Monday, October 27, 2008

दिवाली और हमारे देश की दो तिहाई आबादी


सॉब घर में एक पैसा नहीं है , दीवाली आ गयी है। कुछ पैसा दे देते , बच्चों का त्‍यौहार मन जाता....। अबे तो दिवाली का भार मेरे मत्‍थे डालेगा , पैसा नहीं है । जाकर चुपचाप काम कर।
ये कोई कहानी नहीं जिन्‍दगी की तस्‍वीर है जो देश के करोड़ों लोगों का हाल बयां करती है। 20 रूपया रोज कमाने वाले इस तबके के लिए त्‍यौहार खुशियों की नहीं चिन्‍ताओं की सौगात लेकर आते है। आमतौर पर सबके मन में त्‍यौहार पर उत्‍साह-उमंग की हिलोरें उठती हैं। कुछ बढि़या पहनने, बढि़या खाने और मिलजुल कर खुशी मनाने की सहज मानवीय इच्‍छाओं का गला जालिम सामाजिक व्‍यवस्‍था घोंट देती है।बड़े लोग तो फिर भी मन मसोस कर रह लेते हैं , लेकिन बच्‍चों का क्‍या वो तो 10 दिन पहले से उछलकूद मचाने लगते हैं। नये कपड़ों और खूब सारे पटाखों की फरमाईश होने लगती है। पर हमारे देश के तेजी से विपन्‍न होते जा रहे इस तबके की दीवाली पेटी में सहजें कपड़ों, सिंथेटिक मावे की सस्‍ती मिठाई , कुछ मोमबत्‍ती और दियों के सहारे बनती है। और इन चीजों के लिए भी पैसे जुगाड़ना पहाड़ पर चढ़ने के समान होता है। इन लोगों की दिवाली ठेकेदार या मालिक की मर्जी से मनती है। दीवाली पर मिलने वाला बोनस दूसरे श्रम कानूनों की तरह दूर की कौड़ी ही हैं। पांव पकड़कर एडवांस लेकर या किसी से कर्ज लेकर बाट जोह रहे बच्‍चों के लिए मिठाई और पटाखे आते हैं।


नमूना सर्वेक्षण 2000 के मुताबिक हमारे देश में 36.9 करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। ये अस्‍थायी, ठेका या दिहाड़ी पर काम करते हैं। छोटे किसानों के तेजी से उजड़ने से यह आबादी तेजी से मजदूरों के रूप में बड़े शहरों के इर्दगिर्द बढ़ती जा रही है। इनके परिवार की संख्या जोड़ने पर यह तबका हमारे देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी बनती है। सरकारी कागजों से परे ज्‍यादातर को कोई अधिकार वास्‍तव में हासिल नहीं है। उनके लिए कानून ठेकेदार की जबान होता है। जो कह दे वही सही।

तस्‍वीर का दूसरा पहलू यह है कि मन्‍दी के तमामस्‍यापों के बीच भी बाजार सजे पड़े हैं और खरीदारों की भीड़ भी है। बढि़या कपड़ों, ब्राण्‍डेड मिठाई के पैकेटों, कारपोरेट गिफ्ट आईटमों से लदे-फदे लोग हैप्‍पी दीवाली का समवेत मंत्र जाप कर रहे हैं। इन सारी चीजों को बनाने वालों के बच्‍चे इन्‍तजार कर रहे हैं कि शायद ठेकेदार का दिल पसीज जाये...

भावनाएं चेतना का ही अंग हैं। चेतना हमारे समय के आसपास के यथार्थ से कटी होने पर यथार्थपरक नहीं हो सकती। त्‍यौहार का मतलब अगर मिलजुल खुशी मनाने से होता हैतो हैप्‍पी दीवाली के शोर में वक्‍त निकाल कर जरा सोचिए कि सब लोग मिलजुल कर खुशी क्‍यों नहीं मना पाते हैं। अपने दायरों से बाहर निकल कर हमें शायद त्‍यौहार या खुशियों का मतलब ज्‍यादा समझ आने लगेगा।

आओ देखो गलियों में बहता लहू!

