सॉब घर में एक पैसा नहीं है , दीवाली आ गयी है। कुछ पैसा दे देते , बच्चों का त्यौहार मन जाता....। अबे तो दिवाली का भार मेरे मत्थे डालेगा , पैसा नहीं है । जाकर चुपचाप काम कर।
ये कोई कहानी नहीं जिन्दगी की तस्वीर है जो देश के करोड़ों लोगों का हाल बयां करती है। 20 रूपया रोज कमाने वाले इस तबके के लिए त्यौहार खुशियों की नहीं चिन्ताओं की सौगात लेकर आते है। आमतौर पर सबके मन में त्यौहार पर उत्साह-उमंग की हिलोरें उठती हैं। कुछ बढि़या पहनने, बढि़या खाने और मिलजुल कर खुशी मनाने की सहज मानवीय इच्छाओं का गला जालिम सामाजिक व्यवस्था घोंट देती है।बड़े लोग तो फिर भी मन मसोस कर रह लेते हैं , लेकिन बच्चों का क्या वो तो 10 दिन पहले से उछलकूद मचाने लगते हैं। नये कपड़ों और खूब सारे पटाखों की फरमाईश होने लगती है। पर हमारे देश के तेजी से विपन्न होते जा रहे इस तबके की दीवाली पेटी में सहजें कपड़ों, सिंथेटिक मावे की सस्ती मिठाई , कुछ मोमबत्ती और दियों के सहारे बनती है। और इन चीजों के लिए भी पैसे जुगाड़ना पहाड़ पर चढ़ने के समान होता है। इन लोगों की दिवाली ठेकेदार या मालिक की मर्जी से मनती है। दीवाली पर मिलने वाला बोनस दूसरे श्रम कानूनों की तरह दूर की कौड़ी ही हैं। पांव पकड़कर एडवांस लेकर या किसी से कर्ज लेकर बाट जोह रहे बच्चों के लिए मिठाई और पटाखे आते हैं।
नमूना सर्वेक्षण 2000 के मुताबिक हमारे देश में 36.9 करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। ये अस्थायी, ठेका या दिहाड़ी पर काम करते हैं। छोटे किसानों के तेजी से उजड़ने से यह आबादी तेजी से मजदूरों के रूप में बड़े शहरों के इर्दगिर्द बढ़ती जा रही है। इनके परिवार की संख्या जोड़ने पर यह तबका हमारे देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी बनती है। सरकारी कागजों से परे ज्यादातर को कोई अधिकार वास्तव में हासिल नहीं है। उनके लिए कानून ठेकेदार की जबान होता है। जो कह दे वही सही।
तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि मन्दी के तमामस्यापों के बीच भी बाजार सजे पड़े हैं और खरीदारों की भीड़ भी है। बढि़या कपड़ों, ब्राण्डेड मिठाई के पैकेटों, कारपोरेट गिफ्ट आईटमों से लदे-फदे लोग हैप्पी दीवाली का समवेत मंत्र जाप कर रहे हैं। इन सारी चीजों को बनाने वालों के बच्चे इन्तजार कर रहे हैं कि शायद ठेकेदार का दिल पसीज जाये...
भावनाएं चेतना का ही अंग हैं। चेतना हमारे समय के आसपास के यथार्थ से कटी होने पर यथार्थपरक नहीं हो सकती। त्यौहार का मतलब अगर मिलजुल खुशी मनाने से होता हैतो हैप्पी दीवाली के शोर में वक्त निकाल कर जरा सोचिए कि सब लोग मिलजुल कर खुशी क्यों नहीं मना पाते हैं। अपने दायरों से बाहर निकल कर हमें शायद त्यौहार या खुशियों का मतलब ज्यादा समझ आने लगेगा।