कृति हमारी संस्‍कृति में नहीं है, कि ये नौजवानों को बिगाड़ रही है, लड़के-लड़कियों का हाथ में हाथ डालकर घूमना सही नहीं है, वगैरह-वगैरह। पहली बात यह महाशयों कि हमारी जिस ''महान'' संस्‍कृति की बात की जाती है, क्‍या उसमें इन्‍द्र के दरबार में सुरा-सुन्‍दरी नहीं छाई रहती थीं। तमाम देवताओं का प्रिय पेय सोमरस क्‍या था। हां, महिलाओं के पीने का जिक्र शायद बहुत कम है। यानी संस्‍कृति के हिसाब से पुरुष पिये तो ठीक, महिलाएं पिये तो कहर। तो मानिये कि आपकी संस्‍कृति महिलाओं से भेदभाव पर आधारित है।

दूसरी और अहम बात कि पब-संस्‍कृति का ही विरोध क्‍यों हो रहा है? अगर विरोध करना है तो मॉल-कल्‍चर का भी विरोध करें, विदेशी कपड़ों का, विदेशी फिल्‍मों का भी विरोध करना चाहिए। ये भी तो हमारी संस्‍कृति में नहीं थे। तो फिर विदेशी तकनीकों का इस्‍तेमाल क्‍यों, इण्‍टरनेट तो सांस्‍कृतिक हमले का बड़ा औजार है। और फिर विदेशी कम्‍पनियों का विरोध क्‍यों नहीं होता। जो अपना माल बेचने के लिए अपनी संस्‍कृति साथ लेकर आती हैं। कुल मिलाकर अगर वाकई पब का विरोध करना है तो विदेशी पूंजी का विरोध करना चाहिए। आजकल कई उपकरणों में इनबिल्‍ट (सहनिर्मित) चीजें आती हैं। बात दरअसल यह है कि पब मात्र उस आयातित संस्‍कृति का इनबिल्‍ट प्रोग्राम है जिसे हमने आयात किया है और जिसकी बदौलत तरक्‍की (कुछ लोगों की) पर फूले भी नहीं समा रहे हैं और उसके साथ आने वाली चीजों से परेशान भी हैं।

पर विदेशी पूंजी का विरोध कैसे होगा, उसे तो दौड़-दौड़ कर दण्‍डवत होकर बुला रहे हैं। अब उसके आने के परिणाम भी आने लगे हैं। देश की आबादी का एक तबका बड़ी तेजी से छलांगे मार रहा है। अब पैसा आ रहा है तो खर्च करने के लिए ही ना! अपना या अपने बाप के पैसे को खर्च करने के लिए यह तबका महंगे मोबाईल, मोटरसाइकिलें, लक्‍जरी कारें, विदेशों में घूमने, डिजाइनर फ्लैटों और मॉल, बार और पबों की ओर दौड़ रहा है। ये तमाम आउटलेट पैसे की गर्मी निकालने के भी साधन हैं। और जब यह होता है तो जेसिका लाल मर्डर भी होंगे और मनु शर्मा अपनी कार से लोगों को भी कुचलेगा।

असल में भारतीय संस्‍कृति के रक्षक बहुत सारे हैं। किसी भी पुरानी संस्‍कृति की तमाम बातों को शिरोधार्य मानना सरासर बेवकूफी है। हालांकि संस्‍कृति के अंधे उपासक इसे बेवकूफी में नहीं बल्कि अपनी शासित दुनिया और राजकाज चलाये/बनाये रखने के लिए पुरानी संस्‍कृति को ज्‍यों का त्‍यों मानने के हामी होते हैं। ये अंधे उपासक प्रमोद मुत्‍तालिक, प्रज्ञा सिंह, पु‍रोहित जैसे लोग भी हैं तो येदुरप्‍पा, रामोदास, गहलौत जैसे लोग भी।

वैसे ये दोमुंहापन पूरे समाज में है। नये का स्‍वाद भी चाहिए, पुराने से पीछा छुड़ाने में डरते भी हैं या अपने फायदे के लिए जानबूझकर चिपके रहना चाहते हैं। दूसरे शब्‍दों में अमेरिका चाहिए, अमेरिकी संस्‍कृति नहीं। भैया, अगर देश को ''तरक्‍की'' करनी है तो विदेशी पूंजी भी लेनी होगी और विदेशी संस्‍कृ‍ति भी। यह पूंजी के साथ नत्‍थी एक शर्त होती है जिसे मानना ही पड़ता है। तो फिर यह भारतीय संस्‍कृति की रक्षा का ढोंग क्‍यों? वैसे बताते चले कि देश की 75 फीसदी आबादी का न तो इस तरक्‍की से रिश्‍ता रह गया है और न पब-बार-मॉल उनकी समस्‍या हैं।