तुम पूछोगे /
क्‍यों नहीं करती /
उसकी कविता /
उसके देश के /
फूलों और पेड़ों की बात /
आओ देखो /
गलियों में बहता लहू /
आओ देखो /
गलियों में बहता लहू /
आओ देखो /
गलियों में बहता लहू।

---पाब्लो नेरुदा

Sunday, October 26, 2008

विद्यार्थीजी कलम के योद्धा थे और साम्प्रदायिकता से लड़ते हुए शहीद हुए थे

आज गणेशशंकर विद्यार्थी जी की 117वीं जन्‍मतिथि है। हिन्‍दी पत्रकारिता के क्षेत्र में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम एक ध्रुव तारे के समान सबसे उपर दिखायी देता है। हालांकि विद्यार्थी जी का सम्‍यक मूल्‍यांकन किये जाने और उनका उचित सम्‍मानित स्‍थान देने का काम शायद अभी पूरा नहीं हुआ है। हिन्‍दी पत्रकारिता में विद्यार्थीजी ने उस शानदार राष्‍ट्रीय परम्‍परा को आगे विस्‍तार दिया जिसे बाबूराव विष्‍णु पराड़कर जैसी विभूतियों ने स्‍थापित किया था। माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्‍ण शर्मा'नवीन', सत्‍यभक्‍त, राधामोहन गोकुलजी, रामरिख सहगल, प्रेमचन्‍द आदि लेखकों की लम्‍बी कतार थी जो राष्‍ट्रीय आजादी के प्रश्‍न को व्‍यापक सामाजिक-आर्थिक सांस्‍कृतिक नजरिये से जोड़ कर देख रहे थे। 'प्रताप' का प्रकाशन 1913 से शुरू हुआ। 'प्रताप' ने राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने में असाधारण भूमिका निभायी। भगतसिंह समेत कई वैचारिक योद्धाओं की पाठशाला यह अखबार बना। भीषण आर्थिक कष्‍ट जुर्माने और जेलयात्राओं के बावजूद 'प्रताप' विद्यार्थी जी के दृढ़ संकल्‍प की बदौलत ही निकलता रह पाया।
विद्यार्थी जी ने जिम्‍मेदारी से मुंह मोड़ने की आड़ में लेखकीय 'तटस्‍थता' की दुहाई कभी नहीं दी। उनकी वैचारिक राजनीतिक पक्षधरता एकदम स्‍पष्‍ट थी। वह अध्‍ययन कक्षों के निवासी जीव न थे। जमींदारों के विरुद्ध किसानों के संघर्ष उनके लिए जीवन की अध्‍ययनशाला थे और उनकी अध्‍ययनशाला भीषण वैचारिक संघर्ष का रणक्षेत्र। आन्‍दोलनों मे सक्रिय भागीदारी के चलते भी उन्‍हें कई बार जेल जाना पड़ा। यह उनकी निर्भीक प्रतिबद्धता ही थी जिसके चलते वह दिनरात घूमकर कानपुर में भड़के साम्‍प्रदायिक दंगे की आग बुझाने की कोशिश करते रहे और 25 मार्च 1931 को एक उन्‍मादी भीड़ के हाथों मारे गये।यूरोप के बाल्‍जॉक, रूसो और दिदेरों के समान वह एक योद्धा मनीषी थे। पुनर्जागरण के लेखकों के समान वह अपनी मान्‍यताओं को केवल लिखकर ही संतुष्‍ट नहीं थे बल्कि उन्‍हें अपने जीवन में उतारते भी थे और उनकी कीमत हंस कर चुकाते थे। आज देश में साम्‍पद्रायिक माहौल खराब है। विद्यार्थीजी ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ डटकर मओरछा लिया था और इसीसे लड़ते हुए उन्होंने अपनी आखरी साँस ली।विद्यार्थी जी ने ' धर्म की आड़' नामक लेख में लिखा था--

''यहां धर्म के नाम पर कुछ इनेगिने आदमी अपने हीन स्‍वार्थों की सिद्धि के लिए करोड़ों आदमियों की शक्ति का दु:पयोग करते हैं। यहां होता है बुद्धि पर परदा डालकर पहले ईश्‍वर और आत्‍मा का स्‍थान अपने लिए लेना और फिर धर्म के नाम पर अपनी स्‍वार्थसिद्धि के लिए लोगों को लड़ाना भिड़ाना।''

विद्यार्थीजी का जीवन और उनके विचार आज भी जनता के बुद्धिजीवियों के लिए प्रेरणा का अजस्र स्रोत हैं।

Saturday, October 25, 2008

स्वतंत्र अभिव्यक्ति के खतरें और भी हैं. एकजुटता सही कदम है

गॉसिप अड़डा के सुशील कुमार सिंह पर एचटीमीडिया लखनउ प्रबंधन द्वारा दर्ज करवायी गयी शिकायत मीडिया की गला घोंटने की साजिश का ही नमूना मानी जानी चाहिए। ऐसी कोशिशों का कड़ाविरोध निश्चित रूप से होना चाहिए(जो शुरू भी हो चुका है) । व्‍यावसायिक मकसद से चलने वाली वेबसाईटें और ब्‍लॉगों के अतिरिक्‍त सूचनाओ और विचारों को पहुंचाने के लिए हिन्‍दी में ढेरों वेबसाईट और ब्‍लॉग चल रहे हैं। जो धीरे-धीरे ही सही पर अपना एक स्‍थान बना रहे हैं। इनका पाठक वर्ग तैयार हुआ है और तेजी से बढरहा है। प्रिंट और इलैक्‍ट्रानिक म‍ीडिया को इसे मजबूरी में मान्‍यता और स्‍थान देना पड रहा है।बेशक सूचनाएं और विचार इंटरनेट से पहुचाये जाने को मीडिया माना जाना चाहिए।
सिर्फ करोडों रूपये लगाकर चलने अखबार और चैनलों को ही मीडिया मानना गलत है। बडी पूंजी के साथ सत्‍ता का अनिवार्यसमीकरण होता है।इसलिए ये वेबसाईट और ब्‍लॉग एक तो मीडिया के नये उभरते हुए स्‍वरूप हैं दूसरे स्‍वतंत्र विचारों का स्‍पेस यहां ज्‍यादा होने की परिस्थितियां भी मौजूद हैं। मुझे लगता है लघु पत्रिकाओंकी निर्भीकता भविष्‍य में यहां स्‍थानातंरित हो सकती है। इन्‍हीं वजहों से इस पर हमलों के खतरें भी ज्‍यादा हैं। जाहिरा तौर पर भविष्‍य में अखबारों-चैनलों के मालिक मठाधीश पत्रकार सरकार-नेता अफसर और कट़टरपंथी समूह मीडिया के इस नये स्‍वरूप से चिढेंगे। भविष्‍य में कई तरह से हमले हो सकते हैं। सुशील कुमार सिंह के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई इसकी पहली कडी है। अत हमें इसे मीडिया के संवैधानिक अधिकारों पर हमला मानते हुए लामबंद हो जाना चाहिए। वेब पत्रकार संघर्ष समिति की पहल एक स्‍वागतयोग्‍य पहलकदमी है। अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता और जनसरोकारों से जुडे मुद़दों को उठाते रहने के अपने जनवादी अधिकार के लिए सभी जागरूक ब्‍लागर बंधुओं को आगे आना चाहिए। इस मसले पर पहल लेने वाले लखनउ के वरिष्ठ पत्रकार श्री अम्बरीशजी के ब्लॉग विरोध पर इस घटना और इस पर प्रतिक्रिया की विस्तार से जानकारी मिलेगी।

Friday, October 24, 2008

वेब अभिव्यक्ति पर पहला हमला-हम सब आपके साथ हैं

एचटी मीडिया लिमिटेड के प्रबंधन की शिकायत पर लखनउ पुलिस दिल्‍ली के पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान कर रही है। दरअसल हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स् लखनउ के बारे में सुशील कुमार सिंह ने अपनी वेबसाईट गॉसिप अडडा पर एक टिप्‍पणी दी थी जो प्रबंधन की पोल खोलने वाली थीइंटरनेट पर बेवसाईटों और ब्‍लॉगों के जरिये की जाने वाली अभिव्‍यक्ति पर यह शुरूआती हमला है। जाहिरा तौर पर अखबारों और चैनलों की तुलना में यहां खुलकर बात कही जा सकती है। और इसी वजह से इसके उपर हमले की संभावनाएं भी ज्‍यादा हैं। फिलहाल एक वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन दिल्‍ली में हो गयाहै। वेब अभिव्‍यक्ति की आजादीके संघर्ष में सभी जागरूक ब्‍लॉगर भी पत्रकार सुशीलकुमार सिंह के साथ हैं। इस उत्‍पीडन के खिलाफ नैतिक और भौतिकरूपसे एकजुट होकर नेट और सडकों दोनों हम सभी को आवाज उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। जिस टिप्‍पणी पर एचटी मीडिया प्रबंधन बौखलाया हुआ है उसे नीचे दे रहा हुं।

--क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी अखबार के मालिक का देहांत हो जाए और अपने ही अखबार में उसका फोटो गलत छप जाए। लेकिन यह कमाल किया हाल में हिंदुस्तान टाइम्स ने। उसने अपने हिंदी सहयोगी दैनिक हिंदुस्तान के कारनामों को पछाड़ते हुए के. के. बिरला के निधन पर जो तस्वीरें प्रकाशित कीं उनमें से एक तस्वीर किसी और की थी। उसके अगले दिन भूल-सुधार करते हुए अखबार ने बताया कि पिछले दिन एक तस्वीर में कैप्शन गलत छप गया था। यानी फिर गलत सूचना दी गई, क्योंकि कैप्शन ही नहीं वह तस्वीर ही गलत थी क्योंकि वह किसी और की थी। अब इस दूसरी गलती के लिए भूल-सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी क्योंकि उसके बाद मालिक के निधन पर संस्थान में अवकाश था।इतना ही नहीं, निधन वाले दिन हिंदुस्तान टाइम्स, लखनऊ में मार्केटिंग के एक सीनियर अधिकारी की फेयरवेल पार्टी थी जिसे स्थगित नहीं किया गया। इस कार्यक्रम में अखबार के सभी सीनियर लोग मौजूद थे। वहां मिठाई भी खिलाई गई और स्नैक्स भी। विदाई के रस्मी भाषण भी दिए गए। चौंकाने वाली बात यह है कि यह कार्यक्रम संस्थान के चेयरमैन के. के. बिरला की शोक सभा के मुश्किल से आधे घंटे बाद शुरू हुआ। फहमी हुसैन और नवीन जोशी इत्यादि जो आधे घंटे पहले बिरला जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे अब कंपनी से जा रहे मार्केटिंग अधिकारी की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे।

Wednesday, October 15, 2008

कल विश्व खाद्य(हीन) दिवस है

अब तक ईजाद तमाम बमों से ज्यादा खतरनाक बम 'भूख का बम' सुलगना शुरू हो गया है और कभी भी फट सकता है। मौजूदा अमेरिकी मंदी और उसके असर ने इसमे आग में घी डालने जैसे हालत पैदा कर दिए हैं। कल १६ अक्तूबर विश्व खाद्य दिवस के रूप में मनाया जाएगा लेकिन दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या तेज़ी से बढती जा रही है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (ऐऍफ़ओ) के अनुसार २००२ की तुलना में खाद्यान्नों की कीमतों में १४०% की भारी-भरकम वृद्धि हुई है। इसकी वजह से दिसम्बर २००७ से ४० देशो को खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ रहा है। हैती और मेक्सिको में लाखों लोग इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए वही कई देशों में दंगे और लूटपाट की घटनाएं हुई। राष्ट्र संघ ने इन देशो में खाद्य संकट के कारण सामाजिक और राजनितिक उथल-पुथल यानी 'युद्ध जैसी स्थिति' पैदा होने की चेतावनी दी है। इंडोनेशिया, आइवरी कोस्ट, सेनेगल, फिलिपींस, मोरोक्को जैसे देशों में स्थिति ख़राब है। एक रपट के अनुसार हमारे देश में भी दाल, खाद्य तेल और चीनी की भारी कमी २०११ के बाद पैदा हो जायेगी। अर्जुनसेनगुप्ता कमिटी के मुताविक देश में 77% फीसदी लोग 20 रूपये रोजाना से कम में अपना गुज़ारा करते हैं। सोचा जा सकता है की १५ रूपये किलो आटा और १८ रूपये किलो चावल भी इस तबके के लिए काफी महंगा है।
जहाँ एक तरफ़ स्थिति इतनी भयंकर है वहीँ कुछ तथ्य भुखमरी को मुंह चिडाते नज़र आते है। 'गार्जियन' में छपी विश्व बैंक की एक गोपनीय रपट के अनुसार अमीर देशों द्वारा जैव ईधन के इस्तेमाल से खाद्यके दामों में ७५ फीसदी (अमेरिका का दावा सिर्फ़ ३ फीसदी का है) की वृद्धि हुई है। मक्का से एथेनोल बनने वाले अमेरिका ने पिछले तीन साल के दौरान दुनिया के कुल मक्का उत्पादन का ७५ प्रतिशत हिस्सा हड़प कर लिया। कनाडा में कीमत कम होने की वजह से १,५०,००० सुयरों को मारने पर ५ करोड़ डॉलर खर्च किए गए। हमारे देश की सरकारी व्यवस्था भी पीछे नहीं है। भारतीय खाद्य निगम ने माना है की उसके गोदामों में हर साल ५० करोड़ रूपये का १०.४० लाख मीट्रिक तन अनाज ख़राब हो जाता है। यह अनाज हर साल सवा करोड़ लोगों की भूख मिटा सकता है! दुनिया में खाने-पीने की कमी नहीं बल्कि उनके सही बँटवारे की कमी है।
सवाल यह है की इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सामने दिखायी देने वाली सरकारी नीतियां इसके लिए जिम्मेदार नज़र आती हों पर असली खेल बाज़ार की ताक़तवर शक्तियां खेल रही हैं। एग्रो बिजनेस मेंबड़ी कंपनियों ने पकड़ बना ली है। खाद्यान्न बाज़ार की सट्टेबाजी में निवेश २००६ के १० अरब डॉलर से २००८ में ६५ अरब डॉलर पहुँच गया है। खाद्य संकट से मोनसेंटो ने २००%, कारगिल नामक कम्पनी ने ८६%, बनगे ने२०% मुनाफा पिछले साल कमाया। वैश्विक स्तर पर महज़ ६ कंपनियों ने पूरे अनाज व्यापार के ८५ फीसदी हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। कुछ लोगों की मुनाफे की हवस करोडो लोगों को मौत के मुंह में धकेल रही है। ज्यादातर देशों की सरकारें इन ताक़तों के साथ खड़ी हैं बाकि बेवस हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो बमों से मरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा भूख से मर जायेंगे। तो क्या कोई रास्ता नहीं बचा? सबके विफल हो जाने पर इतिहास के रंगमंच पर जनता ख़ुद उतरती है और फ़ैसला करती है। पैदा करने वाले लोग ही आखिरकार उसके बँटवारे का नया तौर-तरीका इजाद करते हैं। क्या यह रास्ता नए सिरे से दुनिया का ढंग-ढर्रा पूरी तरह बदलकर तो नहीं निकलेगा?

Friday, October 10, 2008

ऐसे लोगों का क्या करें?

दशहरा रैली में फ़िर से बाल ठाकरे ने समाज में विष घोलने वाली बात दोहराई है। आपके ख्याल में ऐसे लोगो का क्या किया जाना चाहिए? ऐसे लोगों और उनकी विचारधारा की खिलाफ जनता की प्रतिरोधक ताक़त के खड़ा होने तक कुछ तो किया ही जा सकता है। बल्कि ऐसा जो इस ताक़त के खड़ा होने में मदद करे... । बाल ठाकरे जैसे लोग जिस प्रजाति के प्राणी हैं, उस प्रजाति का इतिहास ही मानवता विरोधी जघन्य अपराधों से भरा पड़ा है। तो ऐसे में इस प्रजाति के लोगो को इंसानों की सूची में से खारिज कर देने की सिफारिश बेलारूस के क्रांतिकारी कवि मक्सिम तांक अपनी निम्नलिखित कविता में कर रहे हैं।

कौन मनुष्य और कौन नहीं...

जनगणना अधिकारीयों के लिए जब

तैयार किए जा रहे हों आवश्यक निर्देश

ज़रूरी है वक्त पर बता देना

किसे मनुष्य जाए और किसे नहीं।

इसलिए की हम यानि जिन्हें मालूम है

कितना भारी होता है हल

और कितनी यातनापूर्ण होती है जुदाई

और कैसी होती है विदाई

जिनके लौटने की कोई उम्मीद नहीं!

हमसे कभी स्वीकार नहीं हो सकेगा

मनुष्यों में शामिल किया जाना

उन लोगों का

जिन्हें आज भी अभिशाप दे रही हैं

बेसहारा बहने और माताएं

अभिशाप दे रही हैं

भास्माव्शेशों से भरी

यह पृथ्वी।

Wednesday, October 8, 2008

रावण का है राज जगत में!

क्रांतिकारियों की नर्सरी यानि लाहौर के नेशनल कालेज के प्रिंसिपल श्री छबीलदास उन लोगों में से थे जिन्होंने भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों की पूरी पीढी को प्रेरित और उत्साहित किया। नेशनल कालेज उन दिनों क्रांतिकारियों का अड्डा ही समझा जाता था। श्री छबीलदास ख़ुद क्रांतिकारी विचारों के आदमी थे। उन्होंने दुनिया भर का क्रांतिकारी साहित्य उपलब्ध कराकर एक तरह से खाद-पानी देने का काम किया। भगतसिंह द्वारा बनाई गयी नौजवान भारत सभा से जुड़कर अपने शिष्य के कामों को जीवन भर आगे बढाते रहे। वे एक अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने कई छोटी पुस्तिकाएं लिखी थी। ये जानकारी janchetna से हाल में छपी बेहद जानकारीपूर्ण और तेजी से लोकप्रिय होती जा रही किताब 'बहरों को सुनाने के लिए' (लेखक एस.इरफान हबीब) में दी गयी है। श्री छबीलदास की राम और रावण को प्रतीक बनाकर लिखी एक कविता नीचे दे रहा हूँ...
राम और सीता छ: पैसे में!
कृष्ण और राधा छ: पैसे में!!
मैंने पुकारा रावण दे दो!
बोला तीन आने में ले लो!!
मैंने कहा ऐ मूरतवाले!
भोली भली सूरत वाले!!
राम और सीता छ: पैसे में!
कृष्ण और राधा छ: पैसे में!!
लछमन सस्ता, शिवजी सस्ता!
रावण है क्यों इतना महंगा!!
बोला वे हैं छोटे-छोटे!
बनते हैं थोडी मिटटी से!!
उफ़ रे! रावण का मुहँ काला!
लंबा मोटा दस सर वाला!!
जब भी हूँ इसे मैं बनाता!
माल मसाला सब चुक जाता!!
बोला 'इसे बनाते क्यों हो?'
इतना माल लगाते क्यों हो?
राम को बेचो सीता को बेचो!
लछमन बेचो शिवजी बेचो!
बोला, इसकी मांग बहुत है!
घर घर इसकी धाक बहुत है!!
हर घर हर मन इसका मंदर!
मुहँ में राम तो रावण अन्दर!!
सीताराम के गए पुजारी!
अब है रावण की मुख्तारी!!
रावण का है राज जगत में!
खेत को खाए बाढ़ जगत में!!

Friday, October 3, 2008

धर्म और जनता

धर्म सदियों से इंसानी जीवन के साथ रहा है। हर चीज़ की तरह इसके भी दो पक्ष रहे हैं। आमतौर पर हमारे देश में धरम पर अवैज्ञानिक नजरिया हावी रहा है। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय भारतीय दर्शन के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान थे। भारतीय दर्शन के वैज्ञानिक पक्ष पर उनकी किताब 'लोकायत: प्राचीन भारतीय भौतिकवाद पर अध्ययन', (१९५९) एक महत्वपूर्ण किताब है। उनके धर्म पर एक लेख के संपादित अंश दे रहा हूँ:-

इंग्लैंड के राजा चार्ल्स प्रथम को प्राणदंड दिए जाने के बीस साल बाद फ्रांसीसी बिशप बोस्सुये ने कहा, "जब आप धर्म के साथ छेड़छाड़ करते हैं तब आप उसे कमज़ोर करते हैं और उसे उस गुरुता से वंचित कर देते हैं जिसके बल पर वेह जनता को नियंत्रण में रखता है। " आप उक्त कथन से सहमत हो या न हो लेकिन आप उसकी उर्क्रिष्ट स्पष्टता से इंकार नहीं कर सकते। बोस्सुये द्वारा किया गया धर्म का समर्थन वस्तुत: बिल्कुल साफ़ शब्दों में धर्म के राजनीतिक कार्य का समर्थन था। इसे जनता को नियंत्रण में रखने का एक कारगर हथियार माना गया है

किसी व्यक्ति के वैयक्तिक विश्वासों में समाजशास्त्री की कोई दिलचस्पी नहीं है।...

आइसोक्रितिज़ इसा पूर्व चौथी शताब्दी का एक सुविग्य यूनानी था। उसने धर्म की उपयोगिता के बारे में लिखा। प्रथम, "क्योंकि उसकी राय में यह उचित था की जनता अपने से बड़ों द्वारा दिए गए प्रत्येक आदेश का पालन करने की अभ्यस्त हो जाए और दूसरे, "उसने देखा की जो लोग अपनी पवित्रता का प्रदर्शन करते थे वे अन्य सभी दृष्टियों से भी कानून का पालन करने वाले होते थे। " वस्तुत: संगठित धर्म जिस प्रकार की आचरण की अपेक्षा करता है, वह ऐसी है जो जनता को अनुपालन का अभ्यस्त कर देती है। जुड़े ही हाथ, झुका हुआ सर, टिके हुए घुटने- दूसरे शब्दों में, सहमति और समर्पण की मुद्रा और मन:स्थिथि। यह वही आचरण है जिसकी एक स्वामी अपने कृत दास से, ज़मींदार अपनी रियाया से, राजा अपनी प्रजा से अपेक्षा करता है।

Wednesday, October 1, 2008

रामलला का लाला से रिश्ता

भव्य रामलीलाओं का मौसम है। लेकिन एक सवाल बार-बार उठता है कि एक-एक पैसा दांत से पकड़ने वाला लाला रामलीला के लिए लाखों रुपये क्यों दे देता है? यह सवाल एक दिलचस्प सामाजिक-राजनीतिक पहलू को खोलता है...


पिछले कुछ सालों में रामलीलाओं का स्वरुप काफी बदल गया है। अब यह बड़ी पूँजी का खेल बन गया है। बाज़ार यहाँ भी पहुँच गया है। लेकिन आज भी व्यापारिक तबका ही इसके आयोजन से लेकर पैसा लगाने में आगे रहता है। ऐसा क्यों है आइये जानते हैं। रामलीला का आधार रामायण है। पहले यह ग्रन्थ केवल महलों और गुरुकुलों तक ही सीमित था। तुलसीदास द्वारा इसका सरल भाष्य लिखने पर यह आम जनता में लोकप्रिय होना शुरू हुआ। सनातन धर्म और उसके राजाओ के लिए यह बड़े काम की चीज थी। इसकी मदद से जनता को धर्मभीरु और राजा का स्वामिभक्त बनने की घुट्टी बड़ी आसानी से पिलाई जा सकती थी। जाहिरा तौर पर राजाओं ने इसे शासकीय प्रश्रय प्रदान किया। राजाओं द्वारा संरक्षित ऐसी रामलीला बनारस के रामनगर और हिमाचल के कुल्लू में आज भी देखी जा सकती है। गीत-संगीत का समावेश होने के बावजूद अभी भी रामकथा का श्रव्य रूप ही ज्यादा लोकप्रिय रहा। स्थानीय स्तर पर रामकथा कहने वालों को ज़मींदारों का सहारा मिला। रामलीला को वर्तमान स्वरुप में लोकप्रिय बनने का कम २०वी सदी की शुरुआत में 'राधेश्याम कथावाचक' ने किया। उन्होंने संक्षिप्त, चुस्त और प्रवाहमय पटकथा के साथ इसमे पारसी रंगमंच की नाटकीयता जोड़ दी। यह वही समय था जब हमारे देश का व्यापारिक तबका राष्ट्रिय आन्दोलन के नेतृत्व को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश कर रहा था। इस उदीयमान तबके को भी राजाओं और ज़मींदारों की तरह रामलीला की उपयोगिता समझ में आ गयी थी। लिहाज़ा तभी से वह इसके पीछे मुस्तैदी से खड़ा हो गया और आज भी खड़ा है।

रामायण जनता को मर्यादा (यानि अपनी औकात) में रहने की सीख देती है। उसे घर पर माँ-बाप, बड़े भाई तो समाज में अपने से बड़े हर किसी की हर सही-ग़लत बात मानने की शिक्षा दी जाती है। उसे सिखाया जाता है की हनुमान की तरह अपने प्राणों की बाज़ी लगा कर आजीवन अपने मालिक के चरणों का दास बना रहना चाहिए। उसे तार्किक, प्रश्न पूछने वाला कतई नहीं होना चाहिए। उसे हर आज्ञा का सर झुका कर पालन करना चाहिए। कुल मिलाकर यह जनता को अतार्किक, आज्ञा पालन करने वाली, स्वामिभक्त और धरमभीरू बनाती है।

यही मूल्य लालाओं को इसे समाज में प्रचारित करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये मूल्य उस तबके के लिए बेहद मुफीद हैं जो २ रुपये की चीज १० रुपये में बेचता हो। जो मेहनत के नाम पर घर से गल्ले पर आना-जाना ही करता हो। जो गद्दी पर बैठे-बैठे धन-संपदा इकट्ठा करता जा रहा हो। जिसे इमानदार और मेहनती काम करने वालों की ज़रूरत पड़ती हो। जिसके लिए अपने नौकरों को संयम का पाठ देना अति आवश्यक हो। उसके लिए हनुमान पैदा कर सकने वाली शिक्षा उसकी कई समस्याओं का हल है। सो ये सारे काम रामलीला बखूबी निभाती है। हालाँकि कोई लाला यह सोच कर रामलीला में दान नहीं देता होगा लेकिन उसकी सामाजिक चेतना उसे इसके लिए प्रेरित ज़रूर करती है।